रविवार, 8 मार्च 2020

(रेडियो वार्त्ता) कामकाजी महिलाओं का आत्मसम्मान


अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: 8 मार्च
कामकाजी महिलाओं का आत्मसम्मान
  • डॉ. पूर्णिमा शर्मा  

वर्तमान समय में महिलाओं के कार्य क्षेत्र में भारी परिवर्तन आया है। इतिहास के हवाले से यह कहा जा सकता है कि सभ्यता के आरंभिक काल में स्त्री और पुरुष दोनों ही घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी संभालते थे। लेकिन धीरे-धीरे श्रम का विभाजन कुछ इस तरह होता गया कि स्त्री का कार्यक्षेत्र घर तक सीमित हो गया। आगे चलकर समाज में जब पुरुष प्रधान व्यवस्था स्थापित हुई, तो धीरे-धीरे स्त्री की सामाजिक स्थिति गुलामों सरीखी होती चली गई। मध्यकाल में तो एक समय ऐसा भी आया कि स्त्री के आत्मसम्मान को पुरुष की संपत्ति समझा जाने लगा। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक कारणों के चलते स्त्री की दुनिया चौके, चूल्हे और बिस्तर तक सिमट कर रह गई। उसे बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाने लगा। घर और बच्चों पर तो क्या अपने शरीर तक पर उसे अधिकार प्राप्त नहीं था। खाने-पहनने से लेकर उसके जीने-मरने तक के फैसले पुरुष के हाथ में चले गए। स्त्री की अपनी इच्छा-अनिच्छा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। इस दयनीय दशा की ओर इशारा करते हुए महाकवि परमेश्वर द्विरेफ़ ने ठीक ही कहा है कि, "नारी तो नर की दासी है/ नर के टुकड़ों पर पलती है/ नर के इंगित पर जीवन भर/ कठपुतली की ज्यों चलती है/ चक्की चूल्हा चौका बर्तन/ नारी जीवन की माया है/ संतान जनन का यंत्र/ पुरुष की अनुगामी, वह छाया है!" 

भला ऐसी स्थिति में स्त्री के आत्मसम्मान, अधिकार अथवा सार्वजनिक जीवन में उसकी भूमिका की कोई कल्पना भी कैसे कर सकता था। लेकिन आधुनिक काल में जब लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों का प्रकाश फैला, तो स्त्री के मानव अधिकारों की ओर भी लोगों का ध्यान गया। स्त्री को सामाजिक जीवन से काटकर घरेलू चारदीवारी में कैद कर देना कितनी बड़ी भूल थी; नवजागरण के हमारे अग्रणी महापुरुषों ने इसे गहराई से महसूस किया। उनकी पुकार पर समाज में नई चेतना आई तथा महिलाओं में अपने आत्मसम्मान के प्रति जागरूकता पैदा हुई। इसे लक्षित करते हुए महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने कालजयी महाकाव्य 'कामायनी'  में उचित ही कहा है कि, "तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में/ कुछ सत्ता है नारी की/ समरसता है संबंध बनी/ अधिकार और अधिकारी की।" 

यही वह समय था जब भारत में स्वतंत्रता आंदोलन अपने शिखर पर था। महात्मा गांधी की प्रेरणा से इस महादेश की हजारों-लाखों स्त्रियां चूल्हे-चौके की दुनिया से बाहर निकलकर शिक्षा, समाज सुधार और राजनीति के व्यापक क्षेत्रों में पूरी ताकत के साथ कूद पड़ीं। इस महान घटना ने भारतीय स्त्री जाति को प्रबल आत्मविश्वास तथा उज्ज्वल आत्मसम्मान के उच्च भावों से भर दिया। जहाँ एक तरफ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त यदि यह कह रहे थे कि, "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी/ आंचल में है दूध और आंखों में पानी!" तो  वहीं दूसरी तरफ सुभद्रा कुमारी चौहान यह आवाज उठा रही थीं कि, "सबल पुरुष यदि भीरु बनें, तो/ हमको दे वरदान, सखी/ अबलाएँ उठ पड़ें देश में/ करें युद्ध घमसान, सखी!" इसी का परिणाम हुआ कि पूरे देश में महिला जागरण की लहर दौड़ पड़ी। आधुनिक युग की मीराँ, महादेवी वर्मा ने इसे ही ध्यान में रखकर कहा था कि, "कीर का, प्रिय, आज पिंजर खोल दो!" और सचमुच शताब्दियों से पिंजरे में बंद महिलाएँ आजादी के बाद तमाम कार्य क्षेत्रों में सक्रिय रूप से उतर पड़ीं। आज भारतवासी गौरव के साथ कहते हैं कि हमारे देश में महिलाएँ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक के उच्चतम पदों पर आसीन हो चुकी हैं!

लेकिन इस कटु सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने स्त्री सुलभ गुणों के कारण आज भी विभिन्न कार्य क्षेत्रों में सक्रिय कामकाजी स्त्री को अपने आत्मसम्मान के लिए पल-पल आशंकित रहना पड़ता है।  जैसा कि कामायनी-कार ने अपनी नायिका के मुंह से कहलवाया है, "यह आज समझ तो पाई हूँ/ मैं दुर्बलता में नारी हूँ/ अवयव की सुंदर कोमलता/ लेकर मैं सबसे हारी हूँ।" अपनी कमनीयता के कारण कामकाजी महिलाएँ भी अपने कार्य क्षेत्र में निरंतर अवांछनीय घटनाओं को झेलने के लिए अभिशप्त हैं। इसीलिए कामकाजी महिलाओं के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अनेक दिशा निर्देश तथा कानून बनाए गए हैं। 

कैसी विडंबना है कि आज भी हमारे देश में ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं कि रक्षा क्षेत्र में महिलाओं को केवल इसलिए सर्वोच्च पदों से वंचित रहना पड़ा है कि कहीं  'पुरुष' सिपाही एक 'महिला' अधिकारी के आदेश मानने से इनकार न कर दें! संतोष का विषय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस भेदभाव को समाप्त करने का आदेश दिया है। लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि अभी तक कामकाजी स्त्रियाँ किस तरह के भीषण लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं।  यह उनके आत्मसम्मान का हनन है। 

लैंगिक भेदभाव ही नहीं, कामकाजी स्त्रियों को इस पुरुष प्रधान समाज में पग-पग पर लैंगिक छेड़छाड़ और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है। यही कारण है कि कामकाजी स्त्रियों के आत्मसम्मान और सुरक्षा के लिए विशेष कानूनों की जरूरत पड़ती है। इसके बावजूद, एक सर्वेक्षण में यह खतरनाक सच्चाई सामने आई है कि ऑफिस में महिलाओं की सुरक्षा पर केवल 3 प्रतिशत संस्थाएं ही ध्यान देती हैं। यहां तक कि मुंबई जैसे सब प्रकार से उत्तर आधुनिक महानगर में भी अनेक कामकाजी महिलाएं उन कानूनों से परिचित तक नहीं हैं, जो उनके आत्मसम्मान और सुरक्षा के लिए ही बनाए गए हैं। ऐसे में छोटे शहरों और कस्बों के बारे में तो केवल कल्पना ही की जा सकती है। इस सर्वेक्षण में दक्षिण मुंबई के चार सौ उनचास ऐसे संस्थानों की महिलाओं से बात की गई, जहां 10 से अधिक लोग काम करते हैं। सर्वेक्षण में पता चला कि तीन सौ छियासी, यानी छियासी प्रतिशत, संस्थानों को केंद्र सरकार के यौन उत्पीड़न अधिनियम- 2013 के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उनचास संस्थानों को इस कानून की जानकारी तो है, लेकिन वे इस पर अमल नहीं करते। कहना न होगा कि देश की न्याय व्यवस्था के जागरूक होने भर से काम नहीं चलेगा। ज़रूरत है कि कामकाजी महिलाएँ स्वयं उन प्रावधानों के प्रति जागरूक हों, जो खास तौर पर कार्यस्थल पर उनके आत्मसम्मान को सुनिश्चित करने के लिए ही बनाए गए हैं। दूसरी ओर यह भी देखना होगा कि वह कोई दुकान हो या दफ्तर, छोटी सी कंपनी हो या विशाल कारपोरेट जगत, हर कार्य क्षेत्र में स्त्रियों के आत्मसम्मान की गारंटी उपलब्ध है या नहीं। उल्लेखनीय है कि कामकाजी महिलाओं के आत्मसम्मान से जुड़े कानूनों का पालन न करने के मामले में एक प्राइवेट कंपनी पर सितंबर 2014 में 1 करोड़ अडसठ लाख रुपये का जुर्माना मद्रास उच्च न्यायालय ने लगाया था। तो भी देश के जयादातर प्राइवेट संस्थानों में इन कानूनों की अनदेखी ही की जाती है। ऐसे स्थानों पर महिलाओं और उनके सहकर्मियों को मिल कर इन कानूनों के पालन की मांग करनी चाहिए। 

