सोमवार, 15 दिसंबर 2014

राग और द्वेष

रेडियो वार्ता : डॉ. पूर्णिमा शर्मा 


मनुष्य का मन संवेगों का तंत्र है. संवेग अनंत हैं परंतु उनकी श्रेणियाँ दो हैं. पहली श्रेणी है – राग; और दूसरी श्रेणी है – द्वेष. जो हमें सुखकर है – वह राग का आधार है और जो दुःखकर है - वह द्वेष का आधार है. 

जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं. यह लगाव यों ही नहीं होता. इसके पीछे वहाँ से मिल रहे सुख होते हैं या सुख मिलने की उम्मीद होती है, चाहे वह घर हो, घरवाले हों, रिश्तेदार हों या फिर सुख-सुविधा के साधन. इसका पता तब लगता है, जब सुख मिलना बंद हो जाए या अहम् को ठेस पहुंचे. ऐसे में व्यक्ति दुखी हो जाता है और फिर यहीं से द्वेष जन्म लेता है. जहां राग था, अब द्वेष हो गया. बिना राग के द्वेष नहीं होता. 

ये राग-द्वेष जिंदगी भर चलते रहते हैं. इनकी जड़ें मन में इतनी मजबूत हो जाती हैं कि इनके संस्कार जन्म-मरण की वजह बनने लगते हैं और आने वाला जन्म इन्हीं पर निर्भर करने लगता है. कहा जाता है कि भरत जैसे ज्ञानी का हिरन के प्रति राग उनके मृग रूप में पुनर्जन्म का कारण बना. अर्थात अगला जन्म वहीं होता है, जहाँ पहले राग या द्वेष था. 

कभी कभी हम समझते हैं कि द्वेष ही कर्मों के बंधन का कारण है और केवल द्वेष दूर करने में लग जाते हैं. जिनसे द्वेष होता है, उन्हें मनाने लगते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जहाँ से राग था, वहीं से द्वेष आता है और जहाँ से द्वेष है, द्वेष के दूर होने पर वहीं से राग भी पैदा होने लगता है. इसलिए हमें द्वेष के साथ-साथ राग को भी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए. जब राग ही नहीं रहेगा, तो द्वेष कैसे पैदा होगा? राग दूर करने के लिए अपने सीमित प्रेम को बढ़ाते जाओ, इतना बढ़ाओ कि संसार में सबके लिए एक जैसी प्रेम भावना आ जाए. न किसी के लिए कम, न किसी के लिए ज्यादा. मानव मात्र के प्रति, या फिर संपूर्ण सृष्टि के प्रति आत्म भाव के उत्पन्न होने से राग की भावना उदात्त होकर विश्वव्यापी बन जाती है और द्वेष जैसी नकारात्मक भावना स्वतः समाप्त हो जाती है. कहा भी गया है कि समस्त जगत को आत्मवत समझने वाला ही सच्चा प्रेमी, भक्त, ज्ञानी और मुक्त होता है. वस्तुतः राग-द्वेष ही हमारी सारी मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक परेशानियों की जड़ है. 

कहना न होगा कि यह सृष्टि राग-द्वेष का ही ताना-बाना है. इस दृष्टि से हर जीव स्वयं अपने द्वारा निर्मित सृष्टि में रहता है. जहाँ ममत्व है वहाँ संयोग से हर्ष, वियोग से विषाद और भोग से दु:खवर्धक सुख का अनुभव होता है. कर्मानुसार सृष्टियाँ हैं और जीवों की अपनी-अपनी अनुभूतियाँ हैं. जहाँ ममता नहीं है वहाँ सृष्टि भी नहीं. ममतासहित सृष्टि कुछ और है; और ममतारहित सृष्टि कुछ और. दरअसल राग-द्वेष जीव के गुण हैं, जिनसे सृष्टि में विषमता आती है. इस विषमता का उत्तरदायी जीव है. 

स्मरणीय है कि राग और द्वेष चित्त को पक्षपाती बना देते हैं. राग-द्वेष से प्रेरित होने के कारण ही धृतराष्ट्र दुर्योधन में कोई दोष नहीं देखता. राग-द्वेष वश पक्षपाती होने से जीवन का सत्य हाथ से फिसल जाता है. राम का वनवास कैकेयी के मन के पक्षपात का ही परिणाम था. 

आनंद की अनुभूति के लिए मनुष्य का राग-द्वेष से मुक्त होकर विश्वात्मा के साथ जुड़ना ही एकमात्र मार्ग है. यही कारण है कि साहित्य, संगीत और अन्य सभी ललित कलाएं हमारे चित्त को राग-द्वेष से मुक्त करके जो विशदता प्रदान करती हैं, वह अमूल्य है. आप सबको भी चित्त की इस विशदता की अनुभूति प्राप्त हो, हम ऐसी कामना करते हैं. नमस्कार !!!! 

[प्रसार भारती : हैदराबाद : 16/12/2014]



स्नेह भाव


रेडियो वार्ता : डॉ. पूर्णिमा शर्मा



हमारी भाषा में ‘स्नेह’ एक बहु-अर्थीय शब्द है. स्नेह वस्तु के रूप में तेल या तैलीय पदार्थ का वाचक है तो भाव के रूप में वह प्रेम के एक विशेष प्रकार का अर्थ देता है. सामान्यतः स्नेह का अर्थ है - लगाव. भारतीय संस्कृति सारे जगत को कुटुंब मानते हुए यह संदेश देती है कि द्वेष भाव भूल कर सभी से स्नेह रखना चाहिए. इसमें भी संदेह नहीं कि स्नेह और प्रोत्साहन में बड़ी ऊर्जा निहित होती है जो किसी भी व्यक्ति को निरंतर रचनात्मक संघर्ष के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देती है. 

