- डॉ. पूर्णिमा शर्मा
वर्तमान समय में महिलाओं के कार्य क्षेत्र में भारी परिवर्तन आया है। इतिहास के हवाले से यह कहा जा सकता है कि सभ्यता के आरंभिक काल में स्त्री और पुरुष दोनों ही घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी संभालते थे। लेकिन धीरे-धीरे श्रम का विभाजन कुछ इस तरह होता गया कि स्त्री का कार्यक्षेत्र घर तक सीमित हो गया। आगे चलकर समाज में जब पुरुष प्रधान व्यवस्था स्थापित हुई, तो धीरे-धीरे स्त्री की सामाजिक स्थिति गुलामों सरीखी होती चली गई। मध्यकाल में तो एक समय ऐसा भी आया कि स्त्री के आत्मसम्मान को पुरुष की संपत्ति समझा जाने लगा। सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और धार्मिक कारणों के चलते स्त्री की दुनिया चौके, चूल्हे और बिस्तर तक सिमट कर रह गई। उसे बच्चे पैदा करने की मशीन समझा जाने लगा। घर और बच्चों पर तो क्या अपने शरीर तक पर उसे अधिकार प्राप्त नहीं था। खाने-पहनने से लेकर उसके जीने-मरने तक के फैसले पुरुष के हाथ में चले गए। स्त्री की अपनी इच्छा-अनिच्छा का कोई अर्थ ही नहीं रह गया। इस दयनीय दशा की ओर इशारा करते हुए महाकवि परमेश्वर द्विरेफ़ ने ठीक ही कहा है कि, "नारी तो नर की दासी है/ नर के टुकड़ों पर पलती है/ नर के इंगित पर जीवन भर/ कठपुतली की ज्यों चलती है/ चक्की चूल्हा चौका बर्तन/ नारी जीवन की माया है/ संतान जनन का यंत्र/ पुरुष की अनुगामी, वह छाया है!"
भला ऐसी स्थिति में स्त्री के आत्मसम्मान, अधिकार अथवा सार्वजनिक जीवन में उसकी भूमिका की कोई कल्पना भी कैसे कर सकता था। लेकिन आधुनिक काल में जब लोकतांत्रिक जीवन मूल्यों का प्रकाश फैला, तो स्त्री के मानव अधिकारों की ओर भी लोगों का ध्यान गया। स्त्री को सामाजिक जीवन से काटकर घरेलू चारदीवारी में कैद कर देना कितनी बड़ी भूल थी; नवजागरण के हमारे अग्रणी महापुरुषों ने इसे गहराई से महसूस किया। उनकी पुकार पर समाज में नई चेतना आई तथा महिलाओं में अपने आत्मसम्मान के प्रति जागरूकता पैदा हुई। इसे लक्षित करते हुए महाकवि जयशंकर प्रसाद ने अपने कालजयी महाकाव्य 'कामायनी' में उचित ही कहा है कि, "तुम भूल गए पुरुषत्व मोह में/ कुछ सत्ता है नारी की/ समरसता है संबंध बनी/ अधिकार और अधिकारी की।"
यही वह समय था जब भारत में स्वतंत्रता आंदोलन अपने शिखर पर था। महात्मा गांधी की प्रेरणा से इस महादेश की हजारों-लाखों स्त्रियां चूल्हे-चौके की दुनिया से बाहर निकलकर शिक्षा, समाज सुधार और राजनीति के व्यापक क्षेत्रों में पूरी ताकत के साथ कूद पड़ीं। इस महान घटना ने भारतीय स्त्री जाति को प्रबल आत्मविश्वास तथा उज्ज्वल आत्मसम्मान के उच्च भावों से भर दिया। जहाँ एक तरफ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त यदि यह कह रहे थे कि, "अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी/ आंचल में है दूध और आंखों में पानी!" तो वहीं दूसरी तरफ सुभद्रा कुमारी चौहान यह आवाज उठा रही थीं कि, "सबल पुरुष यदि भीरु बनें, तो/ हमको दे वरदान, सखी/ अबलाएँ उठ पड़ें देश में/ करें युद्ध घमसान, सखी!" इसी का परिणाम हुआ कि पूरे देश में महिला जागरण की लहर दौड़ पड़ी। आधुनिक युग की मीराँ, महादेवी वर्मा ने इसे ही ध्यान में रखकर कहा था कि, "कीर का, प्रिय, आज पिंजर खोल दो!" और सचमुच शताब्दियों से पिंजरे में बंद महिलाएँ आजादी के बाद तमाम कार्य क्षेत्रों में सक्रिय रूप से उतर पड़ीं। आज भारतवासी गौरव के साथ कहते हैं कि हमारे देश में महिलाएँ प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक के उच्चतम पदों पर आसीन हो चुकी हैं!