इस अवस्था में यह सवाल स्वाभाविक है कि कामकाजी महिलाओं को अपने आत्मसम्मान की रक्षा के  लिए मिले अधिकारों की जानकारी क्यों नहीं है। साथ ही यह भी कि प्रायः अनेक कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न अधिनियम- 2013 का पालन क्यों नहीं किया जाता। इस दो-तरफा लापरवाही का ही नतीजा है कि आए दिन कामकाजी महिलाओं के कार्यस्थल पर यौन शोषण के समाचार आम बात बन गए हैं। दरअसल, जब कोई ऐसी बड़ी घटना हो जाती है कि कामकाजी महिलाओं का आत्मसम्मान राष्ट्रीय प्रश्न बन जाता है, तब तो ज़रूर ऐसा लगता है कि स्त्री के अधिकार और सुरक्षा के बारे में जागरूकता का सैलाब आ गया है। लेकिन यह सैलाब इतना सतही होता है कि कुछ ही दिन में लापता भी हो जाता है। शर्म की बात तो यह है कि एक तरफ कैंडल मार्च निकलते रहते हैं और दूसरी तरफ महिलाओं की मर्यादा और लज्जा तार तार की जाती रहती है।  पुरुषों और स्स्त्रियों को इस तथ्य के बारे में शिक्षित और जागरूक किए जाने की ज़रूरत है कि यौन उत्पीड़न अधिनियम- 2013 में "न केवल महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के लिए कहा गया है, बल्कि इसके साथ ही महिलाओं के साथ उचित सम्मान, विनम्रता और गरिमा के साथ पेश आने की बात कही गई है। इसमें यह भी कहा गया है कि भारत का संविधान धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करने के साथ ही हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है। इसके साथ ही यह सभी नागरिकों को कोई भी पेशा अपनाने का भी मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इस अधिकार के तहत महिलाओं के लिए कार्यस्थलों पर अनुकूल और हर प्रकार से सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराना भी शामिल है।" 

अंततः इतना ही कि कामकाजी महिलाओं का सम्मान सुनिश्चित करने के लिए कानून तो बने हुए हैं, लेकिन उनके प्रति अवहेलना का जो भाव लगभग सारे समाज में व्याप्त है, जब तक वह नहीं मिटेगा, तब तक महिलाओं का आत्मसम्मान भी आग की लपटों से घिरा रहेगा।000

-208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद-500013.
मोबाइल: 08297498775.

शनिवार, 17 मार्च 2018

"सुनो तो सही" की कविताओं पर डॉ. चंदन कुमारी की समीक्षा

ज्ञानतत्व और स्नेहभरित मन की संयुक्त अभिव्यक्ति डॉ. पूर्णिमा शर्मा (1965) प्रतिष्ठित समीक्षक, लेखिका और कवयित्री होने के साथ-साथ हैदराबाद स्थित “हिंदी हैं हम विश्व मैत्री मंच” नामक साहित्यिक संस्था की माननीय उपाध्यक्ष हैं | इन्होने मासिक स्तंभ ‘प्रसंगवश’ का कई वर्ष तक प्रकाशन किया है | समीक्ष्य काव्य संग्रह “सुनो तो सही (2017)” इनकी सद्यःप्रकाशित रचना है जिसका किंडल संस्करण अमेजन पर पठन-पाठन एवं प्राप्ति हेतु उपलब्ध है | इनकी विद्वता का उल्लेख वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद् प्रो.सियाराम तिवारी ने अपने आलेख “हैदराबाद जैसा मैंने देखा” में किया है | ‘परम पुनीता, गुरुमाता डॉ. पूर्णिमा शर्मा को सादर समर्पित’ यह समर्पण वाक्य डॉ. अनुपमा तिवारी ने अपने सद्यः प्रकाशित पीएचडी शोध ग्रन्थ ‘मेहरुन्निसा परवेज की कहानियाँ : सामाजिक यथार्थ और कथाभाषा’ में लिखा है | मन को अभिभूत कर देने वाला यह संबोधन गुरुकुल परंपरा की याद दिलाता है और शीश स्वतः श्रद्धा और आदर के वशीभूत होकर नत हो जाता है | 

समीक्ष्य काव्य संग्रह “सुनो तो सही” में कुल 22 कविताएँ हैं जो जन और जीवन के नब्ज को टटोलने के क्रम में सहसा ही यथार्थ को उघाड़ने का उद्यम कर जाती हैं | अपने इस स्वाभाविक प्रयास में कवयित्री के शब्द युगहित में आवश्यक परिवर्तन की ओर इशारा करते हुए हृदय की भीतरी तह को छूकर, आँखों में सफलता के बाद का थिरता जल और बृहत्तर परिवर्तन की चाह से जुड़ी आस की मीठी मुस्कान लाने वाले बन गए हैं | द्रष्टव्य है परिवर्तन-कामी स्त्रियों की दृढ़ इच्छा शक्ति द्वारा निर्णीत एक परिवर्तन, कवयित्री के शब्दों में –

 “और तय कर लिया है –
लेकर रहेंगी अपने हिस्से का आकाश ;
भरेंगी ऊँची उड़ान ,
नापेंगी सातों समंदर
और साबित करेंगी –
हम सिर्फ आँगन लीपने
और
झोलों में बंद करने की चीज नहीं हैं
हम बेटियाँ हैं ! हम स्त्रियाँ हैं !!” (बेटियाँ हैं हम, पृ.30) 

सशक्त और मुस्कुराती स्त्री की अंतरात्मा की न दिखाई देनेवाली कलप को भी कवयित्री ने पूरे मनोयोग से न सिर्फ उकेरा है वरन जमीनी विकल्प भी दिया है | आधुनिक समाज में विचारों और भावनाओं का यह उत्तर पक्ष ही है कि अपने वजूद को भूलकर और अपने जड़ों से कटकर जीने की नसीहत देने की पूर्ववर्ती परंपरा से अलग हटकर माँ के रूप में स्त्री अपनी सशक्तता जताते हुए कहती है –

 “मैं खड़ी हूँ – अपनी बेटी के साथ;
मैं उसका कल हूँ;
और मैं खुद को जलाने की इजाजत नहीं दूँगी !!” (बेटी की विदाई, पृ. 28) 

यह सशक्तता हर जगह या तो सधती नहीं या फिर वातावरण पर हावी हो जाती है दूषित मानसिकता, तभी भ्रूणहत्या-सा जघन्य अपराध समाज में निरंतर आश्रय पाए हुए है | अपनी मृत्यु की प्रक्रिया के हर चरण को देखती अवाक् अजन्मी बच्चियों का अपनी माँ से किया जाने वाला यह प्रश्न यहाँ द्रष्टव्य है – 

“जन्म से पहले क्यों पढ़े जा रहे हैं मृत्यु के मंत्र ?
क्यों मिलाया जा रहा है तुम्हारे गर्भजल में जानलेवा जहर ?” (गर्भ प्रश्न, पृ.22) 

भ्रूणहत्या सहित कई ऐसे मुद्दों को कवयित्री ने उठाया है जो ज्वलंत होने के साथ-साथ मर्मस्पर्शी भी हैं और हृदयविदारक भी | इसी क्रम में प्रस्तुत है भारत से निर्यात की जानेवाली मूंगफली को छीलती भारतीय मजदूर औरतों का एक शब्दचित्र द्रष्टव्य है –

 “और छिल जाते हैं उनके होंठ
इस तरह कि –
जुड़ नहीं पाते
एक प्याली चाय पीने की खातिर भी कभी !” (मूंगफली के दाने, पृ.6) 
सियासती विद्वेष से उत्पन्न रूह कंपा देने वाली परिस्थिति (प्रजा का हालचाल, पृ.7), सहनशील धरती को रुलाते आदमी की विकास यात्रा के उल्टे कदम (धरती रोती है पृ.13-14), दंगे और दहशत के माहौल में परिवारजनों का सशंकित - भयभीत मन और सारी भयावहता के बीच बचते-बचाते घर लौटी महिला की मनःस्थितियों के चित्रण के साथ ही इस संग्रह की कविताएँ कहीं पीढ़ी अंतराल के जरिए गणतंत्र दिवस के बदलते मायनों से जूझती नजर आती हैं तो कहीं आत्मीयता के खोल में छिपी दरिंदगी की लगातार जीत से झेंपे हुए मुँह बाए इंसानों से सामना करा जाती हैं | इस प्रक्रम में सामने आता है न्याय व्यवस्था के नैयायिक निर्णय का सच | समीक्ष्य काव्य संग्रह की ‘स्त्री हूँ’, ‘वक्त की बिल्ली’, ‘छाया सीता’, ‘जय हिंद’, ‘मन’ और ‘प्रार्थना’ शीर्षक कविताएँ भी अपने आप में विशिष्ट हैं | साहित्य और समाज के सामयिक यथार्थ को परिलक्षित करती ‘यह समय’ शीर्षक एक त्रिपदी भी इस संग्रह में शामिल है | 

