मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

यह समय

कथा अधूरी है!
भाषा गूंगी !!

यह व्यंग्य का समय है!!!

                              -पूर्णिमा शर्मा 

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

रोचक शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ : 'फूलों से प्यार'

-डॉ. पूर्णिमा शर्मा

साहित्य मनोरंजन, रसास्वादन और चेतना को उद्बुद्ध करने जैसे कई काम करता है. लेकिन उसका सबसे चुनौतीपूर्ण काम शिक्षा प्रदान करने और चरित्र निर्माण करने का होता है. यह काम चुनौतीपूर्ण इसलिए है कि इसकी सिद्धि के लिए साहित्य को उपदेश का सहारा नहीं लेना है. आचार संहिताओं और नैतिक उपदेशों के स्थान पर साहित्य को कांतासम्मित उपदेश का मार्ग अपनाना होता है. विशेष रूप से बाल साहित्य इसी तकनीक को अपना कर अपनी रोचकता और सार्थकता बरकरार रख सकता है. 'फूलों से प्यार' में प्रतिष्ठित लेखिका, पवित्रा अग्रवाल ने इसी मार्ग को अपना कर रोचक घटनाओं और प्रेरक चरित्रों के माध्यम से नैतिक मूल्यों का सन्देश देने में सफलता पाई है.

यह संग्रह बच्चों के लिए लिखी गयी छोटी छोटी २५ कहानियों का संग्रह है. यह देखकर सुखद आश्चर्य होता है कि इन कहानियों में परियों, भूतों, जादूगरों, चुड़ैलों और चमत्कारों का कोई स्थान नहीं है. पवित्रा जी मानती हैं कि इन तमाम तरह के कथानकों वाली कहानियां बच्चों को यथार्थ से काटकर जीवन से दूर कर देती हैं, इसीलिए उन्होंने अपने आस-पास के वास्तविक जीवन को अपनी बाल कथाओं का आधार बनाया है. ये कहानियां इस धारणा को खंडित करती हैं कि बच्चों के लिए काल्पनिक जगत की कहानियाँ चाहिए. ये कहना बिलकुल ठीक होगा कि ठोस ज़मीनी सच्चाइयों से जुडी पवित्रा अग्रवाल की कहानियां बच्चों में तर्क शक्ति और वैज्ञानिक चेतना को स्थापित करने में समर्थ हैं. 

इन कहानियों में बच्चों का मनोविज्ञान अत्यंत सहज रूप में उभर कर सामने आया है. बच्चों की जिज्ञासा वृत्ति, अनुकरण के साथ साथ कुछ मौलिक करने की प्रवृत्ति, प्रश्न करने का स्वभाव और सच तक पहुँचने की बेचैनी इन कहानियों को विकसित करती हैं और इसी दौरान लेखिका बड़ी चतुराई से किसी होशियार माँ की तरह नैतिक शिक्षा का पाठ भी पढ़ा देती है जिसका परम उद्देश्य चरित्र निर्माण है. 

साहित्य चाहे बच्चों के लिए लिखा जाए या बड़ों के लिए, उसकी चरम सार्थकता अमंगल का नाश करने में है. अंधविश्वास, कुरीतियाँ, गलत प्रथाएं, सड़े गले और मानव विरोधी रिवाज़ तथा अवैज्ञानिक मान्यताएं कुछ ऐसे कारक हैं जो मनुष्य, मनुष्यता और समाज के लिए अमंगलकारी हैं. सत्साहित्य इन पर चोट करता है. वह किसी भी प्रकार के पाखण्ड का विरोधी होता है - चाहे वह धार्मिक गुरुओं का पाखण्ड हो या समाज के नेताओं का. बहुत साधारण सी दिखने वाली घटनाओं के सहारे पवित्रा अग्रवाल ने 'फूलों से प्यार' में इन तमाम अमंगलकारी तत्वों पर तार्किकता की चोट की है. दीपावली पर जूआ खेलने की छूट को उन्होंने 'सच्चा दोस्त' में निशाना बनाया है, तो तम्बाकू पीने की लत पर 'जन्मदिन का उपहार' में वार किया है. 'खाने के रंग' में गलत आदतों पर प्रहार किया गया है, तो अन्यत्र हड़ताल की प्रवृत्ति पर चोट की गयी है. यह सारा अमंगलनाश का कार्य लेखिका किसी कुशल कुम्हार की तरह सहार सहार कर चोट देते हुए करती हैं. इसके बाद वे, बाल पाठक के चित्त को एक खूबसूरत पात्र का आकार देते हुए उस पर मूल्यों की रंगकारी करती हैं. इन मूल्यों में सत्य, ईमानदारी, पर्यावरण संरक्षण, कौटुम्बिक स्नेह, रिश्ते नातों की मर्यादा, कर्त्तव्य निष्ठा, निर्भीकता और मानव प्रेम जैसे सन्देश निहित हैं. 

