11 जून 1897 को जन्मे राम प्रसाद बिस्मिल भारतीय
स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के प्रमुख सेनानी थे। सन् 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं॰ जगत नारायण ‘मुल्ला’ के आदेश
की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ
शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया। इसके
पूर्व सन 1915 में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर
रामप्रसाद ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे।
मैनपुरी षड्यंत्र में शाहजहाँपुर से 6 युवक शामिल
हुए थे जिनके लीडर रामप्रसाद बिस्मिल थे किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये, तत्काल फरार हो गये। जनवरी 1923 में मोतीलाल नेहरू व
देशबन्धु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली। नवयुवकों
ने तदर्थ पार्टी के रूप में रिवोल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया। सुप्रसिद्ध
क्रान्तिकारी लाला हरदयाल जी की सलाह मानकर राम प्रसाद इलाहाबाद गये और शचींद्रनाथ
सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया। ‘दि रिवोल्यूशनरी’ के नाम से
अँग्रेजी में प्रकाशित इस क्रान्तिकारी (घोषणा पत्र) में क्रान्तिकारियों के
वैचारिक चिन्तन को भली भाँति समझा जा सकता है।
पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता थी किन्तु
कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। 6 अप्रैल 1927
को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने 115 पृष्ठ के
निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए लिखा कि
यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को
उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने
व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो
अपने किये पर कोई पश्चात्ताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों
से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी
है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। फिर भी,
इनमें से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित में पश्चात्ताप प्रकट करता है
और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकता
है।
22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम
प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुर रोशन सिंह को
फाँसी का हुक्म हुआ। चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल
गयी। 16 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल ने
अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। 18 दिसम्बर 1927 को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और
सोमवार 19 दिसम्बर 1927 को प्रातःकाल 6
बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में
उन्हें फाँसी दे दी गयी।
बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी
संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी। जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रक्खा
गया और फाँसीघर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप
दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती
नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार किया।
- पूर्णिमा शर्मा
- पूर्णिमा शर्मा