शनिवार, 2 अप्रैल 2016

(वक्तव्य) देशज पत्रकारिता और सत्ता : दक्षिण भारत का विशेष संदर्भ

[आजमगढ़, उत्तर प्रदेश, में 28 और 29 मार्च, 2016 को आयोजित  राष्ट्रीय सम्मलेन ''मीडिया समग्र मंथन -2016" के  "मीडिया और सरकारी तंत्र" शीर्षक विचार-सत्र में प्रस्तुत किया गया आलेख]

आदरणीय अध्यक्ष महोदय, सम्मानित मंच, देवियो और सज्जनो!

सबसे पहले तो मैं इस भव्य और विराट आयोजन के लिए आयोजकों, विशेष रूप से श्री अरविंद कुमार सिंह, को बधाई देती हूँ. आज जब दुनिया भर में मीडिया के ऊपर सरकारों और बाज़ारों ने कब्ज़ा जमा रखा है, आपने आंचलिक पत्रकारिता के बहाने मीडिया के बारे में विचार मंथन का आयोजन करने का निश्चय किया; यह बहुत बड़ी बात है. मुझे तो लगता है कि मिशन से शुरू होकर कमीशन तक पहुँच चुकी पत्रकारिता को अगर फिर से मिशन भावना से जोड़ना है, तो ऐसा आंचलिक पत्रकारिता के बल पर ही किया जा सकता है. मेरे इस सोच का कारण यह तथ्य है कि आंचलिक पत्रकारिता ही आज भी मीडिया की रीढ़ है. इसलिए इस आयोजन के अवसर पर मैं आप सबका अभिनंदन करती हूँ, आप सबको साधुवाद देती हूँ. 

मैं हैदराबाद से आई हूँ – इसलिए आपसे थोड़े से शब्दों में दक्षिण भारत, और उसमें भी खासतौर पर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्य की भाषाई पत्रकारिता के संघर्ष के बारें में कुछ बातें करना चाहती हूँ. बातें बहुत हो सकती हैं – इसलिए मैं अपने वक्तव्य को पत्रकारिता और सत्ता के संबंधों तक ही सीमित रखूंगी. 


आप जानते ही हैं कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना राज्यों की मुख्य भाषा तेलुगु है. आपको यह भी पता हे है कि हिंदी की तरह सभी भारतीय भाषाओँ में पत्रकारिता नवजागरण काल और स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आरंभ हुई. इस कारण आरंभिक पत्रकरिता का चरित्र तत्कालीन सत्ता से संघर्ष का रहा. आपको यह सुनकर रोमांच होगा कि जिस समय देश भर में लोकमान्य तिलक का नारा गूँज रहा था – स्वतंत्रता मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है – उस समय तेलुगु में 1906 में ‘मनोरमा’ और 1910 में ‘देशमाता’ जैसे पत्र तेलुगु समाज को जगाने के लिए यह घोषणा कर रहे थे – “भारत भूमि एक दुधारू गाय है, अंग्रेज़ चालाक ग्वाले हैं, भारतीय लोग भूखे बछड़े की तरह रो रहे हैं. ग्वालों ने उनके मुँह कस कर बाँध दिए हैं, और गाय का दूध दुह कर विलायत भेज रहे हैं.” आप अनुमान कर सकते हैं कि ऐसे लेखन के लिए चिलकमर्ति लक्ष्मी नरसिंहम से अंग्रेज़ सरकार नाराज़ हो गई थी, उन्हें जेल में डाल दिया था.

... तो यह था तत्कालीन भाषाई पत्रकारिता और सत्ता का रिश्ता. नरसिंहम जी ने अंग्रेजों को चालाक ग्वाले कहा तो ‘स्वराज्य’ के संपादक हरि सर्वोतम राव ने अंग्रेजों को ‘अरे ओ! फिरंगी’ तथा ‘क्रूर व्याघ्र’ कह कर संबोधित किया. कहना न होगा कि उन्हें इसके ‘पुरस्कार’ के रूप में राजद्रोह के अंतर्गत 3 साल की कड़ी सजा दी गई थी. हरि सर्वोतम राव ने ही आगे चलकर, 1922 में ‘मातृसेवा” नामक तेलुगु पत्र निकाला. उसी समय राजमहेंद्री से ‘कांग्रेस’ और एलुरु से ‘सत्याग्रही’ नामक पत्र निकले. दोनों से सरकार नाराज़ हुई – और इनके संपादकों को जेलयात्रा करनी पड़ी.