साफ़ सुथरे और तर्क पर आधारित बाल साहित्य के अकाल के ज़माने में 'फूलों से प्यार' की बालकथाएँ महकती बयार का सुख देती हैं. इन कहानियों को प्राइमरी स्तर के सब बच्चों तक पहुंचना चाहिए.

समीक्षित पुस्तक : 'फूलों से प्यार'(बाल कहानियां).
लेखिका : पवित्रा अग्रवाल.
प्रथम संस्करण : २०१२.
प्रकाशक : अयन प्रकाशन, महरौली, नई दिल्ली.
मूल्य : १५० रुपये(सजिल्द).
पृष्ठ : ८०

सोमवार, 16 सितंबर 2013

एकप्राण



मौलवी ने उठाई सन्टी
और दे मारी मजनू की पीठ पर
लैला चीख कर बेहोश हो गई
लाल – नीले निशान उभर आए
अंग अंग पर

प्यार इसी को कहते हैं

-पूर्णिमा शर्मा 

बेटी की विदाई

तीस साल पहले
मेरी माँ ने
कहा था मेरे कान में-
बेटी, आज तक तुम पराया धन थी 
आज हम पराये हुए,
और समझाया था पिता ने 
लड़कियों का कोई अतीत नहीं होता 

पीहर की दहलीज लांघते ही 
जला दिया था मैंने 
अपने कल को, 
आज भी 
जल रही है उन सपनों की चिता 
पिता के आँगन में 

तीस बरस से 
मैं सींचती रही हूँ 
पीपल का एक पेड़,
हर शनिवार को कच्चे धागे लपेटकर 
करती रही हूँ परिक्रमा 
और उगाती रही हूँ 
रिश्तों की लहलहाती लताएं 

मेरे भीतर 
एक माँ रहती है 
और एक बेटी भी
बेटी को जाना है दहलीज के पार; 
और माँ कहना नहीं चाहती -  
आज तक तुम पराया धन थी 
आज हम पराये हुए 
लड़कियों का कोई अतीत नहीं होता
जलाना होगा तुम्हे अपना कल

नहीं! 
मैं खड़ी हूँ 
अपनी बेटी के साथ; 
मैं उसका कल हूँ; 
और मैं खुद को जलाने की इजाज़त नहीं दूँगी !!

- पूर्णिमा शर्मा 

शनिवार, 6 अप्रैल 2013

"भारतीय साहित्य की प्रवृत्तियाँ" : प्रश्न डॉ. ऋषभ के, उत्तर डॉ. देवराज के.

1 अप्रैल 2013, हैदराबाद.
प्रो. देवराज (अधिष्ठाता, अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा) और प्रो. ऋषभ देव शर्मा (हैदराबाद) की फोन वार्ता : प्रश्न डॉ. ऋषभ के, उत्तर डॉ. देवराज के. 
विषय : "भारतीय साहित्य की प्रवृत्तियाँ"

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कुंभ मेला : विशिष्टता और भारतीय संस्कृति


मकर संक्रांति अर्थात 14 जनवरी 2013 से माघी पूर्णिमा अर्थात 25 फरवरी 2013 के बीच प्रयाग-इलाहाबाद में दुनिया का सबसे बड़ा मेला - कुंभ - आयोजित हो रहा है. समझा जाता है कि इस अवधि में तीर्थराज प्रयाग को लगभग दस करोड़ श्रद्धालुओं का आतिथ्य करना होगा. कहते हैं कि मेले की तैयारी और शहर के सुंदरीकरण आदि पर हजार-बारह सौ करोड़ खर्च किए गए हैं. खुशी की बात यह है कि इस बहाने बहुत सारे रोजगार के अवसर भी पैदा हुए हैं. व्यवसाय और पर्यटन उद्योग के विकास की दृष्टि से भी कुंभ पर्व का यह मेला बहुत अधिक महत्वपूर्ण है. कहने का मतलब यह है कि कुंभ मेला केवल धार्मिक ही नहीं, देशवासियों को सामाजिक और आर्थिक लाभ भी प्रदान कर रहा है. 