शाब्दिक दृष्टिकोण से, 'चिकनापन' नामक जो गुण है, वह स्नेह कहलाता है.सृष्टि में जहाँ कहीं जलतत्व का संस्पर्श है, वहाँ स्नेह विद्यमान है जो द्रवणशीलता के रूप में दिखाई देता है. स्नेह ऐसा गुण है, जिसके कारण पृथक्-पृथक् रूप से विद्यमान कण या अंश पिण्ड रूप में परिणत हो जाते हैं. वास्तव में हमारे चित्त की चिकनाई के कारण ही संबंधों में आत्मीयता दिखाई देती है. अगर रजोगुण, धन अथवा अहंकार रूपी रजकण स्नेह से चिकने चित्त को छू जाते हैं तो वह मलिन हो जाता है तथा संबंध पहले जैसे आत्मीय नहीं रह जाते. स्नेह का एक अर्थ तेल है. जब तक दीपक में तेल है वह जलता है और तेल चुक जाने पर दीपक बुझ जाता है. इसी प्रकार जब तक स्नेह भाव रहता है तो संबंधों में आत्मीयता का प्रकाश रहता है. स्नेह भाव के चुक जाने पर दीपक की तरह संबंध भी बुझ जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं. यहाँ महाकवि बिहारी की उक्ति उल्लेखनीय है कि                                                        ”जो चाहो चटक ना घटे, मैलो होय न मित्त,
 रज राजस न छुवाइए, नेह चीकने चित्त’’. 

याद रहे कि स्नेह न बचने पर जीवन सूखे बालू के समान नीरस बन कर रह जाता है. जैसा कि ‘निराला’ जी कहते हैं –
 ‘स्नेह निर्झर बह गया है/
 रेत ज्यों तन रह गया है.’ 
वस्तुतः स्नेह उस भावना का नाम है जिसे वत्सलता कहा जाता है. यह वात्सल्य रस का स्थायी भाव है. माता-पिता का अपनी संतान पर जो नैसर्गिक स्नेह होता है, उसे ‘वात्सल्य’ कहते हैं. मैकडुगल आदि मनोवैज्ञानिकों ने तो इसे प्रधान अथवा मौलिक मनोभावों में शामिल किया है. व्यावहारिक अनुभव भी यही बताता है कि स्नेह प्रेम का वह उज्ज्वल रूप है जिसमें आत्मदान का आनंद निहित है. संतान के प्रति माँ का प्यार इसका आदर्श है. 

वात्सल्य रस के स्थायी भाव के रूप में स्नेह भाव का आलंबन संतान या उसके समान प्रेम के अधिकारी को माना जा सकता है. इसका विस्तार शिष्य स्नेह, प्रजा स्नेह और मानव मात्र के प्रति स्नेह के रूप में होता है. हर्ष, गर्व, आवेग, अनिष्ट की आशंका इसके संचारी भाव हैं. स्नेह-पात्र की चेष्टाएँ और योग्यताएँ उद्दीपन हैं. आलिंगन, अंग-संस्पर्श, सिर को चूमना, देखना, रोमांच, आनन्दाश्रु आदि अनुभाव हैं. इसका वर्ण पद्म-गर्भ की छवि जैसा और देवता लोकमाता या जगदंबा को माना गया है जो निःस्वार्थ ममता का प्रतीक है.

स्नेह भाव को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि यदि कभी स्नेह-पात्र में कुछ दोष भी दिखे तो उसका सार्वजनिक प्रकाशन न करके आत्मीयतापूर्वक समाधान किया जाए. यहाँ भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता का अंश प्रस्तुत करना उचित होगा. भवानी दादा कहते हैं –
 ‘यदि कभी किसी कारण से/ 
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,/ 
तो सख्त बात कह उठने की/
रे, तेरे हाथों हो न भूल./
 मत कहो कि वह ऐसा ही था,/
 मत कहो कि इसके सौ गवाह;/ 
यदि सचमुच ही वह फिसल गया/
 या पकड़ी उसने गलत राह -/ 
तो सख्त बात से नहीं, स्नेह से/
 काम जरा लेकर देखो;/ 
अपने अंतर का नेह अरे,/
 देकर देखो./ 
कितने भी गहरे रहें गर्त,/
 हर जगह प्यार जा सकता है;/
 कितना भी भ्रष्ट जमाना हो,/
 हर समय प्यार भा सकता है;/ 
जो गिरे हुए को उठा सके/ 
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,/
 दे प्यार उठा पाए न जिसे/ 
इतना गहरा कुछ पतन नहीं./
 देखे से प्यार भरी आँखें/ 
दुस्साहस पीले होते हैं/ 
हर एक धृष्टता के कपोल/
आँसू से गीले होते हैं./ 
तो सख्त बात से नहीं/ 
स्नेह से काम जरा लेकर देखो,/ 
अपने अंतर का नेह/ 
अरे, देकर देखो.’

[प्रसार भारती : हैदराबाद : 16/12/2014]




सामाजिक न्याय


रेडियो वार्ता : डॉ. पूर्णिमा शर्मा 




किसी भी समाज में कई प्रकार के वर्गीकरण और परतें होना स्वाभाविक है परंतु इन वर्गों या परतों के आधार पर मनुष्यों के बीच भेदभाव बरतना न्यायसंगत नहीं है. यहीं से सामाजिक न्याय का विचार जन्म लेता है. इस प्रकार सामाजिक न्याय की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है. इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए. हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वह ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को साकार कर सके. विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है. कहना न होगा कि व्यावहारिक राजनीति के क्षेत्र में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक एकजुटता का एक प्रमुख आधार रहा है. सामाजिक न्याय के अंतर्गत उदारता और समानता जैसे मूल्यों के साथ अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंस्कृतिवाद और मूल निवासियों के अधिकार जैसी माँगें भी शामिल रही हैं. स्त्रियों के अधिकारों और स्त्री-सशक्तीकरण के मुद्दों को भी सामाजिक न्याय से ही जोड़ कर देखा जाता है.