लेकिन इस कटु सत्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि अपने स्त्री सुलभ गुणों के कारण आज भी विभिन्न कार्य क्षेत्रों में सक्रिय कामकाजी स्त्री को अपने आत्मसम्मान के लिए पल-पल आशंकित रहना पड़ता है। जैसा कि कामायनी-कार ने अपनी नायिका के मुंह से कहलवाया है, "यह आज समझ तो पाई हूँ/ मैं दुर्बलता में नारी हूँ/ अवयव की सुंदर कोमलता/ लेकर मैं सबसे हारी हूँ।" अपनी कमनीयता के कारण कामकाजी महिलाएँ भी अपने कार्य क्षेत्र में निरंतर अवांछनीय घटनाओं को झेलने के लिए अभिशप्त हैं। इसीलिए कामकाजी महिलाओं के आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अंतरराष्ट्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर अनेक दिशा निर्देश तथा कानून बनाए गए हैं।
कैसी विडंबना है कि आज भी हमारे देश में ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं कि रक्षा क्षेत्र में महिलाओं को केवल इसलिए सर्वोच्च पदों से वंचित रहना पड़ा है कि कहीं 'पुरुष' सिपाही एक 'महिला' अधिकारी के आदेश मानने से इनकार न कर दें! संतोष का विषय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस भेदभाव को समाप्त करने का आदेश दिया है। लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि अभी तक कामकाजी स्त्रियाँ किस तरह के भीषण लैंगिक भेदभाव की शिकार हैं। यह उनके आत्मसम्मान का हनन है।
लैंगिक भेदभाव ही नहीं, कामकाजी स्त्रियों को इस पुरुष प्रधान समाज में पग-पग पर लैंगिक छेड़छाड़ और प्रताड़ना भी झेलनी पड़ती है। यही कारण है कि कामकाजी स्त्रियों के आत्मसम्मान और सुरक्षा के लिए विशेष कानूनों की जरूरत पड़ती है। इसके बावजूद, एक सर्वेक्षण में यह खतरनाक सच्चाई सामने आई है कि ऑफिस में महिलाओं की सुरक्षा पर केवल 3 प्रतिशत संस्थाएं ही ध्यान देती हैं। यहां तक कि मुंबई जैसे सब प्रकार से उत्तर आधुनिक महानगर में भी अनेक कामकाजी महिलाएं उन कानूनों से परिचित तक नहीं हैं, जो उनके आत्मसम्मान और सुरक्षा के लिए ही बनाए गए हैं। ऐसे में छोटे शहरों और कस्बों के बारे में तो केवल कल्पना ही की जा सकती है। इस सर्वेक्षण में दक्षिण मुंबई के चार सौ उनचास ऐसे संस्थानों की महिलाओं से बात की गई, जहां 10 से अधिक लोग काम करते हैं। सर्वेक्षण में पता चला कि तीन सौ छियासी, यानी छियासी प्रतिशत, संस्थानों को केंद्र सरकार के यौन उत्पीड़न अधिनियम- 2013 के बारे में कोई जानकारी नहीं है। उनचास संस्थानों को इस कानून की जानकारी तो है, लेकिन वे इस पर अमल नहीं करते। कहना न होगा कि देश की न्याय व्यवस्था के जागरूक होने भर से काम नहीं चलेगा। ज़रूरत है कि कामकाजी महिलाएँ स्वयं उन प्रावधानों के प्रति जागरूक हों, जो खास तौर पर कार्यस्थल पर उनके आत्मसम्मान को सुनिश्चित