शनिवार, 6 अप्रैल 2013

"भारतीय साहित्य की प्रवृत्तियाँ" : प्रश्न डॉ. ऋषभ के, उत्तर डॉ. देवराज के.

1 अप्रैल 2013, हैदराबाद.
प्रो. देवराज (अधिष्ठाता, अनुवाद एवं निर्वचन विद्यापीठ, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा) और प्रो. ऋषभ देव शर्मा (हैदराबाद) की फोन वार्ता : प्रश्न डॉ. ऋषभ के, उत्तर डॉ. देवराज के. 
विषय : "भारतीय साहित्य की प्रवृत्तियाँ"

गुरुवार, 24 जनवरी 2013

कुंभ मेला : विशिष्टता और भारतीय संस्कृति


मकर संक्रांति अर्थात 14 जनवरी 2013 से माघी पूर्णिमा अर्थात 25 फरवरी 2013 के बीच प्रयाग-इलाहाबाद में दुनिया का सबसे बड़ा मेला - कुंभ - आयोजित हो रहा है. समझा जाता है कि इस अवधि में तीर्थराज प्रयाग को लगभग दस करोड़ श्रद्धालुओं का आतिथ्य करना होगा. कहते हैं कि मेले की तैयारी और शहर के सुंदरीकरण आदि पर हजार-बारह सौ करोड़ खर्च किए गए हैं. खुशी की बात यह है कि इस बहाने बहुत सारे रोजगार के अवसर भी पैदा हुए हैं. व्यवसाय और पर्यटन उद्योग के विकास की दृष्टि से भी कुंभ पर्व का यह मेला बहुत अधिक महत्वपूर्ण है. कहने का मतलब यह है कि कुंभ मेला केवल धार्मिक ही नहीं, देशवासियों को सामाजिक और आर्थिक लाभ भी प्रदान कर रहा है. 

यह तो आपको मालूम ही है कि कुंभ मेला भारत में अलग-अलग अवसरों पर चार पवित्र स्थलों प्रयाग, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में लगता है. असल में, भारतीय संस्कृति का यह सबसे बड़ा पर्व नदी-उत्सव के रूप में सब प्रकार के भेदभावों से परे समस्त जन का पर्व है. याद रहे कि कुंभ पर्व में कोई जातिभेद या वर्णभेद नहीं चलता, बल्कि इसके लिए विशेष रूप से यह व्यवस्था है कि इसे सभी को मिलकर मनाना चाहिए. 

ध्यान देने वाली बात यह भी है कि यह पर्व मूलतः ज्ञान का पर्व है. कहना न होगा कि कुंभ पर्व नदी तट पर ऋषि–मुनियों से लेकर आम आदमी तक के धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक और सामाजिक चिंतन-मनन और विचार विमर्श की परंपरा का ही बदला हुआ रूप है. अपने मूल रूप में यह मेला व्यापक जन समागम और खुली लोकतांत्रिक चर्चा का मंच हुआ करता था. लोगों को जोड़ने वाले इस अद्भुत पर्व के लिए जिन चार स्थानों को चुना गया वहाँ प्रत्येक बारह साल में कुंभ का आयोजन होता है. अभिप्राय यह है कि कुंभ मेला हर तीन वर्ष में एक बार इन चार अलग-अलग स्थानों पर लगता है. अर्द्धकुंभ मेला हर छह वर्ष में हरिद्वार और प्रयाग में लगता है. जबकि बारह वर्ष बाद लगने वाले मेले को पूर्णकुंभ कहा जाता है. बारह पूर्णकुंभ मेलों के बाद केवल प्रयाग में हर 144 वर्ष बाद महाकुंभ मेला लगता है. पिछली बार 2001 में प्रयाग (इलाहाबाद) में महाकुंभ आयोजित हुआ था जो अगली शताब्दी में 2145 में ही पुनः आयोजित होगा. इस बीच 2003, 2004 और 2010 में क्रमशः नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में कुंभ का आयोजन हो चुका है जबकि अर्द्धकुंभ 2004 में हरिद्वार और 2007 में इलाहाबाद में आयोजित हुआ है. 2001 के महाकुंभ के बारह वर्ष बाद पड़ने के कारण 2013 का प्रयाग का कुंभ पूर्णकुंभ होगा. यह सारी गणना ग्रह-नक्षत्रों के विशिष्ट राशियों में आने, जाने, ठहरने के अनुसार की जाती है. 