वस्तुतः सामाजिक न्याय के विचार ने विभिन्न समाजों में विभिन्न समुदायों को अपने लिए गरिमामय ज़िंदगी की माँग करने और उसके लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया है. फिर भी यह याद रखना होगा कि ‘वसु़धैव कुटुम्बकम्’ की प्राचीन अवधारणा के अनुसार पूरी धरती को परिवार मानने की भारतीय संस्कृति सामाजिक न्याय का प्राचीनतम रूप है. लेकिन समाज-विज्ञान में सामाजिक न्याय का विचार उत्तर-ज्ञानोदय काल में सामने आया और समय के साथ अधिकाधिक परिष्कृत होता गया. उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ चलने वाले संघर्षों में मानव-मुक्ति और समाज के कमज़ोर समुदायों के हकों आदि की बातें ज़ोरदार तरीके से उठाई गईं. भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी सभी समुदायों के लिए सामाजिक न्याय के मुद्दे पर गंभीर बहस चली. इस बहस से ही समाज के वंचित समुदायों के लिए आरक्षण, अल्पसंख्यकों को अपनी आस्था के अनुसार अधिकार देने और अपनी भाषा का संरक्षण करने जैसे प्रावधानों पर सहमति बनी. बाद में ये सहमतियाँ भारतीय संविधान का भाग बनीं.

उन्नीस सौ साठ के दशक से पश्चिम में नारीवादी आंदोलन, नागरिक अधिकार आंदोलन, गे, लेस्बियन और ट्रांस-जेंडर आंदोलन और पर्यावरण आंदोलन आदि उभरे. इनके प्रभाव से स्त्री जाति के समान हक के रास्ते में पितृसत्ता को सबसे बड़ी रुकावट के रूप में रेखांकित किया गया. इसी तरह, गे, लेस्बियन और ट्रांस-जेंडर लोगों ने समाज में ‘सामान्य’ या ‘नार्मल’ की वर्चस्वी रूपरेखा पर सवाल उठाया और अपने लिए समान स्थिति की माँग की. 

इसी क्रम में उन्नीस सौ अस्सी के दशक के आख़िरी वर्षों में, बहुसंस्कृतिवाद की संकल्पना सामने आई. इसमें यह माना गया कि अल्पसंख्यक समूहों के साथ वास्तविक रूप से तभी न्याय हो सकता है, जब उन्हें अपनी संस्कृति से जुड़े विविध पहलुओं की रक्षा करने और उन्हें सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त करने की आज़ादी मिले. इसके लिए यह ज़रूरी है कि उनके सामुदायिक अधिकारों को मान्यता दी जाए. इस तरह सामाजिक न्याय की अवधारणा में एक नया आयाम जुड़ा. निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि सम्माज में लोकतंत्र के मूल्यों को अमली जामा पहनाने के लिए सामाजिक न्याय को सुनिश्चित करना ज़रूरी है.

[प्रसार भारती : हैदराबाद : 16/12/2014]

रविवार, 10 अगस्त 2014

हमारे धार्मिक पर्व : एक सामाजिक दृष्टिकोण (जन्माष्टमी और गणेश उत्सव का विशेष संदर्भ)

रेडियो वार्ता: डॉ. पूर्णिमा शर्मा

हमारा देश भारतवर्ष धर्मप्राण देश है। इसकी संस्कृति दुनिया की सबसे प्राचीन और निरंतर विकसित होने वाली संस्कृति है. भारतीय संस्कृति में जहां धर्म और अध्यात्म बृहद रूप में विद्यमान है वहीं बिना पर्वों के इसके रूपरेखा भी पूर्ण नहीं हो सकती। हम भारतीय स्वभाव से ही आनंदजीवी और उत्सवप्रेमी होते हैं. इस तथ्य से आप इनकार नहीं कर सकते कि भारतीय संस्कृति को विराट एवं विशेष रूप देने में और इसे जीवंत रखने में पर्वों की बहुत बड़ी भूमिका है। भारत के पर्व न केवल धर्म बल्कि हमारे सामाजिक जीवन का भी विशिष्ट अंग हैं. . भारत के पर्वों की सूची इतनी विराट है कि उनका एक साथ वर्णन नहीं किया जा सकता। वर्ष भर में शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब यहां पर्व न हो। यहां तो प्रतिदिन पर्व हैं। इन पर्वों से हमारे आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा आदि का तो पता चलता ही है, साथ ही इतने विशाल राष्ट्र में एक साथ मिलजुल कर पर्वों को मनाना भारत की एकता और अखंडता का भी अकाट्य सबूत है। 

यदि भारतीय पर्वों के उद्भव या विकास को यदि देखें तो पता चलता है कि प्रत्येक पर्व के पीछे एक पौराणिक आख्यान अवश्य होता है अर्थात यहां कोई भी पर्व मनगढंत या किसी के मन की उत्पत्ति नहीं है। सतयुग से लेकर वर्तमान तक जो भी दैविक, धार्मिक या आध्यात्मिक घटनाएं व्यापक समाज के अनुभव में आईं, उन्हीं से हमारे पर्वों का जन्म हुआ है जिससे प्रत्येक पर्व में एक विशिष्ट सामाजिक सन्दर्भ छिपा रहता है. है जैसे यदि जन्माष्टमी पर्व श्रीकृष्ण के जन्म से जुड़ा है तो गणेशोत्सव का संबंध गणेश के जन्म से है. आप जानते ही हैं कि कृष्ण और गणेश दोनों का जन्म लोकरक्षण और समाजकल्याण के लिए हुआ था. इन दोनों पर्वों के माध्यम से आज भी हम भारतीय जन सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय और व्यक्तिगत जीवन को मूल्यवान बनाने वाले कर्म की प्रेरणा प्राप्त करते हैं.

जैसा कि आप जानते हैं कि भारतीय समाज में प्रचलित कुछ पर्व सार्वदेशिक हैं जो पूरे राष्ट्र में एक साथ मनाये जाते हैं और कुछ प्रादेशिक हैं. जन्माष्टमी और गणेशोत्सव इनमें से पहले वर्ग में आते हैं क्योंकि ये किसी न किसी रूप में देश भर में मनाए जाते है. यहाँ तक कि विदेशों में भी जहाँ जहाँ भारतवंशी हैं, वहाँ वहाँ ये दोनों पर्व भी हैं.