‘वसंत आ गया’ शीर्षक कविता में जहाँ महानगरीय जीवन में प्राकृतिक सामीप्य के घोर अभाव की अरुचिपूर्ण स्थिति में कवयित्री द्वारा मुट्ठी भर वसंत को अपने गाँवों की अमराई से भर लाने की चाहत अभिव्यक्त हो रही है वहीँ एक अन्य कविता में वे वर्तमान प्रगतिशीलता की दिशाहीन आपाधापी के बीच ‘प्यार का पथ’ खोजने को उद्दत हैं, द्रष्टव्य है - 

‘किसी को परवाह नहीं –
न धर्म की, न शर्म की .
बस दौड़े जा रहे हैं सब –’
पुनः देखें -
‘हर रास्ता
ले जाता है बाजार तक
वह रास्ता कहाँ है
जो ले जाए प्यार तक ?’ (रास्ते, पृ.8) 

काव्य संग्रह ‘सुनो तो सही’ की कविताओं में मानवीय संवेदनाएँ अपने अंधतामुक्त स्वरूप में उपस्थित हैं | अपनी कविताओं में कवयित्री ने मानवीय संवेदनाओं की प्रभावपूर्ण अभिव्यंजना हेतु साहित्यिक प्रतीकों के साथ- साथ इतिहास, दर्शन, लोक और मिथक के संदर्भों का भी यथायोग्य प्रयोग किया है | सामयिकता से लबरेज इन कविताओं को कल्पनाओं से कोई परहेज नहीं है | संग्रह की अधिकांश कविताओं में स्त्री की गरिमा के पक्ष में स्त्री-स्वर प्रबल है | स्त्री पक्ष की प्रबलता से अन्य पक्षों का अस्तित्व कहीं भी बाधित नहीं हो रहा है | हिंदी साहित्य-संसार में कवयित्री डॉ. पूर्णिमा शर्मा का यह सराहनीय अवदान साहित्यिकों की बौद्धिक भूख की शांति एवं सामाजिकों की बौद्धिक जागृति का निमित्त होने के साथ ही सामान्य पाठकों और सामान्य वर्ग के लिए उनके अपने जिए जाने वाले और बहुधा नकार दिए जाने वाले सत्यों से साक्षात्कार है |

समीक्षित कृति : सुनो तो सही / कवयित्री : डॉ. पूर्णिमा शर्मा / संस्करण : प्रथम (2017) / प्रकाशन : किंडल (अमेजन) / मूल्य : 100 रुपए / पृष्ठ : 33 


(यह समीक्षा "साहित्य सुधा - मार्च 2018 - प्रथम" में प्रकाशित हुई है। लिंक - http://bit.ly/2pmPxkP )

बुधवार, 29 जून 2016

‘शार्प रिपोर्टर’ का पत्रकारिता विशेषांक

शार्प रिपोर्टर, (सं) अरविन्द कुमार सिंह,
वर्ष 9, अंक 2, अप्रैल 2016,
पत्रकारिता विशेषांक,
संपादकीय कार्यालय : नीलकंठ होटल, जिला कलेक्ट्रेट, आजमगढ़ 
प्रायः यह कहा जाता है कि मीडिया को आत्मालोचन और आत्ममंथन करना चाहिए. लेकिन मीडिया को दूसरों की आलोचना और डंकबाजी से ही फुर्सत नहीं मिलती. इसके अलावा खुद अपनी पड़ताल करने के खतरे भी बहुत हैं. इसलिए पत्रकारिता/ मीडिया सर्वज्ञ बनकर अपनी भीतरी सच्चाइयों से आँख मींचने के लिए स्वतंत्र है. सरकारी, राजनैतिक पक्षधर और प्रतिष्ठानी मीडिया इन्हीं कारणों से प्रायः संदेह के घेरे में रहता है. इसके विपरीत छोटी और जनपदीय पत्रकारिता आज भी निष्पक्ष और निर्भीक रहकर दंड भुगतने को अभिशप्त है. उसमें आज भी इतना दमखम और शर्म बाकी है कि मठों और गढ़ों को चुनौती दे सके. आजमगढ़ से अरविंद कुमार सिंह के संपादकत्व में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘शार्प रिपोर्टर’ ऐसी ही जागरूक और जुझारू पत्रकारिता का उदाहरण है. 

‘शार्प रिपोर्टर’ ने अपने अप्रैल 2016 के अंक को समग्र मीडिया मंथन पर एकाग्र करके यह प्रमाणित किया है कि हाशिए पर होते हुए भी जनपदीय अथवा आंचलिक पत्रकारिता संपूर्ण वर्तमान परिदृश्य में सुनिश्चित और सार्थक हस्तक्षेप की क्षमता रखती है. इस अंक की परिकल्पना तलवार की धार पर मीडिया को परखने की है. बड़े आकार के 180 पृष्ठ के इस विशेषांक की सामग्री 5 खंडों में संजोयी गई है. पहले तीन खंड हिंदी पत्रकारिता के कल और आज का ब्यौरा देते हुए आने वाले कल की पत्रकारिता की दिशा को पकड़ने की कोशिश करते हैं.

‘क्रांतिकाल’ में आजादी की लड़ाई से आजादी मिलने तक का लेखा-जोखा है. ‘उदंत मार्तंड’, ‘स्वराज’, ‘भारत मित्र’, ‘देवनागर’, ‘कवि वचन सुधा’, ‘सरस्वती’, ‘चाँद’ आदि पर दस्तावेजी सामग्री इस खंड को बार-बार पढ़ने की वस्तु बनाती है. यह खंड भारतीय पत्रकारिता के उस गौरवपूर्ण और बलिदानी इतिहास को रेखांकित करता है जिससे प्रेरणा प्राप्त करके आज भी नई दिशा का संधान किया जा सकता है. 

आजादी से आपातकाल के पूर्व तक की पड़ताल ‘शांतिकाल’ शीर्षक दूसरे खंड में की गई. यहाँ 1947 के बाद तेजी से मीडिया के फैलाव और उसके सापेक्ष मूल्यवादी पत्रकारिता के सिकुड़ते जाने की युत्क्रम समानुपाती परिघटनाओं पर प्रकाश डाला गया. अखिलेश अखिल को लगता है कि आज संपादक की सबसे बड़ी कमजोरी अज्ञानता है और बाजार ने उन्हें खोखला कर रखा है. डॉ. मधुर नज्मी ने सवाल उठाया है कि क्या आज भी ‘स्वराज’ जैसा क्रांतिकारी पत्र निकाला जा सकता है और क्या उस जमाने के शहीद किस्म के संपादक इस जमाने में भी मिल सकते हैं? वेदप्रकाश अमिताब लघुपत्रिकाओं में उपलब्ध प्रतिरोध की ऊर्जा से आशवस्त दिखाई देते हैं तो अनिल चमडिया मीडिया में शब्दों के प्रति संवेदनहीनता के बढ़ते जाने के प्रति चिंतित है. इन सबके बीच अमन कुमार त्यागी ने पत्रकारिता के मंदिर सप्रे संग्रहालय का परिचय कराया है तो डॉ. ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा ने आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना की पत्रकारिता के इतिहास का प्रामाणिक विवेचन किया है. यह पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि जब शोयब उल्लाह खान ने अपने पत्र ‘इमरोज’ के माध्यम से हैदराबाद के सांप्रदायिक तांडव के खिलाफ आवाज उठाई और रजाकारों का विरोध किया तो रजाकारों ने उन्हें जान से मार डालने की धमकी दी और एक दिन जब वह साईकिल से काम कर वापस लौट रहे थे उन पर आक्रमण किया गया. उनका सीधा हाथ काट दिया गया और उन्होंने वहीं सड़क पर अपने प्राण छोड़ दिए. (पृ. 66). यह खंड बड़ी शिद्दत के साथ यह सवाल उठाता है कि आखिर क्यों मीडिया का चरित्र मिशन के स्थान पर कमीशनखोरी के गर्त में गिर गया है! 