कुंभ मेलों की परंपरा कितनी प्राचीन है, कहना मुश्किल है. माना यह जाता है कि किसी पुराकाल में देवताओं और असुरों ने समुद्र मंथन करके चौदह रत्न निकाले थे जिनमें सबसे अंत में अमृत कुंभ निकला था. देवगण भय और लोभ वश असुरों को अमृत से वंचित रखना चाहते थे. इसलिए उन्होंने अमृत कुंभ चुरा लिया. बस फिर क्या था; युद्ध छिड़ गया. बारह दिन-रात देव और असुर लड़ते रहे. आखिर विष्णु को मोहिनी रूप धारण कर देवताओं को अमृत और असुरों को वारुणी पिलानी पड़ी. देवलोक के ये बारह दिन-रात पृथ्वी लोक के बारह बरस थे. अर्थात बारह बरस तक अमृत कुंभ को लेकर छीना-झपटी चलती रही. सूर्य, चंद्र, बृहस्पति और शनि ने जी-जान से अमृत कुंभ की रक्षा की. चंद्र ने उसे छलकने से, गुरु ने चोरी होने से, शनि ने इंद्र के भय से और सूर्य ने फूटने से बचाया. फिर भी कुछ बूँदें छलक ही गईं. अमृत जहाँ जहाँ छलक कर गिरा वहाँ वहाँ ही कुंभ पर्व आयोजित होने लगे. जिन देवों ने कुंभ की रक्षा की थी उनका विशिष्ट राशियों में संचार कुंभ की तिथियों का आधार बना. जैसे गुरु के वृष राशि में और सूर्य के मकर राशि में संचार के समय प्रयाग में कुंभ मेला लगता है. 

यह तो हुई पौराणिक मान्यता. लेकिन देखा यह भी गया है कि हर 12-13 वर्ष के अंतराल पर सूर्य पर कुछ परिवर्तन घटित होते है. विस्फोट बढ़ जाते हैं. अतः कुंभ पर्व का इस ब्रह्मांडीय गतिविधि के साथ कुछ-न-कुछ संबंध अवश्य प्रतीत होता है जिसकी पुष्टि संभवतः आने वाले समय में हो सके. 

दरअसल नदी स्नान और नदी मेलों की परंपरा का विकास भारतीय संस्कृति के विकास के साथ साथ ही हुआ है. इतिहासकार एस.बी.राय ने दस हजार ई.पू. तक अनुष्ठानिक नदी स्नान के प्रमाण खोज निकाले हैं और यह भी माना है कि कुंभ मेलों के वर्तमान स्वरूप की नींव 300 ई.पू. में रखी गई. हालांकि इससे पहले 600 ई.पू. में बौद्ध लेखों में नदी मेलों का उल्लेख मिलता है. आगे चलकर सम्राट हर्षवर्धन के समय चीनी यात्री ह्वेन सांग के साक्ष्य से 600 ई. में प्रयाग के कुंभ का प्रमाण मिलता है. 10 वीं शताब्दी से विभिन्न अखाड़ों का गठन शुरू हुआ – निरंजनी, जूना, कनफटा योगी आदि. वर्तमान में अखाड़ों का विशिष्ट शिष्टाचार कुंभ मेलों का एक रोचक पहलू रहता है. 

अगर इतिहास को खंगाल कर देखें तो पाता चलता है कि कुंभ मेलों ने कई तरह की हिंसा भी देखी है. 1690 में में नासिक मेले में और 1760 में हरिद्वार मेले में हजारों लोग मारे गए. इस अराजकता से पार पाने के लिए 1780 में ब्रिटिशों ने मठवासी समूहों और अखाड़ों के शाही स्नान की व्यवस्था की जो अब भी चली आ रही है. 

भगदड़ और दुर्घटनाओं का भी अपना इतिहास है. उदाहरण के लिए 1820 में हरिद्वार में और 1954 में प्रयाग में भगदड़ मची और सैकड़ों लोग मारे गए. 2003 में नासिक के कुंभ में भी अनेक भक्त मारे गए. हुआ यह था कि पवित्र स्नान के समय तीस हजार की भीड़ के बीच एक साधु ने चाँदी के सिक्के उछाल दिए और भगदड़ मच गई. कहने का मतलब यह है कि दुनिया के सबसे बड़े भीड़-भाड़ वाले इस मेले की व्यवस्था न तो पहले आसान थी और न आज. 

आपसी संघर्ष और दुर्घटना के अलावा एक भीषण नरसंहार की स्मृति भी कुंभ मेले से जुडी है. तुगलक सुल्तानों के राज्यकाल में खुरासान के अमीर ज़फर तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया और उनकी धार्मिक सहिष्णुता का दंड देने के लिए उसने 1398 में दिल्ली को ध्वस्त करने के बाद हरिद्वार पहुँचकर कुंभ मेले में मार-काट मचाई थी. वह स्नानपूर्व वैशाखी पर हरिद्वार आया था और कुंभ मेले में नरसंहार के साथ साथ उसने तत्कालीन नगर मायापुर को भी तबाह कर दिया था. 

