मंगलवार, 1 मार्च 2016

नई सदी का हिंदी आत्मकथा साहित्य

नई सदी के हिंदी आत्मकथा साहित्य पर चर्चा करते समय सबसे पहले तो यह तथ्य विचारणीय है कि नई सदी या उसके आरंभ से ठीक पूर्व के दशक में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में आत्मकथा साहित्य ने नई करवट ली. इससे पहले यह समझा जाता था कि आत्मकथा का चरितनायक कोई ‘महापुरुष’ होना चाहिए. शायद यही कारण है कि आत्मकथाएँ अपेक्षया कम लिखी जाती थीं. लेकिन 1990 के दशक के आसपास महान नायकत्व का यह महा-आख्यान टूटा और कल तक जिन्हें लघु, तुच्छ, हीन कहकर हाशिए पर रखा गया था उन अति साधारण मनुष्यों ने अपनी अस्मिता की खोज करते हुए अभिव्यक्ति के जो मार्ग तलाशे उनमें उनकी पीड़ा, कड़वाहट, खिन्नता, संघर्ष और गुस्से को व्यक्त करने के लिए आत्मकथा सबसे उपयुक्त विधा सिद्ध हुई. स्त्री, दलित, आदिवासी आदि समुदायों से आने वाले इन लेखकों के भीतर सदियों का जो हाहाकार समाया हुआ था उसे व्यक्त होने के लिए किसी काल्पनिक वृत्त की आवश्यकता नहीं थी, उसकी सीधी, सच्ची, बेबाक अभिव्यक्ति ने आत्मकथा का जो रास्ता चुना वह उसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता की स्वयं गारंटी है.

यहाँ मैं केवल दो साहित्यकारों की आत्मकथा का उल्लेख करना चाहूँगी. एक हैं मैत्रेयी पुष्पा जिनकी आत्मकथा दो खंडों में आ चुकी है – ‘कस्तूरी कुंडल बसै’(2003) और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ (2008). दूसरे रचनाकार हैं डॉ. तुलसीराम. इनकी आत्मकथा भी दो खंडों में है – ‘मुर्दहिया’ (2010) और ‘मणिकर्णिका’ (2014). ये दोनों ही रचनाकार स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के अग्रणी हस्ताक्षर हैं और इनकी आत्मकथाएँ केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे किसी एक स्त्री या किसी एक दलित के जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं, बल्कि इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि विशिष्ट होते हुए भी अपने संघर्ष के धरातल पर ये दोनों ही लेखक क्रमशः ‘सामान्य स्त्री’ और ‘सामान्य दलित’ हैं. साधारणीकरण की पहली शर्त ही यह है कि आलंबन अपने वैशिष्ट्य को छोड़कर इस तरह सर्वसाधारण बन जाए कि आलंबन-धर्म का संप्रेषण सहज संभव हो. इस कसौटी पर मैत्रेयी पुष्पा और डॉ. तुलसीराम की ये आत्मकथाएँ एकदम खरी हैं क्योंकि मैत्रेयी पुष्पा यहाँ ‘व्यक्ति मैत्रेयी पुष्पा’ नहीं हैं बल्कि उनका ‘स्त्री होना’ पूरी गाथा के केंद्र में है. इसी प्रकार डॉ. तुलसीराम यहाँ ‘व्यक्ति तुलसीराम’ के रूप में केंद्र में नहीं हैं बल्कि अपने पूरे समुदाय के ‘दालित्य-भाव’ को अग्रप्रस्तुत करते हैं. अर्थात पहले की, महापुरुषों की, आत्मकथाओं की तुलना में 21वीं सदी के इन रचनाकारों की आत्मकथाएँ साधारण स्त्री और साधारण दलित की ऐसी आत्मकथाएँ हैं जिनमें निहित स्त्री-पीड़ा और दालित्य-भाव आलंबन-धर्म के रूप में साधारणीकृत होकर पाठक को विचलित करते हैं. ये आत्मकथाएँ प्रेरणा का आदर्श स्थापित करने के लिए नहीं हैं बल्कि परिवर्तन की बेचैनी पैदा करने के लिए हैं. ऐसे अनेक उदाहरण दोनों आत्मकथाओं से दिए जा सकते हैं जहाँ ये रचनाकार अपने आत्म को अनावृत करने के बहाने समाज के घिनौने चेहरे का पर्दाफाश करते हैं. इसलिए, मैत्रेयी पुष्पा और तुलसीराम का आत्मकथा-लेखन केवल रचनाकार का आत्मालोचन नहीं है बल्कि अपने आपको खतरे में डालकर की गई निर्मम समाज-समीक्षा है.