करने के लिए ही बनाए गए हैं। दूसरी ओर यह भी देखना होगा कि वह कोई दुकान हो या दफ्तर, छोटी सी कंपनी हो या विशाल कारपोरेट जगत, हर कार्य क्षेत्र में स्त्रियों के आत्मसम्मान की गारंटी उपलब्ध है या नहीं। उल्लेखनीय है कि कामकाजी महिलाओं के आत्मसम्मान से जुड़े कानूनों का पालन न करने के मामले में एक प्राइवेट कंपनी पर सितंबर 2014 में 1 करोड़ अडसठ लाख रुपये का जुर्माना मद्रास उच्च न्यायालय ने लगाया था। तो भी देश के जयादातर प्राइवेट संस्थानों में इन कानूनों की अनदेखी ही की जाती है। ऐसे स्थानों पर महिलाओं और उनके सहकर्मियों को मिल कर इन कानूनों के पालन की मांग करनी चाहिए।
इस अवस्था में यह सवाल स्वाभाविक है कि कामकाजी महिलाओं को अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए मिले अधिकारों की जानकारी क्यों नहीं है। साथ ही यह भी कि प्रायः अनेक कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न अधिनियम- 2013 का पालन क्यों नहीं किया जाता। इस दो-तरफा लापरवाही का ही नतीजा है कि आए दिन कामकाजी महिलाओं के कार्यस्थल पर यौन शोषण के समाचार आम बात बन गए हैं। दरअसल, जब कोई ऐसी बड़ी घटना हो जाती है कि कामकाजी महिलाओं का आत्मसम्मान राष्ट्रीय प्रश्न बन जाता है, तब तो ज़रूर ऐसा लगता है कि स्त्री के अधिकार और सुरक्षा के बारे में जागरूकता का सैलाब आ गया है। लेकिन यह सैलाब इतना सतही होता है कि कुछ ही दिन में लापता भी हो जाता है। शर्म की बात तो यह है कि एक तरफ कैंडल मार्च निकलते रहते हैं और दूसरी तरफ महिलाओं की मर्यादा और लज्जा तार तार की जाती रहती है। पुरुषों और स्स्त्रियों को इस तथ्य के बारे में शिक्षित और जागरूक किए जाने की ज़रूरत है कि यौन उत्पीड़न अधिनियम- 2013 में "न केवल महिलाओं के उत्पीड़न को रोकने के लिए कहा गया है, बल्कि इसके साथ ही महिलाओं के साथ उचित सम्मान, विनम्रता और गरिमा के साथ पेश आने की बात कही गई है। इसमें यह भी कहा गया है कि भारत का संविधान धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव को प्रतिबंधित करने के साथ ही हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है। इसके साथ ही यह सभी नागरिकों को कोई भी पेशा अपनाने का भी मौलिक अधिकार प्रदान करता है। इस अधिकार के तहत महिलाओं के लिए कार्यस्थलों पर अनुकूल और हर प्रकार से सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराना भी शामिल है।"
अंततः इतना ही कि कामकाजी महिलाओं का सम्मान सुनिश्चित करने के लिए कानून तो बने हुए हैं, लेकिन उनके प्रति अवहेलना का जो भाव लगभग सारे समाज में व्याप्त है, जब तक वह नहीं मिटेगा, तब तक महिलाओं का आत्मसम्मान भी आग की लपटों से घिरा रहेगा।000
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