लेकिन दुर्घटनाएँ हों, आपसी संघर्ष हों, नरसंहार हो, तबाही मचे – पर मेला थमता नहीं है. और वह भी कुंभ मेला. जनता का सैलाब दिशा दिशा से आकर संगम पर मिलता है. प्रयाग स्वयं संगम का पर्याय है. तीर्थराज प्रयाग गंगा-यमुना के साथ ज्ञान और कला की अधिष्ठात्री सरस्वती के संगम का पुण्य स्थल है. दिशा दिशा से आते हुए आबालवृद्ध नर-नारी, मोक्ष के चाहने वाले श्रद्धालु जन, ज्ञान-विज्ञान और ज्योतिष के पंडित और महापंडित, दिव्य साधनाओं में जुटे हुए पूज्य महात्मा और संतजन और धर्म की दूकान चलाने वाले पाखंडियों सहित व्यापक जन समागम तीर्थराज प्रयाग को संगम और कुंभ दोनों ही अर्थों में चरितार्थ करता है. 

यहाँ यह कहना ज़रूरी है कि कुंभ मेला हमारी भारतीय संस्कृति की मूलभूत एकता का दर्शन कराने वाला मेला है. इसमें संदेह नहीं कि कुंभ मेले का एक बड़ा लक्ष्य एकता का दर्शन है. जैसा कि पंडित विद्या निवास मिश्र ने कहा है, यह एकता कोई ठोस, जड़ या सिद्ध पदार्थ नहीं, यह एकता भी एक तरल प्रक्रिया है. बर्फ और जल एक है. यह पहचान बर्फ के पिघलने पर ही तो होती है. विभिन्न साधनाओं से गुजरे हुए संत जब एक दूसरे के प्रति विनम्र होकर द्रवीभूत होकर एक दूसरे को अनुभव निवेदन करते हैं तो एकता की प्रक्रिया एक विशिष्ट प्रक्रिया हो जाती है. वे यह भी कहते हैं कि कुंभ के अवसर पर इतने असंख्य संतों के बीच में रहने का एक अर्थ है यह अनुभव कि निजता खोकर ही जीवन के विशाल प्रवाह के साथ एक हुआ जाता है. इस बहाने आम जन भी विभिन्न संप्रदायों की उपासना पद्धतियों में निहित एक ही महाभाव और परस्पर पूरकता को देख पाते हैं. 

अमरत्व प्राप्त करने की आकांक्षा मनुष्य की चरम आकांक्षा है. पूर्णकुंभ पर्व उसकी साधना का जनपथ है. सबके साथ मिलकर ही, व्यक्तिबोध को खोकर ही, पूर्णता का बोध संभव हो सकता है. इसके आगे अमरता और क्या हो सकती है! कुंभ ज्ञान और भक्ति के विविध प्रवाहों के एक साथ आ मिलने से घटित होने वाले उस रूपांतरण की भूमिका है जहाँ कुंभ और जल का भेद मिट जाता है. अहं पराहम् में विलीन हो जाता है; और लघु विराट में. इसीलिए यह कहा गया है कि कुंभ-स्नान से मोक्ष प्राप्त होता है. वास्तव में यह कोई पारलौकिक नहीं बल्कि लौकिक घटना है कि यदि अपने अहंकार से मुक्त होकर व्यक्ति खुद को व्यापक जन-प्रवाह के साथ वैसे जोड़ दे जैसे बूँद जल-प्रवाह से जुडी होती है तो यही मोक्ष है. 

इसमें दो राय नहीं कि आज के जमाने में कुंभ मेला अपने सामाजिक और सांस्कृतिक अर्थ को छोड़कर व्यापक अर्थ में बाजार और मीडिया की रुचि का जमावड़ा हो गया है. निरहंकार संत समागम के स्थान पर धर्म के अखाड़ों की वर्चस्व और अहंकार की प्रदर्शनी बन गया है. गुरुओं की दूकानें लगी हैं और मुक्ति बिक रही है. सीधी-सादी ग्रामीण जनता ही नहीं राजनीति, शिक्षा, व्यापार और कला जगत के जाने कितने धुरंधर अंधविश्वास, पाखंड और प्रचार की त्रिवेणी में स्नान करके जन प्रवाह को गंदला कर रहे हैं. आवश्यकता है कुंभ पर्व की मूल भावना को समझने की. आवश्यकता है बदली हुई परिस्थितियों में मनुष्य, समाज और प्रकृति के संबंधों की नई व्याख्या करने की. आवश्यकता है धर्म और विज्ञान के सहयोग की नई दिशाएँ खोजने की. Ο 

[प्रसार भारती, हैदराबाद केंद्र से  22.1.2013 को महिला-संसार के अंतर्गत प्रसारित वार्ता]

रविवार, 16 दिसंबर 2012

प्रजा का हालचाल


और हर रात की तरह
उस रात भी
बादशाह की रूह सफ़ेद चादर ओढकर निकली  
अपनी प्रजा का हालचाल जानने को.

