शुक्रवार, 6 नवंबर 2015

26 जनवरी का अर्थ

मेरी माँ के लिए
26 जनवरी
एक राष्ट्रीय पर्व था –
जनता के अपने राज का पर्व,
संविधान की वर्षगाँठ का पर्व,
राम-राज्य के सपने का पर्व .

मेरे लिए  
26 जनवरी
राष्ट्रीय अवकाश का दिन था –
परेड का दिन, मिठाई बांटने का दिन,
चादर तानकर सोने का दिन .

मेरी बेटी के लिए
26 जनवरी
राष्ट्रीय असुरक्षा का उत्सव है,
सबके एक साथ –
भयभीत होने का उत्सव
विस्फोट और आतंक से घिरने का उत्सव,
महान लोक के कमज़ोर तंत्र का उत्सव .

क्या इसी को पीढ़ी-अंतराल कहते हैं?
-पूर्णिमा शर्मा 

गर्भ प्रश्न

“नहीं, मम्मी, नहीं.”
-                         गर्भ में से चीखती है एक अजन्मी लड़की
और दस्तक देती है माँ के दिलो-दिमाग पर,
पूछती है –
“मम्मी, मेरे ही साथ क्यों हो रहा है ऐसा?
क्यों हो रही है मुझे ही मारने की साज़िश?
जन्म से पहले क्यों पढ़े जा रहे हैं मृत्यु के मंत्र?
क्यों मिलाया जा रहा है तुम्हारे गर्भजल में जानलेवा ज़हर?
क्यों बढ़ रहे हैं दस्तानों वाले हाथ मेरी ओर वक़्त से पहले?
क्यों चीर रहे हैं तुम्हारे गर्भ को तलवार बनकर डाक्टर के औज़ार?
अस्पताल की चिमटियां मुझे दबोच रही हैं क्यों
नरक की यमफाँस बनकर?
तुम कुछ बोलती क्यों नहीं मम्मी?
आखिर तुम भी तो एक लड़की हो!
तुम्हें मुझसे इतनी नफरत क्यों है?
मुझे जीने का अधिकार क्यों नहीं?
मेरा अपराध क्या है, मम्मी?”

पूछती है गर्भ में मारी जाती हुई बेटी
और जवाब देने की कोशिश करती है
आपरेशन टेबल पर बेहोशी में जाती हुई माँ –

“मेरी बेटी,
हम निरपराधों का यही अपराध है
कि हम लडकियां हैं .
मेरे जन्म पर भी घर में स्यापा छा गया था,
थाली नहीं बजाई थी किसी ने,
जिस तरह लड़कों के जन्म पर बजाते हैं.
तेरे जन्म पर भी स्यापा ही होना था .
तू तो मर रही है
बस आज की मौत,
तू क्या जाने
तेरी माँ ने जन्म से आज तक
कितनी मौतें मरी हैं
और न जाने कितनी मौतें और मरनी हैं -
तेरी दादियों, नानियों की तरह,
क्योंकि यह दुनिया -                                                                                                       
दादाओं की है, दादियों की नहीं .
नानाओं की हैं, नानियों की नहीं .
पिताओं की हैं, मम्मियों की नहीं .”

और दहल उठता हैआपरेशन थियेटर
बेहोश मम्मी की ह्रदय विदारक
चीख से .
डस्टबिन में फेंकी जाती हुई
बेटी का दिल धड़कता है
आखिरी बार –


“नहीं, मम्मी, नहीं”.

- पूर्णिमा शर्मा 

शैतान पड़ोसी

हम सोये थे बेखबर
पड़ोसी ने गिरा दी दोनों बाजुओं की दीवारें;
और खुद बुला लाया पंचों को .
हम चुप हो गए,
पंचों को परमेश्वर मानकर
फिर सो गए .
                     
पड़ोसी पूरा शैतान था
हर रात चुपके-चुपके
कभी नींद में तेज़ाब डालता,
कभी दीवारों में सेंध लगाता
और कभी कंगूरों पर पत्थर
मारकर भाग जाता .

हमें गुस्सा आता .
हम आग बबूला होते .
हम बाँहें चढ़ा लेते .
वह फिर पंचों को बुला लाता .

पंच आते; निरीक्षण करते .
सहानुभूति जताते
और हमें संयम का उपदेश देकर
चले जाते .
हम अच्छे बच्चे की तरह
सद्भावना में डूबने-उतराने लगते.

पर इस बार तो हद हो गई .
हम बैठे थे सत्यनारायण की पूजा में
और पड़ोसी अपने कीचड के पाँव लेकर
हथौड़े थामे घुस आया पूजागृह में .

पंच अब भी हमें संयम के

उपदेश दे रहे हैं !

- पूर्णिमा शर्मा 

ईश्वर और अल्लाह के देश में एक औरत

एक शाम पहुँची वह
अपने घर
कई घंटे देर से
रस्ते में फँस गई थी .
घर पहुंची
तो दौड़ कर बेटा और बेटी
डरे हुए कबूतर की तरह
चिपक गए उसकी गोद में,
पति बौखलाया हुआ सा
आया झपटता हुआ –
भौंहे तनी हुई थीं
माथे पर बल थे
चेहरा पीला पड़ गया था
लगता था
खून नसों में जम गया है .

“तुम आ गईं?
इतनी देर कैसे हो गई?
कहाँ रह गई थीं?
सब ठीक तो है ना?
तुम्हें कुछ हुआ तो नहीं?”
-    दाग दिए प्रश्न पर प्रश्न .
“सांस तो लेने दो”
-    कहा उसने .

“सॉरी,” पति बोला था –
“पर क्या करूं?
हम सबकी  सांस अटकी हुई थी.
लो पानी पीओ.
अब बोलो, कहाँ अटक गयीं थीं तुम?”

“मैं कहाँ अटकी?
बस अटक गयी थी
पुराने शहर में
दंगाई पथराव कर रहे थे,
पता नहीं किस-किस रस्ते से
आना पड़ा छिपते-छिपाते, बचते-बचाते!”

तभी सबका ध्यान गया टीवी की तरफ
रंग-बिरंगे खुशनुमा
लिबास में लिपटी
मैचिंग लिपस्टिक की
मुस्कान बिखेरती हुई
न्यूज़ रीडर बता रही थी –

“मंदिर के समर्थकों और
मस्जिद के मतवालों ने
आज शहर भर में
पथराव किया, लूटपाट की.
रेल के डिब्बे में आग लगाकर
जान ले ली चालीस मासूमों की.
जवाबी कार्यवाही में मौत के घाट उतार दिए
एक सौ आठ बूढ़े, बच्चे और जवान.
दंगाई उठा ले गए
स्कूल से लौटती बच्चियों को,
खरीददारी करने गई औरतों को .”

टीवी पर दिखाए गए सारे दृश्य
एक के बाद एक
 - आग ही आग
 - धूंआँ ही धूंआँ
 - रुदन ही रुदन
 - हाहाकार चीत्कार;
और कहा गया अंत में -
“अब हालात नियंत्रण में हैं;
शहर में तनावपूर्ण शान्ति है .”

बच्चे के बार फिर चिपक गए माँ से,
पति की आँखों में भर आई फिर से दहशत,
और वह पूछती रह गई अपने आप से –
“मैं घर आ गई हूँ न?”

-पूर्णिमा शर्मा