‘कस्तूरी कुंडल बसै’ में लेखिका का मुख्य उद्देश्य अपने पारिवारिक और दांपत्य जीवन की सच्चाई का बयान करना भर नहीं है. बल्कि जैसा की अमरीक सिंह दीप कहते हैं, ‘मुख्य मुद्दा तो पुरुषवादी व्यवस्था द्वारा स्त्री पर लादी गई गुलामी से मुक्ति और स्त्री सशक्तीकरण का ही है. बेशक इस आत्मकथा में स्त्री के अंतर्जगत के कई ऐसे अछूते स्थलों, कई ऐसे गुप्त गृहों और उनमें रखे बक्से, पिटारियों और पोटलियों से पाठक का साक्षात्कार होता है जहाँ अभी तक कोई कोलंबस नहीं पहुंचा. इसके लिए लेखिका ने अपनी कमजोरियों से भी जमकर मुठभेड़ की है.’ दूसरे भाग ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में मैत्रेयी पुष्पा ने पत्नी-भाव और स्त्री-भाव के जिस द्वंद्व को उभारा है वह भारतीय समाज के मूलभूत द्वंद्व का प्रतिबिंब है. एक स्त्री के रूप में इस आत्मकथा की नायिका को बंधन रास नहीं आते, बंधनों में वह छटपटाने लगती है. लेकिन पुरुष मानसिकता इस स्त्री मानस को समझने के लिए तैयार नहीं है और यहीं नैतिकता की पारंपरिक धारणा और उसके औचित्य पर स्त्री-कोण से विमर्श उभरकर सामने आता है. अस्मिता और नैतिकता के द्वंद्व में लेखिका किसी आदर्श को नहीं ओढ़तीं और उनकी गतिविधियाँ पारंपरिक स्त्री संहिता के प्रतिवाद की तरह उभरती हैं. मानना होगा कि मैत्रेयी पुष्पा ने डॉ. सिद्धार्थ के साथ अपने संबंधों को लगभग आत्महंता बेबाकी के साथ स्वीकार किया है. यहाँ सबसे दिलचस्प और नाटकीय संबंध है पति और मैत्रेयी के बीच, जो पत्नी की सफलताओं पर गर्व और यश को लेकर उल्लसित हैं मगर सम्पर्कों को लेकर‘मालिक’ की तरह सशंकित. एक उदाहरण देकर मैं दूसरे रचनाकार की ओर बढूंगी. उद्धरण इस प्रकार है –

‘’डॉक्टर सिद्धार्थ!
मेरा हाथ पकड़कर उठाते हुए. पता नहीं कितना अपनत्व था, कितनी चुनौती थी?
या परीक्षाकाल दोनों का?
हाथ पकड़कर खींचने वाला मीत ... मैंने अनुमति के लिए पति की ओर देखा नहीं. अपना निर्णय अपने हाथ में ले लिया, खतरों के बारे में सोचा नहीं.
मैं नाच रही थी किसी के साथ-साथ, अनगढ़ और आदिम सा नाच ... जैसे मेरे जीवन-मूल्यों का हिस्सा यह भी हो. जब-जब मेरा पाँव डॉ. सिद्धार्थ के पाँव पर पड़ जाता, वे मुस्कुराकर मुझे संभाल लेते. यह परिचय का अगला चरण, उस जानकारी का मुझे कोई इल्म न था.’’ 

बकौल जगदीश्वर चतुर्वेदी, “मैत्रेयी पुष्पा अपनी आत्मकथा में दोहरा जीवन, दोहरी अस्मिता, दुरंगे मूल्य, दुरंगे विचार, दोहरा सामाजिक जीवन आदि को बेपर्दा करती हैं. इस तरह वे दो मैं, दो अस्मिता, दो तरह का जीवन, दोहरी जिम्मेदारियाँ, दो तरह की चेतना, दो तरह के सामंजस्यहीन विचार और भावबोध को व्यक्त करने में सफल रही हैं. वे अपने जीवन में व्याप्त इस ‘दो’ को व्याख्या के जरिए बताती जाती हैं और उसके अनुभवों को ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ में पेश करती हैं.’’ 