तीसरे पहर तक
सब ठीक ठाक था
पर चौथा पहर शुरू होते – न होते
घुप्प अन्धेरे को चीरती
किसी के रोने की आवाज़
बेचैन करने लगी बादशाह की रूह को.
उड़ने लगी रूह सिसकियों के तार से बँधी सी.

पहचानते देर न लगी
ये सिसकियाँ थीं भागमती की
और निकल रही थीं चारमीनार के दिल से.

बादशाह की रूह काँप उठी
सौभाग्य का जो नगर बसाया था
घर की लक्ष्मी को भाग्य की लक्ष्मी बनाया था,
उसकी दहलीज सियासत का अखाडा बन गई
और छत विद्वेष से तन गई

जानकार लोग कहते हैं
उस रात से
मीनार और मंदिर हर रात सिसकियाँ भरते हैं
और बादशाह की रूह
काँप काँप जाती है
काँप काँप जाती है.

-          पूर्णिमा शर्मा 

रविवार, 18 नवंबर 2012

छाया सीता

अवधपुरी के राजमहल के
कलशों पर जलती
दीपशिखाओं के बीच
खड़ी एक छाया  सोचती है-
क्या कीर्ति और यश की
इसी दीपमाला को पाने के लिए
ली गई थी वहाँ लंका में
स्त्री जाति के  प्रेम और विश्वास की
अग्नि-परीक्षा?

और जलने लगते हैं
धरती की बेटी के तन-बदन में
सूरज, चाँद ,तारे
और अनगिनत दिये

अग्नि  में तप कर
कुन्दन हो गई थी सीता
लेकिन
पिघल कर बह गया था पति राम

कैसी दीपावली,  हे राजा राम!
तुम अकेले ही लौटे थे लंका से.

आज भी राम का नाम इतिहास में है
पर सीता उसी दिन से वनवास में है.

-पूर्णिमा शर्मा 

रविवार, 17 जून 2012

वसंत आ गया

वसंत आ गया ,
आ गईं बहुत सी यादें
आम के पेड पर बौर सी
बौराती हुईं.
जीवन की विजय की घोषणा करती हुई
नई कोंपलें इतरा उठीं.

राग के रंग में
उमंगें तैरने लगीं
पतंग बनकर
आसमान छूने की खातिर
हवा में.
धरती ने सरसों के फूलों से
सजा लिया आँगन
ऋतुओं के राजा की अगवानी में.
इतना कुछ हुआ
मन की राजधानी में .
........
लेकिन केवल यादों में.
........
वसंत
अब याद करने की ही तो चीज़ है
धूल, धुएँ और धिक्कार से भरे
किसी भी महानगर में.

काश,
मैं अपने गाँव कव्व अमराई से
थोडा सा वसंत
अपनी मुट्ठियों में भर लाती!

-पूर्णिमा शर्मा 

(यह कविता 15 फरवरी 2002  को लिखी गई थी.)

रविवार, 10 जून 2012

जयहिंद

जो भी है जहाँ,
सच्चा भारतवासी
समर्पित है
अपने राष्ट्र के लिए .

केवल कविता नहीं
इस देश का सच है यह.

सिपाही समर्पित हैं
सरहद पर,
किसान समर्पित हैं
खेत में,
मजदूर कारखानों में.
माताएँ समर्पित हैं घरों में,
बच्चे विद्यालयों में.
दुनिया के सबसे सुंदर दिमाग
प्रयोगशालाओं में -
युवक और युवतियाँ
सभी.

नया सपना -
रचेंगे नई दुनिया
अपने पसीने की
एक-एक बूँद से......;
लिखेंगे खून के एक-एक कतरे से -
जयहिंद!

-पूर्णिमा शर्मा 

[यह कविता सन २००२ ई. में लिखी गई थी.]