यह तो आपको मालूम ही है कि कुंभ मेला भारत में अलग-अलग अवसरों पर चार पवित्र स्थलों प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में लगता है. असल में, भारतीय संस्कृति का यह सबसे बड़ा पर्व नदी-उत्सव के रूप में सब प्रकार के भेदभावों से परे समस्त जन का पर्व है. याद रहे कि कुंभ पर्व में कोई जातिभेद या वर्णभेद नहीं चलता, बल्कि इसके लिए विशेष रूप से यह व्यवस्था है कि इसे सभी को मिलकर मनाना चाहिए. 

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यह पर्व मूलतः ज्ञान का पर्व है. कहना न होगा कि कुंभ पर्व नदी तट पर ऋषि–मुनियों से लेकर आम आदमी तक के धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक और सामाजिक चिंतन-मनन और विचार विमर्श की परंपरा का ही बदला हुआ रूप है. अपने मूल रूप में यह मेला व्यापक जन समागम और खुली लोकतांत्रिक चर्चा का मंच हुआ करता था. लोगों को जोड़ने वाले इस अद्भुत पर्व के लिए जिन चार स्थानों को चुना गया वहाँ प्रत्येक बारह साल में कुंभ का आयोजन होता है. अभिप्राय यह है कि कुंभ मेला हर तीन वर्ष में एक बार इन चार अलग-अलग स्थानों पर लगता है. अर्द्धकुंभ मेला हर छह वर्ष में हरिद्वार और प्रयाग में लगता है. जबकि बारह वर्ष बाद लगने वाले मेले को पूर्णकुंभ कहा जाता है. बारह पूर्णकुंभ मेलों के बाद केवल प्रयाग में हर 144 वर्ष बाद महाकुंभ मेला लगता है. पिछली बार 2001 में प्रयाग (इलाहाबाद) में महाकुंभ आयोजित हुआ था जो अगली शताब्दी में 2145 में ही पुनः आयोजित होगा. इस बीच 2003, 2004 और 2010 में क्रमशः नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में कुंभ का आयोजन हो चुका है जबकि अर्द्धकुंभ 2004 में हरिद्वार और 2007 में इलाहाबाद में आयोजित हुआ है. 2001 के महाकुंभ के बारह वर्ष बाद पड़ने के कारण 2013 का प्रयाग का कुंभ पूर्णकुंभ होगा. यह सारी गणना ग्रह-नक्षत्रों के विशिष्ट राशियों में आने, जाने, ठहरने के अनुसार की जाती है. 

कुंभ मेलों की परंपरा कितनी प्राचीन है, कहना मुश्किल है. माना यह जाता है कि किसी पुराकाल में देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्न निकाले थे जिनमें सबसे अंत में अमृत कुंभ निकला था. देवगण भय और लोभ वश असुरों को अमृत से वंचित रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने अमृत कुंभ चुरा लिया. बस फिर क्या था; युद्ध छिड़ गया. बारह दिन-रात देव और असुर लड़ते रहे. आखिर विष्णु को मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत और असुरों को वारुणी पिलानी पड़ी. देवलोक के ये बारह दिन-रात पृथ्वी लोक के बारह बरस थे. अर्थात बारह बरस तक अमृत कुंभ को लेकर छीना-झपटी चलती रही. सूर्य, चंद्र, बृहस्पति और शनि ने जी-जान से अमृत कुंभ की रक्षा की. चंद्र ने उसे छलकने से, गुरु ने चोरी होने से, शनि ने इंद्र के भय से और सूर्य ने फूटने से बचाया. फिर भी कुछ बूँदें छलक ही गईं. अमृत जहाँ जहाँ छलक कर गिरा वहाँ वहाँ ही कुंभ पर्व आयोजित होने लगे. जिन देवों ने कुंभ की रक्षा की थी उनका विशिष्ट राशियों में संचार कुंभ की तिथियों का आधार बना. जैसे गुरु के वृष राशि में और सूर्य के मकर राशि में संचार के समय प्रयाग में कुंभ मेला लगता है. 