विशेषांक का चौथा खंड ‘अविस्मरणीय’ वास्तव में अविस्मरणीय है. इसमें तीन महत्वपूर्ण आलेख सम्मिलित हैं. डॉ. विवेकी राय से अरविंद कुमार सिंह और अमन कुमार त्यागी की बातचीत – मैं ऐसी सवारी नहीं करता जिसकी लगाम मेरे हाथ में न हो. भोपाल से प्रकाशित ‘विचार मीमांसा’ के संपादक विजय शंकर वाजपेयी पर अरविंद कुमार सिंह का संस्मरण – पत्रिका नहीं क्रांति की किताब थी ‘विचार मीमांसा’. और राजेश त्रिपाठी का स्मृति लेख – सचमुच ही मीडिया के महानायक थे एस.पी.सिंह. 

पाँचवे खंड में 9 साक्षात्कार हैं जिनमें तलवार की धार पर चलते मीडिया की चुनौतियों, चालाकियों और चेतना की खरी-खरी परख निहित है. शेख मंजूर अहमद, हिमांशु शेखर, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, बालशौरि रेड्डी, रत्न शंकर व्यास, हर्षवर्धन शाही और गुंजेश्वरी प्रसाद के ये साक्षात्कार देर तक पाठक के दिमाग में बजते रहते हैं. 

कुल मिलाकर समकालीन मीडिया परिदृश्य से जुड़े तमाम अहम मुद्दों को इतिहास की धारा के साथ जोड़कर परखने में यह विशेषांक बहुत सहल रहा है. पत्रकारिता के अतीत और वर्तमान ही नहीं, उसकी भावी रीति, नीति और संभावानाओं के समझने के लिए यह अंक बहुत काम का और संग्रहणीय है. 
- पूर्णिमा शर्मा 

मंगलवार, 21 जून 2016

रमजान

रमजान महीने को नेकियों का महीना कहा गया है। जो आम दिनों में अल्लाह की इबादत नहीं कर पाता है वह भी रमजान का पूरा महीना इबादत में गुजार देता है। इस महीने को सब्र का महीना भी कहा जाता है। माना जाता है कि सब्र के बदले जन्नत मिलती है। यह महीना समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों के साथ हमदर्दी करना सिखाता है। यह भी माना जाता है कि इस महीने में रोजा रखने वाले को इफ्तार कराने वाले के भी सभी गुनाह माफ हो जाते हैं। 

रमजान महीने के पहले दिन को बड़ा महत्व दिया जाता है। पहला रोजा सभी मुसलमानों को रखना चाहिए। माना जाता है कि इस दिन अल्लाह दोजख के रास्ते बन्द कर जन्नत के रास्ते खोलता है। सभी मुसलमानों को रमजान के महीने का इन्तजार रहता है। चांद देखकर रोजा रखा जाता है। पहले रोजे के लिए तैयारी अधिक की जाती है। महीने का पहला रोजा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन से ही हमें बेशुमार हदीसें मिलती हैं जिन्हें हम पढ़ते और सुनते रहते हैं और जिन पर अमल करना हमारा फर्ज है। मोहताज और गरीब लोगों की हमें मदद करनी चाहिए। नेकियों का यह महीना नेकियों के लिए ही होता है। दूसरों की मदद करने, अच्छा सोचने और अच्छा करने वाले से अल्लाह न सिर्फ खुश ही होता है बल्कि नेकी करने वाले शख्स को बरकत और कामयाबी जैसे तमाम तोहफे भी बख्शता है।

न्तु सोचने और समझने वाली बात यह है कि क्या हम वाकई नेकी वाले काम करते हैं. यदि हाँ तो, हमें अल्लाह की भरपूर नेमतें मिलती हैं और यदि नहीं तो हमें यह भी सोच लेना चाहिए कि हमारे साथ क्या होना चाहिए. हम किसी को भी धोखा दे सकते हैं मगर अल्लाह को नहीं. वह हमारी एक एक हरकत पर नजर रखता है और हर हरकत का हिसाब भी रखता है। रमजान के पहले ही दिन से शैतान भी हमें तंग करना छोड़ देता है। यह इसलिए होता है कि अल्लाह शैतान को बांध देता है, ताकि नेक बन्दे नेकी करने में कामयाब हो सकें और शैतान उन्हें उनकी सही राह से भटका न सके। 

कहा जाता है कि अगर इस महीने में हम अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों को कुछ कम कर लें और यही रकम जरूरतमंदों को दें तो यह हमारे लिए मिलने वाले बेहतर फल का कारण होगा। क्योंकि इस महीने में की गई एक नेकी का फल कई गुना बढ़ाकर अल्लाह की तरफ से अता होता है। 

मोहम्मद साहब तो हमेशा ही दूसरे लोगों की मदद करते रहे। उन्होंने अपने जानने में किसी को भूखा नहीं सोने दिया और अल्लाह से यही दुआ की कि कोई दुखी न रहे। लेकिन उन्होंने भी रमजान के महीने में अपनी नेकियों को बढाया। इस महीने को बेहद पवित्र और उपकारी मानते हुए ही हजरत मोहम्मद साहब भी पूरे महीने रोजे रखते थे और घूम घूमकर देखते थे कि उनके आसपास कोई परेशान तो नहीं है। हजरत साहब के द्वारा किए गए कार्यों को हदीस के रूप में जाना जाता है और रमजान के महीने में हदीसों की संख्या अधिक है। इसलिए आम मुसलमान को भी हदीसों को ध्यान में रखते हुए रमजान के पवित्र महीने में जितनी भी हो सके उतनी नेकी करनी चाहिए। 

इसलिए रमजान के पहले रोजे से ही नेकियों की फेहरिश्त बना कर कार्य करना चाहिए और पहले दिन की तरह हर एक रोजा रखना चाहिए। यही बात उस शख्स पर भी लागू होती है जो अपने जीवन का पहला रोजा रखता है। हर आदमी को अपना पूरा जीवन ही रमजान मानकर जीना चाहिए। फिर देखिए, अल्लाह उस शख्स को कितने तोहफे अता करता है। 


-पूर्णिमा शर्मा 


चक्रवर्ती विजयराघवाचारीअर


चक्रवर्ती विजयराघवाचारीअर का जन्म  18 जून 1852 को एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में हुआ. उनके पिता सद्गोपारचारीअर एक पुजारी थे और विजय को  प्रारंभिक शिक्षा के अंतर्गत संस्कृत भाषा और वेदों का अध्ययन कराया गया. उनका अंग्रेजी शिक्षण 12  वर्ष की आयु में प्रारंभ हुआ, और 1870 में मद्रास प्रेसीडेंसी में दूसरे रैंक के साथ हाई स्कूल की परीक्षा पास की.  1875 में प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास से स्नातक उपाधि अर्जित कर  वे वहीं लेक्चरर की पोस्ट पर नियुक्त हुए. 1881 में बिना कोई क्लास अटेंड किए उन्होंने लॉ परीक्षा पास की और प्लीडर बन गए.
1882 के सेलम दंगों के बाद से चक्रवर्ती विजयराघवाचारीअर दक्षिण भारत के शेर कहलाने लगे. वे न केवल झूठे इल्जामों से बरी हुए, बल्कि सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया से 100 रुपए का खामियाजा भी हासिल किया और म्युनिसिपल काउंसिल में नियुक्ति भी. दंगों के सिलसिले में काला पानी की सज़ा काटते भारतीयों को भी निर्दोष साबित किया.
1885 में जब कांग्रेस की स्थापना हुई तो अपने मित्र ए ओ ह्यूम के साथ विजयराघवाचारीअर भी पहले अधिवेशन में पहुंचे. कांग्रेस की विचारधारा तय करने में इनका बड़ा योगदान था, और 1887 में कांग्रेस संविधान बनाने वाली कमेटी के मुख्य सदस्यों में वे भी थे. 1899 से कांग्रेस प्रोपेगंडा कमेटी के सदस्य बन इन्होंने कांग्रेस को जन से जोड़ने का सफल काम किया.
1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में विजयराघवाचारीअर को प्रेसिडेंट चुना गया. इस अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की मांग रखी, और महात्मा गांधी के सुझाए असहयोग आंदोलन  के माध्यम से इसे पाने का फैसला किया. तभी से समाज सुधार की ओर उनका झुकाव कांग्रेस में भी दिखने लगा. 1931 में वे हिंदू महासभा के प्रेसिडेंट चुने गए और स्वामी शारदानंद के साथ  एंटी-अनटचएबिलिटी लीग का काम आगे बढाया. संपत्ति में बेटियों को हिस्सा देने की मांग भी विजयराघवाचारीअर ने उठाई. साइमन कमीशन के बाद विजयराघवाचारीअर की अंतिम उम्मीद लीग ऑफ़ नेशंस से थी. उनसे हस्तक्षेप की अपील उनका आखिरी राजनैतिक कदम था.
विजयराघवाचारीअर के मित्र केवल कांग्रेस में ही नहीं, बल्कि अंग्रेजों में भी थे – वाइसराय और गवर्नर्स, जैसे लार्ड रिपन लार्ड कर्जनलार्ड पेंटलैंड, लार्ड और लेडी हार्डिंग उनके अच्छे मित्र थे.  एर्द्ली नॉर्टन ने सेलम दंगों के बाद उनकी पैरवी कर उन्हें कालापानी से बचाया था.