शनिवार, 7 अप्रैल 2012

[मेरी पुस्तक] ''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना''


''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना'' 

पुस्तक    -    उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना (2011)
प्रकाशक -     लेखनी, नई दिल्ली - 110 059 (भारत )
मूल्य      -     650 रुपए
आई एस बी एन -  978-81-920827-3-8
कुल पृष्ठ  -    284
आकार   -     डिमाई 
आवरण  -    क्लॉथ (हार्ड बाउंड)
केटेगरी   -    समीक्षा 

पुस्तक के बारे में 

स्वातंत्र्य चेतना किसी व्यक्ति, समूह, समुदाय, समाज अथवा राष्ट्र की प्रतिबंधहीन आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रति सजगता और जागरूकता का नाम है, जिसमें विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना के संबंध में स्वेच्छापूर्वक चयन का अधिकार तो शामिल है ही, अपने ऊपर अपने से इतर किसी भी अन्य शक्ति या सत्ता के नियंत्रण अर्थात पराधीनता से मुक्त होने की सजग चेष्टा और विवेक भी शामिल है। स्वातंत्र्य चेतना ही व्यक्तियों, समाजों और राष्ट्रों को पराधीनता से मुक्ति के लिए आंदोलन, संघर्ष और संग्राम की प्रेरणा देती है। आधुनिक भारतीय संदर्भ में यह चेतना19वीं-20वीं शताब्दी के सांस्कृतिक नवजागरण, समाज सुधार और स्वाधीनता संग्राम के रूप में पुंजीभूत हुई जिसे अन्य साहित्यिक विधाओं के साथ-साथ हिंदी उपन्यास ने भी आत्मसात और अभिव्यक्त किया।

डॉ.पूर्णिमा शर्मा ने अपने ग्रंथ ''उपन्यास, भाषा और स्वातंत्र्य चेतना'' में पहली बार हिंदी उपन्यासों का पाठ-विश्लेषण इसी स्वातंत्र्य चेतना की अभिव्यक्ति की दृष्टि से किया है। इस ग्रंथ में लेखिका ने उपन्यास-भाषा के विश्लेषण के पांच आधार निर्धारित किए हैं - लेखकीय टिप्पणी, संवाद, घटना, भाषण और धारणाओं का  विश्लेषण  तथा इन आधारों पर हिंदी के प्रमुख उपन्यासों की स्वातंत्र्य चेतना और उसकी अभिव्यक्ति की विशद पड़ताल की है।

यह ग्रंथ इस तथ्य की स्थापना करनेवाला अपनी तरह का प्रथम मौलिक प्रयास है कि हिंदी के कथाकारों ने प्रयोजनमूलक भाषा अथवा प्रयुक्तियों के गठन में भी अप्रतिम योगदान दिया है। व्यावहारिक हिंदी के निर्माण में साहित्यिक हिंदी की इस भूमिका पर भाषा चिंतकों को अभी विचार करना है।

साहित्य-भाषा, शैलीविज्ञान और पाठ विश्लेषण के अध्येता इस ग्रंथ की सामग्री को अत्यंत रोचक और उपादेय पाएँगे।
भूमिका

साम्राज्यवाद के राजनैतिक चेहरे और पूँजीवाद के जन-विरोधी चरित्र को सामने लाने वाले प्रेमचंद हिंदी के पहले बड़े लेखक थे। अपने सही रास्ते की तलाश के संकट और विचारधाराओं की चकाचौंध से वे बहुत जल्दी बाहर आ गए थे। इस जल्दी में भी उन्होंने काफ़ी लंबी यात्रा तय कर ली थी और इस कोने से उस कोने तक लगे दिखावटी लैंप पोस्टों को छूते हुए, सबकी सच्चाई उधेड़ कर अपना वह रास्ता बना लिया था, जिसे आज तक हिंदी कथा-साहित्य का सबसे सार्थक रास्ता माना जा रहा है। 