यह तो आम तौर पर सभी को मालूम है कि जन्माष्टमी भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र अर्धरात्रि के समय मथुरा में कंस के कारागार में श्री कृष्ण का जन्म हुआ. जिन्होनें उस समय के समाज को तानाशाही शक्तियों से मुक्त किया और न्याय के शासन की स्थापना के लिए महाभारत जैसे महा युद्ध के भी सूत्रधार बने. जन्माष्टमी के माध्यम से हम अपने आपको लोकतंत्र तथा न्यायपूर्ण सामजिक, राजनैतिक व्यवस्था के प्रति समर्पित करते हैं. यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो इस तिथि पर व्रत-उपवास रखना, मेले और उत्सव बनाना सब बेकार होगा. भारत के सभी प्रांतों में जिस श्रद्धा और उत्साह से लोग श्रीकृष्ण का जयंती उत्सव मनाते हैं वह सचमुच दर्शनीय है। श्रीकृष्ण ने संपूर्ण जीवन धर्म और सत्य की रक्षा की। दुष्टों का नाश किया। अतः यह विराट पर्व श्री कृष्ण के प्रेम और आनंद स्वरूप के साथ उनके आदर्शों को भी सदैव संचालित रखता है। 

इसी प्रकार गणेशोत्सव का भी सामजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय महत्त्व है. गणपति भारतीय देवमंडल में प्रथम पूजनीय हैं। महाकवि तुलसीदास ने गणपति को विद्या वारिधि, बुद्धिविधाता, विघ्नहर्ता और मंगलकर्ता कहा है। किसी भी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए गणपति के विशेष रूप का ध्यान, जप ओर पूजन किया जाता है। देश भर में भाद्रपद की शुक्ला चतुर्थी से चतुर्दशी तक गणेश-उत्सव धूमधाम से मनाया जाता हैं। पारंपरिक रिवाज़ के अनुसार इस अवसर पर गणपति की मूर्ति मिट्टी से बनायी जाती है और घर लाते समय उन्हें एक थाली में रूमाल से ढक कर इस तरह लाया जाता है कि उनका मुँह हमारी तरफ रहे। मोदक का भोग गणेश पूजा का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी बड़ी रोचक कहानी है। एक बार माता पार्वती के पास स्कंद और गणेश, दोनो भाइयों ने मोदक के लिये जिद की। पार्वती ने कहा, "यह महाबुद्धि मोदक है, लेकिन है तो एक ही, जो भी इसे खायेगा वह सारे जगत में बुद्धिमान कहलायेगा। जो पहले पृथ्वी प्रदक्षिणा कर के आयेगा उसे ही यह मिलेगा।" मोदक की चाहत में स्कंद तो पृथ्वी प्रदक्षिणा करने के लिये निकले लेकिन गणेश वहीं रूका रहे। उन्होंने अपने माता पिता की ही पूजा कर उन्हीं की प्रदक्षिणा की और मोदक के लिये हाथ आगे बढ़ाया। "माता-पिता की प्रदक्षिणा अर्थात पृथ्वी और अकाश की प्रदक्षिणा। सर्व तीर्थों में स्नान, सब भगवानों को नमन, सब यज्ञ, व्रत, कुछ भी कर लें लेकिन माता-पिता की पूजा से मिले हुए पूण्य की तुलना किसी से भी नहीं हो सकती।" गणेश का यह स्पष्टीकरण सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया गया और उन्हें महाबुद्धि मोदक प्राप्त हुआ। यह आख्यान यह सन्देश देता है कि माता पिता अर्थात पूर्वज पीढ़ी का सम्मान करके ही समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की जा सकती है. इससे भारत की कुटुंब संस्कृति की भी पुष्टि होती है. 

सार्वजनिक गणेश उत्सव में दस दिन दोनों समय सामूहिक आरती के साथ मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस उत्सव को लड़ाई झगड़े छोड़, मनमुटाव को दूर कर एकता की भावना के लिये विस्तृत और सार्वजनिक रूप दिया था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एकता और स्वतंत्रता की भावना को जगाने में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वैसे तो भारत वर्ष में यह पर्व प्राचीन काल से ही मनाया जाता है लेकिन सम्मिलित रूप से इसकी विराटता को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेजों की हुकूमत से मुक्ति के लिए जनमानस को जागृत करते हुए राष्ट्रचेतना का पर्व बना दिया था। इसी कारण आज गणेशोत्सव देश-विदेश में भारतीय गौरव का प्रतीक बन चुका है। गणेशोत्सव में प्रतिष्ठा से विसर्जन तक विधि-विधान से की जाने वाली पूजा एक विशेष अनुष्ठान की तरह होती है जिसमें वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से की जाने वाली पूजा दर्शनीय होती है। महा आरती और पुष्पांजलि का नजारा देखने योग्य होता है। साथ-साथ अनेक लोक सांस्कृतिक रंगारंग कार्यक्रम भी होते हैं जिनमें नृत्यनाटिका, रंगोली, चित्रकला प्रतियोगिता, हल्दी उत्सव आदि प्रमुख होते हैं। 

इस नए रूप में गणेशोत्सव की शुरुआत 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र से की। इससे पहले यह उत्सव केवल घरों तक ही सीमित था। उस समय आज की तरह पंडाल नहीं बनाए जाते थे और न ही सामूहिक गणपति विराजते थे। तिलक उस समय एक युवा क्रांतिकारी और गर्म दल के नेता के रूप में जाने जाते थे। वे बहुत ही स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। यह बात ब्रिटिश अफसर भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर किसी मंच से तिलक भाषण देंगे तो वहां आग बरसना तय है। तिलक 'स्वराज' के लिए संघर्ष कर रहे थे और वे अपनी बात को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें ऐसा सार्वजानिक मंच चाहिए था, जहां से उनके विचार अधिकांश लोगों तक पहुंच सकें। इसके लिए उन्होंने गणपति उत्सव को चुना और इसे सुंदर भव्य रूप दिया जिसे आज हम देखते हैं। तिलक के इस कार्य से दो फायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने आम जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और उन्हें जोश से भर दिया। इस तरह से गणपति उत्सव ने भी आजादी की लड़ाई में एक अहम् भूमिका निभाई। तिलक जी द्वारा शुरू किए गए इस उत्सव को आज भी हम भारतीय पूरी धूमधाम से मना रहे हैं और आगे भी मनाते रहेंगे। 

