मंगलवार, 17 सितंबर 2013

रोचक शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ : 'फूलों से प्यार'

-डॉ. पूर्णिमा शर्मा

साहित्य मनोरंजन, रसास्वादन और चेतना को उद्बुद्ध करने जैसे कई काम करता है. लेकिन उसका सबसे चुनौतीपूर्ण काम शिक्षा प्रदान करने और चरित्र निर्माण करने का होता है. यह काम चुनौतीपूर्ण इसलिए है कि इसकी सिद्धि के लिए साहित्य को उपदेश का सहारा नहीं लेना है. आचार संहिताओं और नैतिक उपदेशों के स्थान पर साहित्य को कांतासम्मित उपदेश का मार्ग अपनाना होता है. विशेष रूप से बाल साहित्य इसी तकनीक को अपना कर अपनी रोचकता और सार्थकता बरकरार रख सकता है. 'फूलों से प्यार' में प्रतिष्ठित लेखिका, पवित्रा अग्रवाल ने इसी मार्ग को अपना कर रोचक घटनाओं और प्रेरक चरित्रों के माध्यम से नैतिक मूल्यों का सन्देश देने में सफलता पाई है.

यह संग्रह बच्चों के लिए लिखी गयी छोटी छोटी २५ कहानियों का संग्रह है. यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि इन कहानियों में परियों, भूतों, जादूगरों, चुड़ैलों और चमत्कारों का कोई स्थान नहीं है. पवित्रा जी मानती हैं कि इन तमाम तरह के कथानकों वाली कहानियां बच्चों को यथार्थ से काटकर जीवन से दूर कर देती हैं, इसीलिए उन्होंने अपने आस-पास के वास्तविक जीवन को अपनी बाल कथाओं का आधार बनाया है. ये कहानियां इस धारणा को खंडित करती हैं कि बच्चों के लिए काल्पनिक जगत की कहानियाँ चाहिए. ये कहना बिलकुल ठीक होगा कि ठोस ज़मीनी सच्चाइयों से जुडी पवित्रा अग्रवाल की कहानियां बच्चों में तर्क शक्ति और वैज्ञानिक चेतना को स्थापित करने में समर्थ हैं. 

इन कहानियों में बच्चों का मनोविज्ञान अत्यंत सहज रूप में उभर कर सामने आया है. बच्चों की जिज्ञासा वृत्ति, अनुकरण के साथ साथ कुछ मौलिक करने की प्रवृत्ति, प्रश्न करने का स्वभाव और सच तक पहुँचने की बेचैनी इन कहानियों को विकसित करती हैं और इसी दौरान लेखिका बड़ी चतुराई से किसी होशियार माँ की तरह नैतिक शिक्षा का पाठ भी पढ़ा देती है जिसका परम उद्देश्य चरित्र निर्माण है. 

साहित्य चाहे बच्चों के लिए लिखा जाए या बड़ों के लिए, उसकी चरम सार्थकता अमंगल का नाश करने में है. अंधविश्वास, कुरीतियाँ, गलत प्रथाएं, सड़े गले और मानव विरोधी रिवाज़ तथा अवैज्ञानिक मान्यताएं कुछ ऐसे कारक हैं जो मनुष्य, मनुष्यता और समाज के लिए अमंगलकारी हैं. सत्साहित्य इन पर चोट करता है. वह किसी भी प्रकार के पाखण्ड का विरोधी होता है - चाहे वह धार्मिक गुरुओं का पाखण्ड हो या समाज के नेताओं का. बहुत साधारण सी दिखने वाली घटनाओं के सहारे पवित्रा अग्रवाल ने 'फूलों से प्यार' में इन तमाम अमंगलकारी तत्वों पर तार्किकता की चोट की है. दीपावली पर जूआ खेलने की छूट को उन्होंने 'सच्चा दोस्त' में निशाना बनाया है, तो तम्बाकू पीने की लत पर 'जन्मदिन का उपहार' में वार किया है. 'खाने के रंग' में गलत आदतों पर प्रहार किया गया है, तो अन्यत्र हड़ताल की प्रवृत्ति पर चोट की गयी है. यह सारा अमंगलनाश का कार्य लेखिका किसी कुशल कुम्हार की तरह सहार सहार कर चोट देते हुए करती हैं. इसके बाद वे, बाल पाठक के चित्त को एक खूबसूरत पात्र का आकार देते हुए उस पर मूल्यों की रंगकारी करती हैं. इन मूल्यों में सत्य, ईमानदारी, पर्यावरण संरक्षण, कौटुम्बिक स्नेह, रिश्ते नातों की मर्यादा, कर्त्तव्य निष्ठा, निर्भीकता और मानव प्रेम जैसे सन्देश निहित हैं. 

साफ़ सुथरे और तर्क पर आधारित बाल साहित्य के अकाल के ज़माने में 'फूलों से प्यार' की बालकथाएँ महकती बयार का सुख देती हैं. इन कहानियों को प्राइमरी स्तर के सब बच्चों तक पहुंचना चाहिए.

समीक्षित पुस्तक : 'फूलों से प्यार'(बाल कहानियां).
लेखिका : पवित्रा अग्रवाल.
प्रथम संस्करण : २०१२.
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली.
मूल्य : १५० रुपये(सजिल्द).
पृष्ठ : ८०

सोमवार, 16 सितंबर 2013

एकप्राण



मौलवी ने उठाई सन्टी
और दे मारी मजनू की पीठ पर
लैला चीख कर बेहोश हो गई
लाल – नीले निशान उभर आए
अंग अंग पर

प्यार इसी को कहते हैं

-पूर्णिमा शर्मा 

बेटी की विदाई

तीस साल पहले
मेरी माँ ने
कहा था मेरे कान में-
बेटी, आज तक तुम पराया धन थी 
आज हम पराये हुए,
और समझाया था पिता ने 
लड़कियों का कोई अतीत नहीं होता 

पीहर की दहलीज लांघते ही 
जला दिया था मैंने 
अपने कल को, 
आज भी 
जल रही है उन सपनों की चिता 
पिता के आँगन में 

तीस बरस से 
मैं सींचती रही हूँ 
पीपल का एक पेड़,
हर शनिवार को कच्चे धागे लपेटकर 
करती रही हूँ परिक्रमा 
और उगाती रही हूँ 
रिश्तों की लहलहाती लताएं 

मेरे भीतर 
एक माँ रहती है 
और एक बेटी भी
बेटी को जाना है दहलीज के पार; 
और माँ कहना नहीं चाहती -  
आज तक तुम पराया धन थी 
आज हम पराये हुए 
लड़कियों का कोई अतीत नहीं होता
जलाना होगा तुम्हे अपना कल

नहीं! 
मैं खड़ी हूँ 
अपनी बेटी के साथ; 
मैं उसका कल हूँ; 
और मैं खुद को जलाने की इजाज़त नहीं दूँगी !!

- पूर्णिमा शर्मा