प्रेमचंद के 'रंगभूमि' उपन्यास पर और चाहे जो और जितने आरोप लगें, किंतु इससे किसी को इनकार नहीं होगा कि इस रचना ने बहुत बड़े कैनवस पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद और देशी राजाओं के गठजोड़, स्वाधीनता के लिए किए जाने वाले संघर्ष के तत्कालीन सभी रूपों तथा पूँजीवाद के समाजार्थिक प्रभावों को चित्रित किया। इसके पूर्व वे बेमेल विवाह, दहेज प्रथा, स्त्रियों के लिए शिक्षित होने की आवश्यकता, स्त्री के देह-व्यापार के रास्ते पर चलने के मूल में विद्‍यमान समाजार्थिक कारण, किसानों में शोषण के विरुद्‍ध खडे़ होने के लिए करवट लेती क्रांतिकारी चेतना, सहज-स्वाभाविक संबंधों में रोड़ा बनने वाले धर्म को चुनौती देती युवा-पीढ़ी आदि की झलक अपने उपन्यासों में दर्शा चुके थे। गांधीवादी विचारधारा के प्रति एक समय की उनकी एकांतिक प्रतिबद्‍धता और फिर यथार्थवादी दृष्टिबोध को आत्मसात करके अपने समय की विचारधाराओं की शव-परीक्षा की गहरी कोशिश ने भी प्रेमचंद का एक दूसरा रूप सबके सामने रखा। आधुनिक भारत ने नवजागरण के प्रभाव से व्युत्पन्न विचार-मंथन से जो सीखा था, यह उसी का यथार्थवादी विस्तार था और प्रेमचंद हिंदी कथा-साहित्य में स्वाधीनता की चेतना के सबसे बडे़ व्याख्याता थे। उनके उपन्यासों में उस काल में भारतीय जनता के हृदय में उभरी स्वातंत्र्य-चेतना की व्यापक अभिव्यक्‍ति हुई। यह वही स्वातंत्र्य-चेतना थी, जिसके स्वरूप का गठन समाज, संस्कृति, राजनीति तथा आर्थिक परिस्थितियों के विश्‍लेषण से प्राप्त तत्वों के आधार पर हुआ था और जिसे एक ओर गांधी ने, तो दूसरी ओर भगत सिंह ने अपने-अपने ढंग से पोषित किया था। प्रेमचंद के बाद के अनेक कथाकारों ने इस परंपरा को आगे बढा़या,किसी ने स्वतंत्र रूप से इसी विषय पर उपन्यास लिख कर और किसी ने अन्य विषय को केंद्र में रखते हुए भी स्वातंत्र्य-चेतना से जुड़े प्रसंग उपस्थित करके। 

ध्यान देने की बात यह है कि स्वातंत्र्य-चेतना और स्वाधीनता के लिए किए जाने वाले संघर्ष को अपनी रचनाओं में स्थान देने वाले कथाकारों ने एक ऐसी नई कथा-भाषा का निर्माण भी किया, जो इस चेतना को संभाल सके तथा अत्यंत प्रभावशाली ढंग से उसकी अभिव्यक्‍ति कर सके। यह कोई कम जोखिम भरा काम नहीं था। कारण यह, कि स्वातंत्र्य-चेतना में एक ओर जहाँ सघन रोमानियत की भूमिका होती है, वहीं असंतोष एवं आक्रोश उसके मूल तत्वों में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। यथार्थ के सपाट रास्ते पर चलते हुए एक नवीन व्यवस्था को निर्मित करने की व्याकुल रचनाशीलता उसमें बनी रहती है। कथाकार को इन सभी तत्वों और स्थितियों को आकार देने में समर्थ भाषा का गठन करना होता है। यह एक कठिन साधना है, जिसमें कथाकार को शब्दों, वाक्यों, भाषिक-चिह्नों, मुहावरों,प्रतीकों, बिंबों आदि के प्रयोग का एक सुनियोजित और सुगठित ढाँचा खडा़ करना होता है। भाषा के बीच ही उसे उन पात्रों को भी खडा़ करना होता है, जो उसके प्रत्यक्ष प्रयोक्‍ता भी हैं और उसी के बीच रह कर अपने व्यक्‍तित्व का विकास करने वाली शक्‍तियाँ भी। ऐसे पात्रों की विश्‍वसनीयता उनके द्‍वारा प्रयुक्‍त संवादों में सबसे अधिक प्रकट होती है। इसी के साथ उन प्रतिक्रियाओं में भी सामने आती है, जो इन पात्रों के व्यवहार द्‍वारा विविध संघर्षशील और संक्रमणशील दशाओं में अभिव्यक्‍त होती हैं। अंततः इन समस्त प्रतिक्रियाओं की प्रस्तुति भी भाषा के सहारे ही होती है।

स्वातंत्र्य-चेतना की भाषिक अभिव्यक्‍ति का यह इतना महत्वपूर्ण पक्ष हिंदी आलोचना में उपेक्षित है। इसका एक अर्थ यह है कि हिंदी के कथाकारों ने स्वाधीनता के संदर्भ में जो ऐतिहासिक भूमिका निभाई, उसका मूल्यांकन अब तक अधूरा ही है।