11 अप्रैल, 1944 में अपनी मृत्यु तक भी विजयराघवाचारीअर कांग्रेस का मार्गदर्शन कर रहे थे – मद्रास जर्नल्स में लेखों के ज़रिये. कांग्रेस से अलग होने के बाद भी वे गांधी के विचार जन-जन तक पहुंचाने में लगे रहे. आज भी भारत इस शेर को याद करता है, और भारतीय पार्लियामेंट की दीवार पर उनकी तस्वीर सजी है.  
- पूर्णिमा शर्मा

राम प्रसाद बिस्मिल


11 जून 1897 को जन्मे राम प्रसाद बिस्मिल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के प्रमुख सेनानी थे। सन् 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं॰ जगत नारायण ‘मुल्ला’ के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया। इसके पूर्व सन 1915 में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। 

मैनपुरी षड्यंत्र में शाहजहाँपुर से 6 युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर रामप्रसाद बिस्मिल थे किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये, तत्काल फरार हो गये। जनवरी 1923 में मोतीलाल नेहरू व देशबन्धु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली। नवयुवकों ने तदर्थ पार्टी के रूप में रिवोल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल जी की सलाह मानकर राम प्रसाद इलाहाबाद गये और शचींद्रनाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया। ‘दि रिवोल्यूशनरी’ के नाम से अँग्रेजी में प्रकाशित इस क्रान्तिकारी (घोषणा पत्र) में क्रान्तिकारियों के वैचारिक चिन्तन को भली भाँति समझा जा सकता है।

पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता थी किन्तु कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। 6 अप्रैल 1927 को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने 115 पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चात्ताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। फिर भी, इनमें से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित में पश्चात्ताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकता है।

22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी का हुक्म हुआ।  चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल गयी। 16 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। 18 दिसम्बर 1927 को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसम्बर 1927 को प्रातःकाल 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी।


बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी। जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रक्खा गया और फाँसीघर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार किया।
- पूर्णिमा शर्मा

पंडित ओंकारनाथ ठाकुर


ओंकारनाथ ठाकुर (1897-1967) भारत के शिक्षाशास्त्री, संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार थे। उनका सम्बन्ध ग्वालियर घराने से था। उन्होंने वाराणसी में महामना पं॰ मदनमोहन मालवीय के आग्रह पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संगीत के आचार्य पद को सुशोभित किया। वे तत्कालीन संगीत परिदृश्य के सबसे आकर्षक व्यक्तित्व थे। पचास और साठ के दशक में पण्डितजी की महफिलों का जलवा पूरे देश के मंचों पर छाया रहा। पं॰ ओंकारनाथ ठाकुर की गायकी में रंजकता का समावेश तो था ही, वे शास्त्र के अलावा भी अपनी गायकी में ऐसे रंग उड़ेलते थे कि एक सामान्य श्रोता भी उनकी कलाकारी का मुरीद हो जाता। उनका गाया ‘वंदेमातरम’ या ‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो’ सुनने पर एक रूहानी अनुभूति होती है।

श्री ओंकारनाथ ठाकुर का जन्म गुजरात के बड़ोदा राज्य में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके दादा महाशंकर जी और पिता गौरीशंकर जी नाना साहब पेशवा की सेना के वीर योद्धा थे। 24 जून 1897 को उनकी चौथी सन्तान ने जन्म लिया। ओंकार-भक्त पिता ने पुत्र का नाम ओंकारनाथ रखा। जन्म के कुछ ही समय बाद यह परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया। ओंकारनाथ जी का लालन-पालन और प्राथमिक शिक्षा यहीं सम्पन्न हुई। इनका बचपन अभावों में बीता। यहाँ तक कि किशोरावस्था में ओंकारनाथ जी को अपने पिता और परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए एक मिल में नौकरी करनी पड़ी। ओंकारनाथ की आयु जब 14 वर्ष थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भड़ौच के एक संगीत-प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकार की प्रतिभा को पहचाना और उनके बड़े भाई को बुला कर संगीत-शिक्षा के लिए बम्बई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने को कहा। पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उनकी संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई।
विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय, मुम्बई में प्रवेश लेने के बाद ओंकारनाथ जी ने वहाँ के पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम को तीन वर्ष में ही पूरा कर लिया और इसके बाद गुरु जी के चरणों में बैठ कर गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत की गहन शिक्षा अर्जित की। 20 वर्ष की आयु में ही वे इतने पारंगत हो गए कि उन्हें लाहौर के गन्धर्व संगीत विद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया गया। 1934 में उन्होंने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की। 1950 में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के गन्धर्व महाविद्यालय के प्रधानाचार्य का पदभार ग्रहण किया और 1957 में सेवानिवृत्त होने तक वहीं रहे।


पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली था, उतना ही असरदार उनका संगीत भी था। एक बार महात्मा गाँधी ने उनका गायन सुन कर प्रशंसा की थी कि पण्डित जी अपनी मात्र एक रचना से जनसमूह को इतना प्रभावित कर सकते हैं, जितना मैं अपने अनेक भाषणों से भी नहीं कर सकता। उन्होंने एक बार सर जगदीशचन्द्र बसु की प्रयोगशाला में ‘पेड़-पौधों पर संगीत के स्वरों का प्रभाव’  विषय पर अभिनव और सफल प्रयोग किया था। उनके संगीत में ऐसा जादू था कि आम से लेकर खास तक कोई  भी व्यक्ति सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता था।

- पूर्णिमा शर्मा

शनिवार, 2 अप्रैल 2016

(वक्तव्य) देशज पत्रकारिता और सत्ता : दक्षिण भारत का विशेष संदर्भ

[आजमगढ़, उत्तर प्रदेश, में 28 और 29 मार्च, 2016 को आयोजित  राष्ट्रीय सम्मलेन ''मीडिया समग्र मंथन -2016" के  "मीडिया और सरकारी तंत्र" शीर्षक विचार-सत्र में प्रस्तुत किया गया आलेख]

आदरणीय अध्यक्ष महोदय, सम्मानित मंच, देवियो और सज्जनो!

सबसे पहले तो मैं इस भव्य और विराट आयोजन के लिए आयोजकों, विशेष रूप से श्री अरविंद कुमार सिंह, को बधाई देती हूँ. आज जब दुनिया भर में मीडिया के ऊपर सरकारों और बाज़ारों ने कब्ज़ा जमा रखा है, आपने आंचलिक पत्रकारिता के बहाने मीडिया के बारे में विचार मंथन का आयोजन करने का निश्चय किया; यह बहुत बड़ी बात है. मुझे तो लगता है कि मिशन से शुरू होकर कमीशन तक पहुँच चुकी पत्रकारिता को अगर फिर से मिशन भावना से जोड़ना है, तो ऐसा आंचलिक पत्रकारिता के बल पर ही किया जा सकता है. मेरे इस सोच का कारण यह तथ्य है कि आंचलिक पत्रकारिता ही आज भी मीडिया की रीढ़ है. इसलिए इस आयोजन के अवसर पर मैं आप सबका अभिनंदन करती हूँ, आप सबको साधुवाद देती हूँ. 

मैं हैदराबाद से आई हूँ – इसलिए आपसे थोड़े से शब्दों में दक्षिण भारत, और उसमें भी खासतौर पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्य की भाषाई पत्रकारिता के संघर्ष के बारें में कुछ बातें करना चाहती हूँ. बातें बहुत हो सकती हैं – इसलिए मैं अपने वक्तव्य को पत्रकारिता और सत्ता के संबंधों तक ही सीमित रखूंगी. 