गणेशोत्सव के अवसर पर हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि गणेश का तात्पर्य है गणों के ईश. देवाधिदेव महादेव ने समस्त देवगणों के अध्यक्ष के रूप में जिसे मान्यता दी है वही गणेश है, उनका एक नाम गणाध्यक्ष भी है। गणेश जी की आकृति का इस अध्यक्ष पद के साथ एक निराला ही अर्थ प्रकट होता है। किसी राष्ट्र या समूह के अध्यक्ष के पास कुछ ऐसी योग्यताएँ होनी चाहिए ताकि वह समाज को सुरक्षित रख सकें। गणेश जी को गजानन कहते हैं इसका संकेत है हाथी की तरह धैर्यवान और बुद्धिमान होना। गणेश जी को विघ्नहर्ता भी कहते हैं। अतः इसके प्रतीक के रूप में उनके हाथ में परशुदंड भी है। अतः राष्ट्र पर आने वाले विघ्नों को दूर करने के लिए राजदंड और सैन्य शक्ति बहुत प्रबल होनी चाहिए। गणेश जी ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी हैं। अतः राष्ट्र में सुख-संपदा धन-धान्य की कमी न होने पाए। इस प्रकार गणेश का स्वरूप किसी गण अर्थात राष्ट्र के सच्चे और समर्थ नायक के गुणों का प्रतीक है.

शुक्रवार, 20 जून 2014

'परिलेख हिंदी साधक सम्मान' समारोह के अवसर पर प्रकाशित डॉ. जी. नीरजा का अंतरंग परिचय


नत नयन, प्रिय कर्मरत मन नीरजा 
-    डॉ. पूर्णिमा शर्मा

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा 
सहज समर्पण भाव और विनम्रता से हिंदी की मौन सेवा में लगी रहने वाली डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा भाषा और साहित्य से अपेक्षाविहीन प्रेम करती हैं. उन्हें आज तक किसी ने किसी तरह की शिकायत करते नहीं सुना. असुविधाएँ हैं, तो हुआ करें. वे बस अपने कर्म में किसी निष्काम कर्मयोगी की भाँति लगी रहती हैं. ‘नत नयन, प्रिय कर्मरत मन’ – तोड़ती पत्थर! कभी कोई धन्यवाद दे दे तो तरल मुस्कान से चेहरा खिल उठता है. लेकिन ज्यादातर धन्यवाद कोई देता नहीं – लोग काम निकलवाने में तो माहिर होते हैं लेकिन अपनी ओर से आगे बढ़कर सहयोग व सहायता देने वालों को धन्यवाद देना कतई जरूरी नहीं समझते. ऐसा नहीं है कि डॉ. नीरजा लोगों के इस ‘नाशुक्रे’ स्वभाव को नहीं जानतीं लेकिन इसे क्या कहिए कि तमाम तरह के ‘थैंकलेस’ काम करने के अपने स्वभाव को बदलना ही नहीं चाहतीं. तो ऐसी हैं हमारी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा. वे सदा हिंदी के नाम पर हर किसी का सहयोग करने को तत्पर रहती हैं और यही कारण है कि हैदराबाद के हिंदी जगत में – छात्रों, शोधार्थियों, अध्यापकों, पत्रकारों और साहित्यकारों के बीच – वे अच्छी खासी लोकप्रिय हैं. 


डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा का जन्म 11 मार्च 1975 को चेन्नै में हुआ. उनकी माताजी का नाम श्रीमती कुसुमा और पिताजी का नाम श्री गुर्रमकोंडा श्रीकांत है. माताजी सुशिक्षित गृहिणी हैं और पिताजी तेलुगु के सम्मानित पत्रकार एवं साहित्यकार. बचपन से ही नीरजा ने माँ से आत्मगोपन और पिता से गंभीरता का संस्कार पाया. उसी काल में उनके मन में कला, साहित्य, संगीत और नृत्य के प्रति प्रेम के बीज रोपे गए. आरंभिक शिक्षा-दीक्षा उन्होंने तमिल और अंग्रेजी माध्यम से प्राप्त की. घर में मातृभाषा तेलुगु का व्यवहार सीखा तथा तीन वर्ष की आयु से ही हिंदी की भी विधिवत शिक्षा प्राप्त की. मैट्रिक के बाद उन्होंने चिकित्सा संबंधी क्षेत्र में जाने का सपना देखा और विज्ञान विषयों की विधिवत पढ़ाई की. इसी बीच उन्हें अपने पिता और परिवार सहित चेन्नै से हैदराबाद आना पड़ा. दरअसल उनके पिता चेन्नै से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘सोवियत भूमि’ के तेलुगु संस्करण के संपादक थे जो सोवियत संघ के विघटन के बाद बंद हो गई. श्रीकांत जी सपरिवार हैदराबाद आ गए और कई वर्ष तक आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय नेता-अभिनेता श्री एन.टी. रामाराव के पी.आर.ओ. के रूप में कार्यरत रहे. एन.टी.आर. के निधन के बाद तेलुगु समाचार पत्रों ‘उदयम’ और ‘वार्ता’ में काम किया. कुछ वर्ष वे ‘वार्ता’ समूह द्वारा संचालित पत्रकारिता विद्यालय के प्राचार्य भी रहे. परिवार के इस साहित्य और राजनीति मिश्रित परिवेश को आत्मसात करते हुए डॉ. जी. नीरजा ने 1995 में माइक्रोबायोलॉजी, जेनेटिक्स और केमिस्ट्री विषय लेकर उस्मानिया विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी.एससी. उत्तीर्ण की. इसके बाद मेडिकल लैब टेक्नोलॉजी में पीजी डिप्लोमा भी कर डाला. जैसा कि होना था, इस पाठ्यक्रम के बाद वे एक वर्ष अपोलो अस्पताल में माइक्रोबायोलॉजिस्ट के रूप में कार्यरत रहीं. अर्थात चिकित्सा संबंधी क्षेत्र में जाने का सपना पूरा हो गया. लेकिन पारिवारिक संस्कार शायद इस सपने से अधिक प्रबल था. भाषा और साहित्य का प्रेम बार-बार जोर मारता था. और एक दिन संस्कार ने सपने को जीत लिया. नीरजा ने वह नौकरी छोड़ दी और हिंदी क्षेत्र में छलांग लगा दी. 