अब कुछ बात डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा पर. ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ दोनों ही श्मशान घाट हैं. ‘मुर्दहिया’ इस अर्थ में अन्य दलित आत्मकथाओं से अलग है कि इसमें कथानायक ने स्वयं ही अपने स्थान पर अपने परिवेश और लोकजीवन को नायकत्व प्रदान किया है. वे मानते हैं कि उस दलित बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुःख-दर्द अपने अंदर लिए ‘मुर्दहिया’ में दफ़न हैं. यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक मुर्दहिया ही होगा. मुर्दहिया के नारकीय जीवन का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि वहाँ के दलितों को भुखमरी की स्थिति में चूहे मारकर खाने पड़ते हैं और चूहों के बिलों को खोदकर प्राप्त किए गए अनाज पर भी गुजारा करना पड़ता है. बिना टिप्पणी के एक उद्धरण प्रस्तुत है –

“शुरू-शुरू में जब तेज बारिश से कट चुकी फसलों वाले खेतों में पानी भर जाता, तो उनके अंदर बिल बनाकर रहने वाले हजारों चूहे डूबते हुए पानी की सतह पर ऊपर आ जाते थे. गाँव के बच्चे तरकुल या खजूर के पत्तों से बनी झाड़ू लेकर उन चूहों पर टूट पड़ते थे तथा उन्हें मार-मारकर ढेर सारा घर लाते. मैं भी अन्य बच्चों के साथ टिन की बाल्टी तथा झाडू लेकर जाता और झाडू से चूहों को मार-मारकर बाल्टी भर जाने पर उन्हें घर लाता. इन चूहों को पहले घर के लोग रहट्ठा यानी अरहर का डंठल जलाकर उस पर खूब सेंकते थे. इस तरह चूहों के बाल बिल्कुल जल जाते थे. इसके बाद उन्हें साफ़ करके बोटी-बोटी काट दिया जाता. फिर मसाला डालकर उसका मांस पकाकर खाया जाता था. इस तरह के मैदानी चूहों का मांस बहुत स्वादिष्ट होता था. उन बरसाती कड़की के दिनों में इस प्रकार के चूहे जब तक उपलब्ध रहते सभी दलित दाल-सब्जी के बदले उन्हीं से गुजारा करते थे. बरसाती मछलियाँ भी उस गरीबी में बड़ी राहत पहुँचाती थीं, किंतु वे कुछ देर से नदी-नालों में उपलब्ध होती थीं. जहाँ तक चूहों का सवाल है, वे जौ और गेहूं की बालियाँ अकसर काटकर खेतों में ही अपनी गहरी-गहरी बिलों में ढेर सारा जमाकर लेते. गाँव के मेरे जैसे बच्चे उन बिलों को खोदकर उससे बालियाँ निकाल लेते थे. एक-एक बिल से एक से लेकर दो किलो तक अनाज निकल जाते थे.”

ऐसे जीवित श्मसान से भागकर तुलसीराम बनारस पहुँचते हैं. जहाँ वे क्रमशः अंधविश्वासी मान्यताओं से लेकर ईश्वर तक से मुक्त होते हैं. इस मुक्तियात्रा में बुद्ध और मार्क्स उन्हें रास्ता दिखाते हैं और वे ऐसी विश्व-दृष्टि से अपने आपको जोड़ते हैं जिसके चलते उनका व्यक्तिगत दुःख दुनिया के दुःख में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठता है. ‘मुर्दहिया’ में जो विचार सुप्त अवस्था में थे, वे ‘मणिकर्णिका’ में विकसित हुए. चाहे क्रांति का सपना हो या एक तरफ़ा प्यार. दोनों का लेखक ने खूब मजा लिया और उसके बाद वे दिल्ली चले गए. यदि जीवित रहते तो शायद दिल्ली के अनुभवों को भी तीसरे खंड में लिखते. फिलहाल इतना ही कि ‘मणिकर्णिका’ बनारस के दोहरे बौद्धिक चरित्र का तो खुलासा करती ही है जिसमें छुआछूत और सर्वसमावेशी औघड़पना एक साथ विद्यमान हैं, साथ ही समसामयिक चुनावी राजनीति से लेकर नक्सलवाद तक की भी पड़ताल करती है. 

अभिप्राय यह है कि मैत्रेयी पुष्पा और डॉ. तुलसीराम दोनों ही की आत्मकथाएँ ‘आत्म’ के बहाने समाज को आईना दिखाने वाली उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियाँ हैं और नई सदी के तमाम मुख्य रुझानों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
-    डॉ. पूर्णिमा शर्मा