डॉ. पूर्णिमा शर्मा का इस विषय पर केंद्रित यह पूरा ग्रंथ इस संदर्भ में सचमुच एक अभाव की पूर्ति है। उन्होंने प्रेमचंद से प्रारंभ करके गिरिराज किशोर तक चुने हुए कथाकारों की उपन्यास-रचनाओं में स्वातंत्र्य-चेतना की भाषिक-अभिव्यक्‍ति का सूझबूझ के साथ विश्‍लेषण किया है और कथा-भाषा की तत्संबन्धी क्षमता की परीक्षा की है। डॉ. पूर्णिमा शर्मा के इस समालोचना-कर्म से हिंदी-समीक्षा के विकास की परंपरा में एक नवीन कड़ी जुड़ने की आशा है। 

मैं उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।
पूर्व अधिष्ठाता, मानविकी संकाय 
मणिपुर विश्‍व विद्‍यालय 
कांचीपुर, इम्फाल- ७९५ ००३ (मणिपुर)

रविवार, 22 जनवरी 2012

समकालीन कविता : सरोकार और हस्ताक्षर


यह आलेख मैंने डॉ. बी. आर अंबेडकर सार्वत्रिक विश्वविद्यालय के एम. ए. [हिंदी] के छात्रों के वास्ते ऑडियो पाठ के रूप में लिखा था जिसका रेडियो-प्रसारण भी दिसंबर 2011  में हो चुका है. मनोरंजक बात यह है कि इस आलेख कों डॉ. ऋषभदेव शर्मा ने 'सृजनगाथा' में प्रकाशन के लिए अग्रेषित किया तो जयप्रकाश मानस जी ने इसे उन्हीं के नाम से प्रकाशित कर दिया! [पूर्णिमा शर्मा]

समकालीन कविता:सरोकार और हस्ताक्षर

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

समकालीन कविता

आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में १९७० के बाद की कविता को समकालीन कविता के नाम से जाना जाता है. आरम्भ में यह एक विशेष काव्यान्दोलन का सूचक नाम था जिसमें ‘बिकमिंग’ या अपने काल विशेष में होने वाली घटनाओं के खुलासे की प्रवृति निहित थी. डॉ.विश्वम्भर नाथ उपाध्याय ने इसी आधार पर उस काल के अनेक अलग-अलग आन्दोलनों के समर्थक रचनाकारों का समवेत संकलन भी प्रकाशित किया था. समकालीनता एक ही समय में एक साथ होनेजीनेकाम करने की द्योतक है. अतः एक काव्य प्रवृति के रूप में समकालीनता बोध कों स्वीकार करना चाहें तो यह कह सकते हैं कि समकालीन कविता ऐसी कविता है जो अपने समय के साथ चलती हैहोती हैजीती है. इसे आधुनिकता बोध का अगला चरण भी कहा जा सकता है. अंतर केवल इतना है कि आधुनिकता बोध के केंद्र में आधुनिक मनुष्य है और समकालीनता बोध के केंद्र में समकाल. इससे यह समझ में आ जाता है कि  समकालीन कविता अपने समय की विसंगतिविडम्बना और तनाव से जुड़े सवालों से टकराती एक विशेष रूप और गुणधर्म वाली कविता हैजिसके लिए अपने समय में सटीक होना सर्वाधिक महत्वपूर्ण है. 

समकालीन कविता की आधारभूमि मुख्य रूप से युग परिवेश और उसके जीवन के साथ जुड़े हुए विवशतापूर्ण सवाल हैं. २० वी सदी के अंतिम तीन दशकों का भारतीय परिवेश समकालीन कविता की आधारभूमि और प्रेरणास्रोत है. १९७० के बाद के भारतीय परिवेश की सबसे महत्वपूर्ण और केंद्रीय घटना बंगलादेश के निर्माण और आपातकाल के लागू होने की है. इससे पहले चीन और पाकिस्तान के साथ हुए युद्धों  के समय हुए शक्ति-परिक्षण से स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति की वास्तविकताएं सामने आ चुकी थीं. बंगलादेश के  निर्माण के बाद  के काल में एक ओर तो विश्व में भारत का सम्मान बढ़ा लेकिन दूसरी ओर आर्थिक और राजनैतिक समस्याओं की बाढ़ सी आ गयी. गरीबीमहंगाईबेरोज़गारी  और भ्रष्टाचार से एक तरफ सामान्य जनता को दूसरी तरफ बुद्धिजीवी वर्ग को बड़ा सदमा लगा. आज़ादी के २५ साल की प्रगति कहाँ गयी. यह बड़ा सवाल भारतीयों के सामने उठ खड़ा हो गया. प्रकारांतर से आज भी यही सवाल बार बार हमारे सामने आता है कि ६५ साल की आज़ादी के बाद भी  भारतीय आम आदमी भ्रष्टाचार और असमानता को झेलने के लिए अभिशप्त क्यों हैं १९७० के बाद से ही प्रत्येक जागरूक नागरिक की चेतना को झिंझोड़ने वाले ऐसे ही सवाल समकालीन कविता के मूलभूत सरोकारों का निर्धारण करते हैं. चाहे  देश में आपातकाल लागू होने की घटना रही हो  या  सांप्रदायिक विद्वेषदंगे फसाद और आतंकवाद का लगातार फैलाव रहा हो. चाहे किसानों की आत्महत्याएं रही होंया उदारीकरण के नाम पर लगातार देश में विदेशी कम्पनियों के हस्तक्षेप का बढ़ना रहा हो बड़ी राजनैतिक पार्टियों का टूटनाक्षेत्रीय राजनीति का राष्ट्रीय राजनीति पर हावी होनालोकतांत्रिक मूल्यों पर स्वार्थी राजनीति का विजयी होनाचुनाव सुधार के बावजूद चुनावों का लोकतंत्र के नाम पर मखौल होनाराजनीति और अपराध का गठबंधन होनामीडिया और सत्ता का माफियाकरण होनापरमाणु शक्ति होने के बावजूद भारत का एक भयभीत राष्ट्र बने रहना आदि घटनाओं ने समकालीन कविता के युगधर्म का निर्धारण किया है. समकालीन कविता ने अमर होने की चिंता न करते हुएअपने समकाल की इन सारी घटनाओं को दर्ज किया है और इन पर अपनी टिप्पणी भी दी है. यही समकालीनता बोध की पहचान है. 