2000 ई. में गुर्रमकोंडा नीरजा ने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान से प्रथम श्रेणी में एमए हिंदी की उपाधि अर्जित की तथा स्वर्ण पदक प्राप्त किया. सौभाग्यवश उन्हें प्रो. दिलीप सिंह जैसे भाषावैज्ञानिक और प्रो. ऋषभ देव शर्मा जैसे साहित्य मर्मज्ञ अध्यापकों का अहेतुक स्नेह मिला तथा इन दोनों गुरुजन की प्रेरणा से उन्होंने अनुवाद समीक्षा और अनुवाद तुलना जैसे अछूते क्षेत्र में शोधकार्य का निर्णय लिया. 2001 में उन्होंने ‘कुरुक्षेत्र : अंग्रेजी अनुवाद की समीक्षा’ पर एमफिल की शोधोपाधि प्राप्त की तथा एक और स्वर्ण पदक अर्जित किया. आगे उन्होंने ‘श्रवणकुमार कृत उपन्यास ‘प्रेत’ : अंग्रेजी अनुवाद का संदर्भ’ विषय पर शोधप्रबंध प्रस्तुत करके 2006 में पीएचडी उपाधि प्राप्त की. अपने इन शोधकार्यों के आधार पर डॉ. जी. नीरजा को बहुभाषाविद अनुवाद समीक्षक के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई. इस अवधि में उन्होंने स्नातकोत्तर अनुवाद डिप्लोमा और पत्रकारिता डिप्लोमा की परीक्षाएँ भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर डालीं.


एमए के बाद से ही गुर्रमकोंडा नीरजा ने कई विद्यालयों में हिंदी अध्यापन का कार्य आरंभ कर दिया था. पीएचडी के बाद 2007 में उन्हें उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के हैदराबाद परिसर में प्राध्यापक के रूप में विधिवत नियुक्ति प्राप्त हो गई. और यहाँ से शुरू हुआ भाषा और साहित्य की सेवा का उनके जीवन का नया अध्याय. उन्होंने अपनी निष्ठा और श्रमशीलता के आधार पर अल्प अवधि में ही छात्रों के मन में अपनी जगह बना ली. उन्हें स्नातकोत्तर कक्षाओं में सामान्य भाषाविज्ञान, अनुवाद विज्ञान, व्यतिरेकी विश्लेषण, अन्य भाषा शिक्षण, प्रयोजनमूलक हिंदी और समाजभाषाविज्ञान जैसे विषयों की विशेषज्ञ के रूप में जाना जाता है. 


शोध निर्देशक के रूप में भी डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा की उपलब्धियाँ प्रशंसनीय रही हैं. उनके निर्देशन में संपन्न शोधकार्यों की सूची के अवलोकन से यह पता चलता है कि उनका ज्ञान क्षेत्र कितना व्यापक एवं वैविध्यपूर्ण है. उनके द्वारा निर्देशित तुलनात्मक साहित्य और अनुवाद समीक्षा संबंधी शोधकार्यों में तेलुगु-हिंदी कविताओं में विद्रोही चेतना, विश्वनाथ सत्यनारायण कृत ‘वेयिपडगलु’ का हिंदी अनुवाद ‘सहस्रफण’ : अनुवाद समीक्षा, एन. गोपि कृत तेलुगु काव्य ‘कालान्नि निद्रपोनिव्वनु’ का हिंदी अनुवाद : तुलनात्मक अध्ययन, माधवीकुट्टी कृत मलयालम उपन्यास ‘वंडीकालकल’ का हिंदी अनुवाद, मुदिकोंडा शिवप्रसाद के तेलुगु उपन्यास ‘रेज़िडेंसी’ का हिंदी अनुवाद : अनुवाद समीक्षा एवं अनुवाद मूल्यांकन जैसे शोधकार्य सम्मिलित हैं. इसी प्रकार भाषा संबंधी शोधकार्य के रूप में वाणिज्यिक हिंदी : समस्याएँ और संभावनाएँ (बैंकिंग हिंदी के विशेष संदर्भ में) का उल्लेख किया जा सकता है. मीडिया विमर्श जैसे नए क्षेत्र में शोध कराना अत्यंत चुनौतीपूर्ण कार्य है. डॉ नीरजा ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए अलका सरावगी के उपन्यास ‘एक ब्रेक के बाद’ में मीडिया विमर्श, हिंदी ब्लॉगिंग में महिला ब्लॉगरों का योगदान विषयों पर भी शोधकार्य कराए हैं. स्त्री विमर्श डॉ. नीरजा का विशेष रुचि क्षेत्र है जिसका प्रमाण उनके द्वारा निर्देशित महुआ माजी के उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ में स्त्री विमर्श, चंद्रकांता कृत ‘हाशिए की इबारतें’ में स्त्री विमर्श, नीलम कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह ‘हैवेनली हेल’ में स्त्री विमर्श, सिम्मी हर्षिता के उपन्यास ‘जलतरंग’ में स्त्री विमर्श, विष्णु प्रभाकर के उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ में स्त्री विमर्श, मनोज सिंह के उपन्यास ‘कशमकश’ में स्त्री विमर्श जैसे शोधप्रबंध बाकायदा देते हैं. इसी प्रकार दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक विमर्श का क्षेत्र भी उन्होंने अछूता नहीं छोड़ा है. इस संदर्भ में उनके द्वारा निर्देशित के.एस. तूफ़ान का दलित विमर्श : ‘टूटते संवाद’ का विशेष संदर्भ, मधुकर सिंह के उपन्यास ‘बाजत अनहद ढोल’ में आदिवासी विमर्श, नई शती के कथा साहित्य में अल्पसंख्यक विमर्श (मुस्लिम समाज के विशेष संदर्भ में) शीर्षक शोधकार्यों का अवलोकन किया जा सकता है. उनके द्वारा निर्देशित अन्य शोधप्रबंधों में श्रीलाल शुक्ल के साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन, पुनर्जागरण के संदर्भ में बालकृष्ण भट्ट कृत ‘निबंधों की दुनिया’ का अनुशीलन, अनंत काबरा के कविता संग्रह ‘पड़ाव पर ठहरे कदम’ में सामाजिक यथार्थ, विश्वनाथ अय्यर के ललित निबंधों में दक्षिण भारत की झलक, रामदरश मिश्र के उपन्यास ‘जल टूटता हुआ’ में आंचलिकता, हरिशंकर परसाई के निबंधों में व्यक्तित्व और वैचारिकता (‘निबंधों की दुनिया’ का विशेष संदर्भ), कमलेश्वर के कहानी संग्रह ‘देस-परदेस’ में चित्रित सामाजिक समस्याएँ, उषा प्रियंवदा के कहानी संग्रह ‘एक कोई दूसरा नहीं’ में वस्तु और शिल्प, क्षमा शर्मा के कहानी संग्रह ‘रास्ता छोड़ो डार्लिंग’ में मध्यवर्ग, श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दराबारी’ में राजनैतिक चेतना, अमरकांत के उपन्यास ‘सूखा पत्ता’ में आधुनिकताबोध, राजेंद्र अवस्थी की कहानियों में आधुनिकताबोध, रामदरश मिश्र की कहानियों में ग्राम चेतना शामिल हैं. 