अब थोड़ी बात हैदराबाद की करें – निजाम के निरंकुश शासन के कारण हैदराबाद और तेलंगाना में तेलुगु पत्रकारिता उतना विकास नहीं कर सकी – लेकिन चेतना की आग को कोई भी तानाशाह आखिर कब तक दबा सकता है. इस इलाके से भी अनेक तेलुगु पत्र निकले. इसके अलावा निजामशाही के खिलाफ किसानों के आंदोलन का समर्थन करने वाले पत्र ‘प्रजाशक्ति’ को बहुत लोकप्रियता मिली. 

यहाँ एक बात और ध्यान में रखने जैसी है – वह यह कि हैदराबाद उर्दू और दक्किनी हिंदी का भी गढ़ रहा है. मानने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि आज की मानक राजभाषा खड़ीबोली हिंदी ने समन्वय का संस्कार हैदराबाद में जन्मी और पली दक्खिनी हिंदी से ही पाया है. समय की सीमा का ध्यान रखते हुए हैदराबाद की उर्दू पत्रकारिता का इतिहास तो आपके सामने नहीं रखूंगी, लेकिन इतना ज़रूर कहना चाहूंगी कि दक्षिण में सबसे पहला उर्दू समाचार पत्र ‘आफताब दक्कन’ 1860 में हैदराबाद से ही निकला था. यह भी ध्यान रहे कि निजाम के शासन काल में समाचार पत्र मुख्य रूप से सरकार की घोषणाओं को जनता तक पहुँचाने का काम करते थे. अगर वे कभी जनता की आवाज़ उठाते, तो उनका सिर कुचल दिया जाता. 

हैदराबाद के भारत में विलय का विरोध करने के लिए चलाए गए रज़ाकार आंदोलन के बारे में आपने सुना होगा. ये रज़ाकार हैदराबाद को एक स्वतंत्र राज्य बनाना चाहते थे और हिंदू-मुस्लिम एकता के पुराने इतिहास को भुला कर हिंदू जनता पर हर तरह के अमानुषिक अत्याचार करते थे. ऐसे में ‘रैयत’ नामक अखबार ने राष्ट्रीयता का प्रचार करने का बीड़ा उठाया. आप समझ ही सकते हैं कि निज़ाम शासन ने क्या किया होगा. ‘रैयत’ सदा के लिए बंद हो गया. उसके संपादक एम. नरसिंह राव चुप बैठने वाले पत्रकार नहीं थे – इसलिए उन्होंने शोएब उल्लाह खान के सहयोग से ‘इमरोज़’ निकाला और हैदराबाद में हो रहे सांप्रदायिक तांडव का विरोध किया. शोएब उल्लाह खान गांधीवादी थे, रज़ाकारों ने उन्हें जान से मार डालने की धमकी दी; और एक दिन जब वे काम पर से अपनी साइकिल पर वापिस लौट रहे थे, तो उन पर हमला किया गया. हमलावरों ने उनका सीधा हाथ काट दिया. और लहुलुहान होकर उन्होंने वहीँ सड़क पर दम तोड़ दिया. हैदराबाद की पत्रकारिता के इतिहास में यह किसी पत्रकार का पहला बलिदान था. 

इसी प्रकार ‘पयाम’ के कार्यालय पर भी हमला किया गया – आग लगा दी गई. हैदराबाद की पत्रकारिता का यह जनपक्षीय तेवर बाद में मुल्की – गैर मुल्की आंदोलन के दौरान तथा तेलंगाना आंदोलन के दौरान भी समय समय पर देखने को मिला. 