आप जानते ही हैं कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों की मुख्य भाषा तेलुगु है. आपको यह भी पता हे है कि हिंदी की तरह सभी भारतीय भाषाओँ में पत्रकारिता नवजागरण काल और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आरंभ हुई. इस कारण आरंभिक पत्रकरिता का चरित्र तत्कालीन सत्ता से संघर्ष का रहा. आपको यह सुनकर रोमांच होगा कि जिस समय देश भर में लोकमान्य तिलक का नारा गूँज रहा था – स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है – उस समय तेलुगु में 1906 में ‘मनोरमा’ और 1910 में ‘देशमाता’ जैसे पत्र तेलुगु समाज को जगाने के लिए यह घोषणा कर रहे थे – “भारत भूमि एक दुधारू गाय है, अंग्रेज़ चालाक ग्वाले हैं, भारतीय लोग भूखे बछड़े की तरह रो रहे हैं. ग्वालों ने उनके मुँह कस कर बाँध दिए हैं, और गाय का दूध दुह कर विलायत भेज रहे हैं.” आप अनुमान कर सकते हैं कि ऐसे लेखन के लिए चिलकमर्ति लक्ष्मी नरसिंहम से अंग्रेज़ सरकार नाराज़ हो गई थी, उन्हें जेल में डाल दिया था.

... तो यह था तत्कालीन भाषाई पत्रकारिता और सत्ता का रिश्ता. नरसिंहम जी ने अंग्रेजों को चालाक ग्वाले कहा तो ‘स्वराज्य’ के संपादक हरि सर्वोतम राव ने अंग्रेजों को ‘अरे ओ! फिरंगी’ तथा ‘क्रूर व्याघ्र’ कह कर संबोधित किया. कहना न होगा कि उन्हें इसके ‘पुरस्कार’ के रूप में राजद्रोह के अंतर्गत 3 साल की कड़ी सजा दी गई थी. हरि सर्वोतम राव ने ही आगे चलकर, 1922 में ‘मातृसेवा” नामक तेलुगु पत्र निकाला. उसी समय राजमहेंद्री से ‘कांग्रेस’ और एलुरु से ‘सत्याग्रही’ नामक पत्र निकले. दोनों से सरकार नाराज़ हुई – और इनके संपादकों को जेलयात्रा करनी पड़ी.

अब थोड़ी बात हैदराबाद की करें – निजाम के निरंकुश शासन के कारण हैदराबाद और तेलंगाना में तेलुगु पत्रकारिता उतना विकास नहीं कर सकी – लेकिन चेतना की आग को कोई भी तानाशाह आखिर कब तक दबा सकता है. इस इलाके से भी अनेक तेलुगु पत्र निकले. इसके अलावा निजामशाही के खिलाफ किसानों के आंदोलन का समर्थन करने वाले पत्र ‘प्रजाशक्ति’ को बहुत लोकप्रियता मिली. 

यहाँ एक बात और ध्यान में रखने जैसी है – वह यह कि हैदराबाद उर्दू और दक्किनी हिंदी का भी गढ़ रहा है. मानने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि आज की मानक राजभाषा खड़ीबोली हिंदी ने समन्वय का संस्कार हैदराबाद में जन्मी और पली दक्खिनी हिंदी से ही पाया है. समय की सीमा का ध्यान रखते हुए हैदराबाद की उर्दू पत्रकारिता का इतिहास तो आपके सामने नहीं रखूंगी, लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगी कि दक्षिण में सबसे पहला उर्दू समाचार पत्र ‘आफताब दक्कन’ 1860 में हैदराबाद से ही निकला था. यह भी ध्यान रहे कि निजाम के शासन काल में समाचार पत्र मुख्य रूप से सरकार की घोषणाओं को जनता तक पहुँचाने का काम करते थे. अगर वे कभी जनता की आवाज़ उठाते, तो उनका सिर कुचल दिया जाता. 

हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध करने के लिए चलाए गए रज़ाकार आंदोलन के बारे में आपने सुना होगा. ये रज़ाकार हैदराबाद को एक स्वतंत्र राज्य बनाना चाहते थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के पुराने इतिहास को भुला कर हिंदू जनता पर हर तरह के अमानुषिक अत्याचार करते थे. ऐसे में ‘रैयत’ नामक अखबार ने राष्ट्रीयता का प्रचार करने का बीड़ा उठाया. आप समझ ही सकते हैं कि निज़ाम शासन ने क्या किया होगा. ‘रैयत’ सदा के लिए बंद हो गया. उसके संपादक एम. नरसिंह राव चुप बैठने वाले पत्रकार नहीं थे – इसलिए उन्होंने शोएब उल्लाह खान के सहयोग से ‘इमरोज़’ निकाला और हैदराबाद में हो रहे सांप्रदायिक तांडव का विरोध किया. शोएब उल्लाह खान गांधीवादी थे, रज़ाकारों ने उन्हें जान से मार डालने की धमकी दी; और एक दिन जब वे काम पर से अपनी साइकिल पर वापिस लौट रहे थे, तो उन पर हमला किया गया. हमलावरों ने उनका सीधा हाथ काट दिया. और लहुलुहान होकर उन्होंने वहीँ सड़क पर दम तोड़ दिया. हैदराबाद की पत्रकारिता के इतिहास में यह किसी पत्रकार का पहला बलिदान था. 

इसी प्रकार ‘पयाम’ के कार्यालय पर भी हमला किया गया – आग लगा दी गई. हैदराबाद की पत्रकारिता का यह जनपक्षीय तेवर बाद में मुल्की – गैर मुल्की आंदोलन के दौरान तथा तेलंगाना आंदोलन के दौरान भी समय समय पर देखने को मिला. 

तेलुगु और उर्दू की ही तरह हैदराबाद में हिंदी पत्रकारिता का भी शासन और सत्ता के साथ छत्तीस का ही आंकड़ा रहा. जिस ज़माने में महात्मा गांधी की प्रेरणा से मद्रास तक में हिंदी का प्रचार प्रसार ज़ोरों पर था, उसी ज़माने में हैदराबाद राज्य में हिंदी को बगावत की भाषा का दर्जा मिला हुआ था. उस ज़माने में उर्दू हैदराबाद राज्य की राजभाषा थी और निजाम के शब्दों में हिंदी एक विदेशी भाषा थी. कभी कभार भूल चूक से किसी हिंदी अखबार को अनुमति मिल जाती थी, तो बाद में वापस ले ली जाती थी. सन 1901 में अर्जुन प्रसाद मिश्र ‘कंटक’ ने ‘भाग्योदय’ नामक पत्र निकलने की अनुमति प्राप्त की. पर जनता ने डर के मारे सहयोग नहीं दिया. हालत यह थी कि मराठी में ‘निजाम विजय’ पत्र निकल सकता था, पर हिंदी में नहीं. इसका प्रमुख कारण यह था कि हैदराबाद में आर्य समाज धार्मिक एवं नागरिक स्वतंत्रता के लिए लगातार शासन से भिड़ता रहता था. दरअसल आर्य समाज के प्रचारक हिंदी का प्रयोग करते थे इसलिए हिंदी पत्रकारिता को दबाया जाता रहा. इस कारण से हैदराबाद की जनता के लिए हिंदी के पत्र बाहर से प्रकाशित करने की नीति अपनाई गई. और सोलापुर से ‘आर्य संदेश’ निकाला गया. इस पत्र में जनता को इन्साफ के रास्ते पर चलने और निजामशाही के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा दी जाती थी. इस तरह हिंदी पत्रकारिता ने हैदराबाद में राजनैतिक चेतना फैलाने का काम किया. ‘आर्य संदेश’ का घोष वाक्य हुआ करता था : उठ बाँध कमर, क्यों डरता है, फिर देख प्रभु क्या करता है. भला ऐसा पत्र कितने दिन चलता – दो वर्ष में ही सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया. यह भी एक रोचक तथ्य है कि सरकारी प्रतिबंध के कारण कई संपादकों ने कई-कई नामों की अनुमति ले ली. ‘आर्यभानु’, ‘दिग्विजय’, ‘सुधाकर’, ‘दिवाकर’, ‘हनुमान’, ‘पताका’, ‘वेदप्रकाश’, और ‘वैदिक ज्योति’ ऐसे ही समाचार पत्र थे. ऐसा कोई पत्र कभी नागपुर से छपता तो कभी सोलापुर से; कभी बड़े आकार में छपता तो कभी छोटा बन जाता. हिंदी पत्रकारों और सत्ता के बीच लुका –छिपी का यह खेल हैदराबाद के विधिवत भारतीय संघ में विलय होने तक चलता रहा. 

1948 के बाद हैदराबाद की पत्रकारिता का चरित्र भी शेष भारत की पत्रकारिता जैसा ही रहा है, अर्थात धीरे धीरे पत्रकारिता का आंदोलनकारी चरित्र कमज़ोर पड़ता गया और वह एक मुनाफा कमाने वाले व्यवसाय में तब्दील हो गई. इसके बावजूद यह ज़रूर मानना होगा कि स्वतंत्र तेलंगाना की माँग के संदर्भ में हैदराबाद की पत्रकारिता ने अपना क्षेत्रीय आंदोलनकारी चरित्र 2014 तक बनाए रखा. 

आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में भी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में हिंदी, उर्दू और तेलुगु की पत्रकारिता अपने जनपक्षीय और संघर्षशील चरित्र को बनाए रखेगी. 

मुझे यह अवसर प्रदान किया गया – इस हेतु आप सबके प्रति आभारी हूँ.

--डॉ. पूर्णिमा शर्मा 

208-A, Siddhartha Apartments, 

Ganesh Nagar, Ramanthapur,

Hyderabad – 500013

मंगलवार, 1 मार्च 2016

नई सदी का हिंदी आत्मकथा साहित्य

नई सदी के हिंदी आत्मकथा साहित्य पर चर्चा करते समय सबसे पहले तो यह तथ्य विचारणीय है कि नई सदी या उसके आरंभ से ठीक पूर्व के दशक में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में आत्मकथा साहित्य ने नई करवट ली. इससे पहले यह समझा जाता था कि आत्मकथा का चरितनायक कोई ‘महापुरुष’ होना चाहिए. शायद यही कारण है कि आत्मकथाएँ अपेक्षया कम लिखी जाती थीं. लेकिन 1990 के दशक के आसपास महान नायकत्व का यह महा-आख्यान टूटा और कल तक जिन्हें लघु, तुच्छ, हीन कहकर हाशिए पर रखा गया था उन अति साधारण मनुष्यों ने अपनी अस्मिता की खोज करते हुए अभिव्यक्ति के जो मार्ग तलाशे उनमें उनकी पीड़ा, कड़वाहट, खिन्नता, संघर्ष और गुस्से को व्यक्त करने के लिए आत्मकथा सबसे उपयुक्त विधा सिद्ध हुई. स्त्री, दलित, आदिवासी आदि समुदायों से आने वाले इन लेखकों के भीतर सदियों का जो हाहाकार समाया हुआ था उसे व्यक्त होने के लिए किसी काल्पनिक वृत्त की आवश्यकता नहीं थी, उसकी सीधी, सच्ची, बेबाक अभिव्यक्ति ने आत्मकथा का जो रास्ता चुना वह उसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता की स्वयं गारंटी है.

यहाँ मैं केवल दो साहित्यकारों की आत्मकथा का उल्लेख करना चाहूँगी. एक हैं मैत्रेयी पुष्पा जिनकी आत्मकथा दो खंडों में आ चुकी है – ‘कस्तूरी कुंडल बसै’(2003) और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ (2008). दूसरे रचनाकार हैं डॉ. तुलसीराम. इनकी आत्मकथा भी दो खंडों में है – ‘मुर्दहिया’ (2010) और ‘मणिकर्णिका’ (2014). ये दोनों ही रचनाकार स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के अग्रणी हस्ताक्षर हैं और इनकी आत्मकथाएँ केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे किसी एक स्त्री या किसी एक दलित के जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं, बल्कि इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि विशिष्ट होते हुए भी अपने संघर्ष के धरातल पर ये दोनों ही लेखक क्रमशः ‘सामान्य स्त्री’ और ‘सामान्य दलित’ हैं. साधारणीकरण की पहली शर्त ही यह है कि आलंबन अपने वैशिष्ट्य को छोड़कर इस तरह सर्वसाधारण बन जाए कि आलंबन-धर्म का संप्रेषण सहज संभव हो. इस कसौटी पर मैत्रेयी पुष्पा और डॉ. तुलसीराम की ये आत्मकथाएँ एकदम खरी हैं क्योंकि मैत्रेयी पुष्पा यहाँ ‘व्यक्ति मैत्रेयी पुष्पा’ नहीं हैं बल्कि उनका ‘स्त्री होना’ पूरी गाथा के केंद्र में है. इसी प्रकार डॉ. तुलसीराम यहाँ ‘व्यक्ति तुलसीराम’ के रूप में केंद्र में नहीं हैं बल्कि अपने पूरे समुदाय के ‘दालित्य-भाव’ को अग्रप्रस्तुत करते हैं. अर्थात पहले की, महापुरुषों की, आत्मकथाओं की तुलना में 21वीं सदी के इन रचनाकारों की आत्मकथाएँ साधारण स्त्री और साधारण दलित की ऐसी आत्मकथाएँ हैं जिनमें निहित स्त्री-पीड़ा और दालित्य-भाव आलंबन-धर्म के रूप में साधारणीकृत होकर पाठक को विचलित करते हैं. ये आत्मकथाएँ प्रेरणा का आदर्श स्थापित करने के लिए नहीं हैं बल्कि परिवर्तन की बेचैनी पैदा करने के लिए हैं. ऐसे अनेक उदाहरण दोनों आत्मकथाओं से दिए जा सकते हैं जहाँ ये रचनाकार अपने आत्म को अनावृत करने के बहाने समाज के घिनौने चेहरे का पर्दाफाश करते हैं. इसलिए, मैत्रेयी पुष्पा और तुलसीराम का आत्मकथा-लेखन केवल रचनाकार का आत्मालोचन नहीं है बल्कि अपने आपको खतरे में डालकर की गई निर्मम समाज-समीक्षा है.

‘कस्तूरी कुंडल बसै’ में लेखिका का मुख्य उद्देश्य अपने पारिवारिक और दांपत्य जीवन की सच्चाई का बयान करना भर नहीं है. बल्कि जैसा की अमरीक सिंह दीप कहते हैं, ‘मुख्य मुद्दा तो पुरुषवादी व्यवस्था द्वारा स्त्री पर लादी गई गुलामी से मुक्ति और स्त्री सशक्तीकरण का ही है. बेशक इस आत्मकथा में स्त्री के अंतर्जगत के कई ऐसे अछूते स्थलों, कई ऐसे गुप्त गृहों और उनमें रखे बक्से, पिटारियों और पोटलियों से पाठक का साक्षात्कार होता है जहाँ अभी तक कोई कोलंबस नहीं पहुंचा. इसके लिए लेखिका ने अपनी कमजोरियों से भी जमकर मुठभेड़ की है.’ दूसरे भाग ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में मैत्रेयी पुष्पा ने पत्नी-भाव और स्त्री-भाव के जिस द्वंद्व को उभारा है वह भारतीय समाज के मूलभूत द्वंद्व का प्रतिबिंब है. एक स्त्री के रूप में इस आत्मकथा की नायिका को बंधन रास नहीं आते, बंधनों में वह छटपटाने लगती है. लेकिन पुरुष मानसिकता इस स्त्री मानस को समझने के लिए तैयार नहीं है और यहीं नैतिकता की पारंपरिक धारणा और उसके औचित्य पर स्त्री-कोण से विमर्श उभरकर सामने आता है. अस्मिता और नैतिकता के द्वंद्व में लेखिका किसी आदर्श को नहीं ओढ़तीं और उनकी गतिविधियाँ पारंपरिक स्त्री संहिता के प्रतिवाद की तरह उभरती हैं. मानना होगा कि मैत्रेयी पुष्पा ने डॉ. सिद्धार्थ के साथ अपने संबंधों को लगभग आत्महंता बेबाकी के साथ स्वीकार किया है. यहाँ सबसे दिलचस्प और नाटकीय संबंध है पति और मैत्रेयी के बीच, जो पत्नी की सफलताओं पर गर्व और यश को लेकर उल्लसित हैं मगर सम्पर्कों को लेकर‘मालिक’ की तरह सशंकित. एक उदाहरण देकर मैं दूसरे रचनाकार की ओर बढूंगी. उद्धरण इस प्रकार है –

‘’डॉक्टर सिद्धार्थ!
मेरा हाथ पकड़कर उठाते हुए. पता नहीं कितना अपनत्व था, कितनी चुनौती थी?
या परीक्षाकाल दोनों का?
हाथ पकड़कर खींचने वाला मीत ... मैंने अनुमति के लिए पति की ओर देखा नहीं. अपना निर्णय अपने हाथ में ले लिया, खतरों के बारे में सोचा नहीं.
मैं नाच रही थी किसी के साथ-साथ, अनगढ़ और आदिम सा नाच ... जैसे मेरे जीवन-मूल्यों का हिस्सा यह भी हो. जब-जब मेरा पाँव डॉ. सिद्धार्थ के पाँव पर पड़ जाता, वे मुस्कुराकर मुझे संभाल लेते. यह परिचय का अगला चरण, उस जानकारी का मुझे कोई इल्म न था.’’ 