'परिलेख हिंदी साधक सम्मान' समारोह (12/6/2014) के अवसर पर प्रकाशित  परिचय पुस्तिका का आवरण 


नीरजा को कविताएँ लिखने का शौक छात्र जीवन से रहा. यदाकदा छपती भी रहीं. लकिन जब 2008 में उन्हें दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की द्विभाषी (हिंदी-तेलुगु) साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘स्रवंति’ के संपादन का दायित्व मिला, तब से उनके लेखन में नियमितता आई. यही समय था जब उन्होंने गंभीरता से तेलुगु के पुराने-नए साहित्य का अध्ययन आरंभ किया और सहज सरल भाषा शैली में तेलुगु साहित्य तथा साहित्यकारों के संबंध में लिखना आरंभ किया. उनके तेलुगु भाषा-साहित्य विषयक लेखन को ‘स्रवंति’ के साथ साथ उनके ब्लॉग ‘सागरिका’ के माध्यम से पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हुई. उनके ऐसे लेखों का एक संग्रह ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ शीर्षक से 2012 में पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ जिसे सुधी पाठकों और विद्वानों का भरपूर स्नेह मिला. शीर्षस्थ तेलुगु कवि प्रो. एन.गोपि ने इस कृति की प्रशंसा करते हुए लिखा कि “तेलुगु भारत में हिंदी के बाद सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है. अतः तेलुगु में निहित साहित्यिक धरोहर से हिंदी जगत को परिचित कराना अत्यंत आवश्यक है. डॉ. नीरजा केवल विदुषी भर नहीं अपितु समय समय पर अपने आप को अद्यतन रखने वाली आलोचक भी हैं. इसलिए वे स्वाभाविक रूप से इतिहास बोध से भी संपन्न हैं. खास तौर पर समकालीन तेलुगु साहित्य को वे जिस दृष्टि से देख रही हैं, वह निरंतर परिवर्तित होते साहित्य के अनुशीलन का परिचायक है.” इसी प्रकार प्रमुख हिंदी भाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह ने भूमिका में कहा कि “गुर्रमकोंडा नीरजा ने तेलुगु साहित्य का परिचयात्मक आकलन अपनी इस पुस्तक में दिया है. लेखिका ने जटिलता भरे विस्तार की जगह उन मुद्दों को उभारने की कोशिश की है जिनसे तेलुगु साहित्य की सामाजिकता अथवा लौकिकता का उद्घाटन हो सके और इसके जरिए तेलुगु साहित्य में मनुष्य और मनुष्यता का जो भाव प्रारंभ से ही अंतर्भुक्त है, उभार पा सके. जी.नीरजा की यह पैनी दृष्टि ही पुस्तक की प्राण-रेखा है.” इस पुस्तक की प्रशंसा करते हुए प्रो. ऋषभ देव शर्मा ने लिखा है कि “पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ में लेखिका डॉ. जी.नीरजा ने तेलुगु के अनेक प्रतिष्ठित साहित्यकारों का साहित्यिक परिचय देते हुए जहाँ एक ओर इस बात का खयाल रखा है कि सूचना और विवेचन दोनों का मणिकांचन संयोग हो सके, वहीं यह भी ध्यान रखा है कि इन निबंधों के माध्यम से हिंदीभाषी समाज आंध्र प्रदेश के सामाजिक-सांस्कृतिक वैशिष्ट्य को भी हृदयंगम कर सके. विषयवस्तु की दृष्टि से यह निबंध संग्रह तेलुगु साहित्य के विविध कालों, विविध विधा प्रकारों, विविध प्रवृत्तियों और विविध साहित्यकारों को समेटे हुए है.” इतना ही नहीं, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ के अधिष्ठाता प्रो. देवराज ने नीरजा की इस पुस्तक की विस्तृत समीक्षा करते हुए ‘संकल्य’ मासिक में लिखा है कि “गुर्रमकोंडा नीरजा की इस पुस्तक में अन्नमाचार्य, कृष्णदेव राय, त्यागराज, वीरेशलिंगम पंतुलु, कशीनाथुनि नागेश्वराराव पंतुलु, गुरजाडा वेंकट अप्पाराव, उन्नव लक्ष्मीनारायण, जनकवि श्री श्री, दिगंबर कवि ज्वालामुखी, त्रिपुरनेनि गोपीचंद, आरुद्रा, डी. कामेश्वरी आदि के साहित्यिक अवदान के बारे में भी जानकारी उपलब्ध कराई गई है. स्मरणीय है कि भारतीय नवजागरण का सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य वीरेशलिंगम पंतुलु और गुरजाडा अप्पाराव जैसे कालजयी रचनाकारों के कृतित्व को जाने बिना नहीं समझा जा सकता. नीरजा की पुस्तक से पता चलता है कि वीरेशलिंगम पंतुलु आंध्र साहित्य के भारतेंदु हैं. उन्हें गद्य ब्रह्म और गद्य तिक्कना भी कहा जाता है. उन्होंने आंध्र में जाति-विरोध आंदोलन का सूत्रपात किया था. वे लिखती हैं, “तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर वीरेशलिंगम ने जनता को चिर निद्रा से जगाया, चेताया, स्त्री सशक्तीकरण को प्रोत्साहित किया, स्त्री शिक्षा पर बल दिया, बालविवाह का खंडन किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और ज़मींदारी प्रथा का विरोध किया. उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर दिखाई नहीं देता. उन्होंने 11 दिसंबर, 1881 को प्रथम विधवा पुनर्विवाह संपन्न करवाया जिसके कारण उनकी कीर्ति देश-विदेश में फ़ैल गई. वीरेशलिंगम पंतुलु ने अपने एक-सौ तीस ग्रंथों से तेलुगु साहित्य को समृद्ध किया, जिनमें राजशेखर चरित्रमु जैसा मौलिक उपन्यास तथा कालिदास के अभिज्ञान शाकुंतलम का तेलुगु रूपांतर शामिल है.” प्रो. देवराज ने आगे लिखा है कि “वर्तमान में भारतीय भाषाओं के साहित्य और भारतीय साहित्य पर नए सिरे से विमर्श की शुरूआत हुई है. इस परिघटना में हिंदी समालोचना से सबसे अधिक सक्रियता की अपेक्षा है. जो समीक्षक हिंदी में हिंदी के इतर भाषाओं और उनके साहित्य पर केंद्रित कार्य करने में समर्थ हैं वे भारतीय साहित्य की परिकल्पना को यथार्थ बनाने में वास्तविक रचना-घटक की भूमिका निभा सकते हैं. इस अभियान में इतनी सावधानी भी ज़रूरी है कि उनके द्वारा प्रतुत सामग्री विश्लेषणपरक और प्रामाणिक हो. उसमें अंतिम निष्कर्ष देने की जल्दबाजी न हो. गुर्रमकोंडा नीरजा भारतीय साहित्य के इस अभियान से जुड़ने को संकल्पबद्ध हुई हैं, उन्हें मेरी शुभकामनाएँ; और उनसे यह अपेक्षा भी कि वे अपने अध्ययन में और अधिक गंभीरता, और अधिक गहराई लाने की कोशिश करेंगी.” 