तेलुगु और उर्दू की ही तरह हैदराबाद में हिंदी पत्रकारिता का भी शासन और सत्ता के साथ छत्तीस का ही आंकड़ा रहा. जिस ज़माने में महात्मा गांधी की प्रेरणा से मद्रास तक में हिंदी का प्रचार प्रसार ज़ोरों पर था, उसी ज़माने में हैदराबाद राज्य में हिंदी को बगावत की भाषा का दर्जा मिला हुआ था. उस ज़माने में उर्दू हैदराबाद राज्य की राजभाषा थी और निजाम के शब्दों में हिंदी एक विदेशी भाषा थी. कभी कभार भूल चूक से किसी हिंदी अखबार को अनुमति मिल जाती थी, तो बाद में वापस ले ली जाती थी. सन 1901 में अर्जुन प्रसाद मिश्र ‘कंटक’ ने ‘भाग्योदय’ नामक पत्र निकलने की अनुमति प्राप्त की. पर जनता ने डर के मारे सहयोग नहीं दिया. हालत यह थी कि मराठी में ‘निजाम विजय’ पत्र निकल सकता था, पर हिंदी में नहीं. इसका प्रमुख कारण यह था कि हैदराबाद में आर्य समाज धार्मिक एवं नागरिक स्वतंत्रता के लिए लगातार शासन से भिड़ता रहता था. दरअसल आर्य समाज के प्रचारक हिंदी का प्रयोग करते थे इसलिए हिंदी पत्रकारिता को दबाया जाता रहा. इस कारण से हैदराबाद की जनता के लिए हिंदी के पत्र बाहर से प्रकाशित करने की नीति अपनाई गई. और सोलापुर से ‘आर्य संदेश’ निकाला गया. इस पत्र में जनता को इन्साफ के रास्ते पर चलने और निजामशाही के खिलाफ संघर्ष की प्रेरणा दी जाती थी. इस तरह हिंदी पत्रकारिता ने हैदराबाद में राजनैतिक चेतना फैलाने का काम किया. ‘आर्य संदेश’ का घोष वाक्य हुआ करता था : उठ बाँध कमर, क्यों डरता है, फिर देख प्रभु क्या करता है. भला ऐसा पत्र कितने दिन चलता – दो वर्ष में ही सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया. यह भी एक रोचक तथ्य है कि सरकारी प्रतिबंध के कारण कई संपादकों ने कई-कई नामों की अनुमति ले ली. ‘आर्यभानु’, ‘दिग्विजय’, ‘सुधाकर’, ‘दिवाकर’, ‘हनुमान’, ‘पताका’, ‘वेदप्रकाश’, और ‘वैदिक ज्योति’ ऐसे ही समाचार पत्र थे. ऐसा कोई पत्र कभी नागपुर से छपता तो कभी सोलापुर से; कभी बड़े आकार में छपता तो कभी छोटा बन जाता. हिंदी पत्रकारों और सत्ता के बीच लुका –छिपी का यह खेल हैदराबाद के विधिवत भारतीय संघ में विलय होने तक चलता रहा. 

1948 के बाद हैदराबाद की पत्रकारिता का चरित्र भी शेष भारत की पत्रकारिता जैसा ही रहा है, अर्थात धीरे धीरे पत्रकारिता का आंदोलनकारी चरित्र कमज़ोर पड़ता गया और वह एक मुनाफा कमाने वाले व्यवसाय में तब्दील हो गई. इसके बावजूद यह ज़रूर मानना होगा कि स्वतंत्र तेलंगाना की माँग के संदर्भ में हैदराबाद की पत्रकारिता ने अपना क्षेत्रीय आंदोलनकारी चरित्र 2014 तक बनाए रखा. 

आशा की जानी चाहिए कि भविष्य में भी आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में हिंदी, उर्दू और तेलुगु की पत्रकारिता अपने जनपक्षीय और संघर्षशील चरित्र को बनाए रखेगी. 

मुझे यह अवसर प्रदान किया गया – इस हेतु आप सबके प्रति आभारी हूँ.

--डॉ. पूर्णिमा शर्मा 

208-A, Siddhartha Apartments, 

Ganesh Nagar, Ramanthapur,

Hyderabad – 500013