यह तो हुई पौराणिक मान्यता. लेकिन देखा यह भी गया है कि हर 12-13 वर्ष के अंतराल पर सूर्य पर कुछ परिवर्तन घटित होते है. विस्फोट बढ़ जाते हैं. अतः कुंभ पर्व का इस ब्रह्मांडीय गतिविधि के साथ कुछ-न-कुछ संबंध अवश्य प्रतीत होता है जिसकी पुष्टि संभवतः आने वाले समय में हो सके. 

दरअसल नदी स्नान और नदी मेलों की परंपरा का विकास भारतीय संस्कृति के विकास के साथ साथ ही हुआ है. इतिहासकार एस.बी.राय ने दस हजार ई.पू. तक अनुष्ठानिक नदी स्नान के प्रमाण खोज निकाले हैं और यह भी माना है कि कुंभ मेलों के वर्तमान स्वरूप की नींव 300 ई.पू. में रखी गई. हालांकि इससे पहले 600 ई.पू. में बौद्ध लेखों में नदी मेलों का उल्लेख मिलता है. आगे चलकर सम्राट हर्षवर्धन के समय चीनी यात्री ह्वेन सांग के साक्ष्य से 600 ई. में प्रयाग के कुंभ का प्रमाण मिलता है. 10 वीं शताब्दी से विभिन्न अखाड़ों का गठन शुरू हुआ – निरंजनी, जूना, कनफटा योगी आदि. वर्तमान में अखाड़ों का विशिष्ट शिष्टाचार कुंभ मेलों का एक रोचक पहलू रहता है. 

अगर इतिहास को खंगाल कर देखें तो पाता चलता है कि कुंभ मेलों ने कई तरह की हिंसा भी देखी है. 1690 में में नासिक मेले में और 1760 में हरिद्वार मेले में हजारों लोग मारे गए. इस अराजकता से पार पाने के लिए 1780 में ब्रिटिशों ने मठवासी समूहों और अखाड़ों के शाही स्नान की व्यवस्था की जो अब भी चली आ रही है. 

भगदड़ और दुर्घटनाओं का भी अपना इतिहास है. उदाहरण के लिए 1820 में हरिद्वार में और 1954 में प्रयाग में भगदड़ मची और सैकड़ों लोग मारे गए. 2003 में नासिक के कुंभ में भी अनेक भक्त मारे गए. हुआ यह था कि पवित्र स्नान के समय तीस हजार की भीड़ के बीच एक साधु ने चाँदी के सिक्के उछाल दिए और भगदड़ मच गई. कहने का मतलब यह है कि दुनिया के सबसे बड़े भीड़-भाड़ वाले इस मेले की व्यवस्था न तो पहले आसान थी और न आज. 

आपसी संघर्ष और दुर्घटना के अलावा एक भीषण नरसंहार की स्मृति भी कुंभ मेले से जुडी है. तुगलक सुल्तानों के राज्यकाल में खुरासान के अमीर ज़फर तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया और उनकी धार्मिक सहिष्णुता का दंड देने के लिए उसने 1398 में दिल्ली को ध्वस्त करने के बाद हरिद्वार पहुँचकर कुंभ मेले में मार-काट मचाई थी. वह स्नानपूर्व वैशाखी पर हरिद्वार आया था और कुंभ मेले में नरसंहार के साथ साथ उसने तत्कालीन नगर मायापुर को भी तबाह कर दिया था. 