नीरजा अध्यापक, संपादक, समीक्षक और कवयित्री तो हैं ही, बहुभाषाविद होने के नाते अच्छी अनुवादक भी हैं. उन्होंने हिंदी से तमिल और तेलुगु में तथा अंग्रेजी से हिंदी व हिंदी से अंग्रेजी में काफी साहित्यिक और साहित्येतर पाठों का अनुवाद किया है. तेलुगु के नागार्जुन माने जाने वाले प्रजाकवि पद्मविभूषण डॉ. कालोजी नारायणराव की जन्मशताब्दी पर विशेष रूप से प्रकाशित 100 कविताओं के हिंदी अनुवाद कार्य से वे अनुवादक मंडल के एक सदस्य के रूप में तो संबद्ध रहीं ही, अनुवाद-संपादन का कार्य भी अत्यंत मनोयोग और सफलता से निभाया जिसकी तेलुगु और हिंदी दोनों ही के साहित्यिक हलकों में भूरि भूरि प्रशंसा हुई है. 

परिचयकर्ता  डॉ. पूर्णिमा शर्मा और सम्मानित  डॉ. जी. नीरजा 

हिंदी भाषा और साहित्य की निष्काम सेवा में रत डॉ. नीरजा के काम पर विभिन्न साहित्यिक और शैक्षणिक संस्थाओं का ध्यान जाना स्वाभाविक है. यही कारण है कि उन्हें कई सम्मानों-पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है जिनमें आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी का ‘युवा लेखक पुरस्कार (2012)’ तथा तमिलनाडु हिंदी साहित्य अकादमी का ‘साहित्य सेवी सम्मान (2014)’ उल्लेखनीय हैं. इतना ही नहीं, 2012 में जब हैदराबाद से भाषा, संस्कृति और विचारों की अंतरराष्ट्रीय मासिक पत्रिका ‘भास्वर भारत’ आरंभ हुई तो उसके संपादक-प्रकाशक डॉ. राधेश्याम शुक्ल ने डॉ. नीरजा को मानद साहयक संपादक के रूप में उसमें शामिल करना आवश्यक समझा. 


कुलमिलाकर यह कहना उचित होगा कि डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा हिंदी और तेलुगु के बीच साहित्यिक सेतुबंध के महान अनुष्ठान में अपना शक्तिभर योगदान करने में सदा निरभिमान हिंदी सेवी की तरह तत्पर रहती है.उनको ''परिलेख हिंदी साधक सम्मान -2014'' से सम्मानित किया जाना उचित ही है. मैं उनके उज्ज्वल भविष्य और समृद्ध जीवन के लिए शुभकामना करती हूँ. 


-   डॉ. पूर्णिमा शर्मा, 
208 ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013, मो. 08125336300