बकौल जगदीश्वर चतुर्वेदी, “मैत्रेयी पुष्पा अपनी आत्मकथा में दोहरा जीवन, दोहरी अस्मिता, दुरंगे मूल्य, दुरंगे विचार, दोहरा सामाजिक जीवन आदि को बेपर्दा करती हैं. इस तरह वे दो मैं, दो अस्मिता, दो तरह का जीवन, दोहरी जिम्मेदारियाँ, दो तरह की चेतना, दो तरह के सामंजस्यहीन विचार और भावबोध को व्यक्त करने में सफल रही हैं. वे अपने जीवन में व्याप्त इस ‘दो’ को व्याख्या के जरिए बताती जाती हैं और उसके अनुभवों को ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ में पेश करती हैं.’’ 

अब कुछ बात डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा पर. ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ दोनों ही श्मशान घाट हैं. ‘मुर्दहिया’ इस अर्थ में अन्य दलित आत्मकथाओं से अलग है कि इसमें कथानायक ने स्वयं ही अपने स्थान पर अपने परिवेश और लोकजीवन को नायकत्व प्रदान किया है. वे मानते हैं कि उस दलित बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुःख-दर्द अपने अंदर लिए ‘मुर्दहिया’ में दफ़न हैं. यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक मुर्दहिया ही होगा. मुर्दहिया के नारकीय जीवन का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि वहाँ के दलितों को भुखमरी की स्थिति में चूहे मारकर खाने पड़ते हैं और चूहों के बिलों को खोदकर प्राप्त किए गए अनाज पर भी गुजारा करना पड़ता है. बिना टिप्पणी के एक उद्धरण प्रस्तुत है –

“शुरू-शुरू में जब तेज बारिश से कट चुकी फसलों वाले खेतों में पानी भर जाता, तो उनके अंदर बिल बनाकर रहने वाले हजारों चूहे डूबते हुए पानी की सतह पर ऊपर आ जाते थे. गाँव के बच्चे तरकुल या खजूर के पत्तों से बनी झाड़ू लेकर उन चूहों पर टूट पड़ते थे तथा उन्हें मार-मारकर ढेर सारा घर लाते. मैं भी अन्य बच्चों के साथ टिन की बाल्टी तथा झाडू लेकर जाता और झाडू से चूहों को मार-मारकर बाल्टी भर जाने पर उन्हें घर लाता. इन चूहों को पहले घर के लोग रहट्ठा यानी अरहर का डंठल जलाकर उस पर खूब सेंकते थे. इस तरह चूहों के बाल बिल्कुल जल जाते थे. इसके बाद उन्हें साफ़ करके बोटी-बोटी काट दिया जाता. फिर मसाला डालकर उसका मांस पकाकर खाया जाता था. इस तरह के मैदानी चूहों का मांस बहुत स्वादिष्ट होता था. उन बरसाती कड़की के दिनों में इस प्रकार के चूहे जब तक उपलब्ध रहते सभी दलित दाल-सब्जी के बदले उन्हीं से गुजारा करते थे. बरसाती मछलियाँ भी उस गरीबी में बड़ी राहत पहुँचाती थीं, किंतु वे कुछ देर से नदी-नालों में उपलब्ध होती थीं. जहाँ तक चूहों का सवाल है, वे जौ और गेहूं की बालियाँ अकसर काटकर खेतों में ही अपनी गहरी-गहरी बिलों में ढेर सारा जमाकर लेते. गाँव के मेरे जैसे बच्चे उन बिलों को खोदकर उससे बालियाँ निकाल लेते थे. एक-एक बिल से एक से लेकर दो किलो तक अनाज निकल जाते थे.”

ऐसे जीवित श्मसान से भागकर तुलसीराम बनारस पहुँचते हैं. जहाँ वे क्रमशः अंधविश्वासी मान्यताओं से लेकर ईश्वर तक से मुक्त होते हैं. इस मुक्तियात्रा में बुद्ध और मार्क्स उन्हें रास्ता दिखाते हैं और वे ऐसी विश्व-दृष्टि से अपने आपको जोड़ते हैं जिसके चलते उनका व्यक्तिगत दुःख दुनिया के दुःख में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठता है. ‘मुर्दहिया’ में जो विचार सुप्त अवस्था में थे, वे ‘मणिकर्णिका’ में विकसित हुए. चाहे क्रांति का सपना हो या एक तरफ़ा प्यार. दोनों का लेखक ने खूब मजा लिया और उसके बाद वे दिल्ली चले गए. यदि जीवित रहते तो शायद दिल्ली के अनुभवों को भी तीसरे खंड में लिखते. फिलहाल इतना ही कि ‘मणिकर्णिका’ बनारस के दोहरे बौद्धिक चरित्र का तो खुलासा करती ही है जिसमें छुआछूत और सर्वसमावेशी औघड़पना एक साथ विद्यमान हैं, साथ ही समसामयिक चुनावी राजनीति से लेकर नक्सलवाद तक की भी पड़ताल करती है. 

अभिप्राय यह है कि मैत्रेयी पुष्पा और डॉ. तुलसीराम दोनों ही की आत्मकथाएँ ‘आत्म’ के बहाने समाज को आईना दिखाने वाली उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियाँ हैं और नई सदी के तमाम मुख्य रुझानों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
-    डॉ. पूर्णिमा शर्मा
                             

सच और कड़वाहट

सत्य या सच के साथ मुहावरे की तरह दो विशेषणों का प्रयोग होता है. एक है नग्न और दूसरा है कटु. आपने भी बहुत बार यह कहा-सुना होगा कि सच नंगा होता है और सच कड़वा होता है. मुझे लगता है कि सच के नग्न होने का अर्थ है कि जहाँ कोई पर्दा हो, आवरण हो, दुराव-छिपाव हो वहां झूठ और पाखंड निवास करता है, सत्य नहीं. जब किसी तथ्य पर से सारे परदे हट जाएं तब जो बचता है वह ही सत्य है और अपनी इस बेपर्दगी या नग्नता के कारण ही वह विश्वसनीय होता है.

लेकिन सत्य का केवल विश्वसनीय होना काफी नहीं. उसे हितकर भी होना चाहिए. ऐसा सत्य मनुष्यता के किसी काम का नहीं जो हितकर न हो – भले ही वह हद दर्जे का नंगा सच हो. सत्य के साथ शिवत्व का गठबंधन उसके ऊपर लोक-हित की जिम्मेदारी भी डालता है. लोक-हित के लिए यह आवश्यक है कि यदि कहीं कुछ ऐसा है जो अशिव है या अहितकर है या समाज के सात्विक सौन्दर्य को हानि पहुँचाने वाला है तो उसकी चिकित्सा मधुर वचन रूपी मीठी गोलियों से नहीं की जा सकती. ऐसे में सामाजिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कटु सत्य अथवा कड़वे सच की ज़रुरत होती ही है.

कड़वे सच या सच में मिली कड़वाहट के उदाहरण के रूप में हमें उन संतों और भक्तों की बानियों को याद करना चाहिए जिन्होंने प्राणों की परवाह किए बिना इस कड़वे सच की घोषणा की थी कि राज-दरबार में जाने से बुद्धिजीवी व्यक्ति का सम्मान बढ़ता नहीं, बल्कि घट जाता है क्योंकि उसे ऐसे अयोग्य व्यक्तियों के सामने झुक कर सलाम करना पड़ता है जिनको देखने मात्र से दुःख उत्पन्न होता है. भक्त कवि कुम्भन दास के शब्दों में – ‘’ संतन को कहा सीकरी सो काम/ आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरिनाम / जिनकौ मुख देखै दुःख उपजत, तिनको करन परी परनाम / कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु, और सबे बेकाम.” 

कड़वे सच के प्रबल प्रयोक्ता और समर्थक के रूप में हम संत कबीर को भला कैसे भूल सकते हैं. स्वर्ग और जन्नत के ठेकेदार बन कर बैठे हुए तथाकथित मार्गदर्शकों को चाहे जितना बुरा लगे, व्यापक लोक-हित में कड़वा सच बोलने से कबीर पीछे नहीं हटते. कहा जाता है कि अनेक बार उन्हें समाप्त करने या मारने के प्रयास किए गए पर उन्होंने सच की कड़वाहट को बरकरार रखा और बीच बाज़ार खड़े होकर पाखंडियों को ललकारते रहे. जो लोग खुद देह-व्यापार करने वाली स्त्रियों के तलवे चाटते हैं वे भला सच्चरित्रता के उपदेश कैसे दे सकते हैं?- यह पूछते हुए कबीर ने एक-एक को फटकार लगाई और पाखंड का खंडन करने के लिए कड़वे सच के प्रयोग का आदर्श स्थापित किया. आधुनिक युग में महर्षि दयानंद ने भी पाखंड का खंडन करने के लिए यही मार्ग अपनाया. अतः कहा जा सकता है कि कड़वा सच ही सामाजिक रोगों की दवा है. 

- डॉ. पूर्णिमा शर्मा , 208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल – 08297498775.