लेकिन दुर्घटनाएँ हों, आपसी संघर्ष हों, नरसंहार हो, तबाही मचे – पर मेला थमता नहीं है. और वह भी कुंभ मेला. जनता का सैलाब दिशा दिशा से आकर संगम पर मिलता है. प्रयाग स्वयं संगम का पर्याय है. तीर्थराज प्रयाग गंगा-यमुना के साथ ज्ञान और कला की अधिष्ठात्री सरस्वती के संगम का पुण्य स्थल है. दिशा दिशा से आते हुए आबालवृद्ध नर-नारी, मोक्ष के चाहने वाले श्रद्धालु जन, ज्ञान-विज्ञान और ज्योतिष के पंडित और महापंडित, दिव्य साधनाओं में जुटे हुए पूज्य महात्मा और संतजन और धर्म की दूकान चलाने वाले पाखंडियों सहित व्यापक जन समागम तीर्थराज प्रयाग को संगम और कुंभ दोनों ही अर्थों में चरितार्थ करता है. 

यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि कुंभ मेला हमारी भारतीय संस्कृति की मूलभूत एकता का दर्शन कराने वाला मेला है. इसमें संदेह नहीं कि कुंभ मेले का एक बड़ा लक्ष्य एकता का दर्शन है. जैसा कि पंडित विद्या निवास मिश्र ने कहा है, यह एकता कोई ठोस, जड़ या सिद्ध पदार्थ नहीं, यह एकता भी एक तरल प्रक्रिया है. बर्फ और जल एक है. यह पहचान बर्फ के पिघलने पर ही तो होती है. विभिन्न साधनाओं से गुजरे हुए संत जब एक दूसरे के प्रति विनम्र होकर द्रवीभूत होकर एक दूसरे को अनुभव निवेदन करते हैं तो एकता की प्रक्रिया एक विशिष्ट प्रक्रिया हो जाती है. वे यह भी कहते हैं कि कुंभ के अवसर पर इतने असंख्य संतों के बीच में रहने का एक अर्थ है यह अनुभव कि निजता खोकर ही जीवन के विशाल प्रवाह के साथ एक हुआ जाता है. इस बहाने आम जन भी विभिन्न संप्रदायों की उपासना पद्धतियों में निहित एक ही महाभाव और परस्पर पूरकता को देख पाते हैं. 

अमरत्व प्राप्त करने की आकांक्षा मनुष्य की चरम आकांक्षा है. पूर्णकुंभ पर्व उसकी साधना का जनपथ है. सबके साथ मिलकर ही, व्यक्तिबोध को खोकर ही, पूर्णता का बोध संभव हो सकता है. इसके आगे अमरता और क्या हो सकती है! कुंभ ज्ञान और भक्ति के विविध प्रवाहों के एक साथ आ मिलने से घटित होने वाले उस रूपांतरण की भूमिका है जहाँ कुंभ और जल का भेद मिट जाता है. अहं पराहम् में विलीन हो जाता है; और लघु विराट में. इसीलिए यह कहा गया है कि कुंभ-स्नान से मोक्ष प्राप्त होता है. वास्तव में यह कोई पारलौकिक नहीं बल्कि लौकिक घटना है कि यदि अपने अहंकार से मुक्त होकर व्यक्ति खुद को व्यापक जन-प्रवाह के साथ वैसे जोड़ दे जैसे बूँद जल-प्रवाह से जुडी होती है तो यही मोक्ष है. 

इसमें दो राय नहीं कि आज के जमाने में कुंभ मेला अपने सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थ को छोड़कर व्यापक अर्थ में बाजार और मीडिया की रुचि का जमावड़ा हो गया है. निरहंकार संत समागम के स्थान पर धर्म के अखाड़ों की वर्चस्व और अहंकार की प्रदर्शनी बन गया है. गुरुओं की दूकानें लगी हैं और मुक्ति बिक रही है. सीधी-सादी ग्रामीण जनता ही नहीं राजनीति, शिक्षा, व्यापार और कला जगत के जाने कितने धुरंधर अंधविश्वास, पाखंड और प्रचार की त्रिवेणी में स्नान करके जन प्रवाह को गंदला कर रहे हैं. आवश्यकता है कुंभ पर्व की मूल भावना को समझने की. आवश्यकता है बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य, समाज और प्रकृति के संबंधों की नई व्याख्या करने की. आवश्यकता है धर्म और विज्ञान के सहयोग की नई दिशाएँ खोजने की. Ο 

[प्रसार भारती, हैदराबाद केंद्र से  22.1.2013 को महिला-संसार के अंतर्गत प्रसारित वार्ता]