भारतीय समाज के युवा वर्ग पर इन तमाम घटनाओं का गहरा प्रभाव पड़ा. इस भयावह यथार्थ के बोध से युवा वर्ग में व्यापक असंतोष निराशाआक्रोशजन्य विद्रोह आदि प्रवृत्तियां  जागीं. सामान्य जनता तो परिवेश की इन यातनाओं को भोगती रही परन्तु संवेदनशील  बुद्धिजीवी वर्ग ने इनसे बचने तथा बचाने के लिए आवश्यक जागृति पैदा करने का बीड़ा उठाया. अपने असंतोष को व्यक्त करने का उनका रास्ता अत्यंत कठिन रहा. मोहभंग से उत्पन्न परिणामों का विश्लेषण करके उसके लिए ज़िम्मेदार कारण और व्यक्तियों की तलाश करके उनकी पुनरावृत्ति से राष्ट्र को बचाने की कोशिशें इसी बुद्धिजीवी वर्ग या कवि वर्ग ने की है. इन रचनाधर्मियों ने कुछ निष्कर्षों पर पहुंचकर समाजविरोधी दुरभिसंधियों के विरोध में जन संगठन और जन समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की.विद्वानों ने इन निष्कर्षों को निम्नवत सूचीबद्ध किया है :  

पहला निष्कर्ष है कि आज़ादी के बाद के समय में मोहभंग का केंद्रीय कारण  भारतीय राजनीति में मूल्यहीन स्वार्थी राजनेताओं का प्रवेश है. जनसेवा के नाम पर इस वर्ग ने भारतीय जनता को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से भयानक तौर पर नुकसान पहुंचाया है. स्वार्थसिद्धि में लिप्त सत्तालोलुप  नेताओं  की असलियत का पर्दाफ़ाश करना चाहिए. राजनैतिक क्षेत्र से प्रदूषण  को दूर करना है तो जन चेतना पैदा करके जन समर्थन प्राप्त करना अत्यंत आवश्यक है.

दूसरा निष्कर्ष है कि राजनेताओं की छत्रछाया में सरकारी अधिकारी और कर्मचारी वर्ग में व्याप्त भ्रष्टाचार को रोकना अत्यंत आवश्यक है. 

तीसरा निष्कर्ष है कि पिछड़े हुए लोगों और कमज़ोर वर्गों के शोषण और भ्रष्टाचार के बोलबाले  से भारत में आर्थिक असंतुलन पैदा हो गया है. धनी और धनी  तथा गरीब और गरीब होता जा रहा है. इस आर्थिक विषमता के प्रति जागरूक रहना आवश्यक है.

चौथा निष्कर्ष है कि कई पीढ़ियों से लगातार सब प्रकार के  शोषण का शिकार रहे हाशियाकृत समाजों जैसेदलितनारी और अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारोंसामाजिक न्यायपहचान तथा अस्तित्व के लिए संघर्ष करना आवश्यक है.

पांचवां निष्कर्ष है कि धनबल से संचालितआत्मकेंद्रितसुविधाभोगी व्यक्ति को परिवार के महत्व तथा उसके टूटने से उत्पन्न भयंकर परिणामों से अवगत कराकर 'घरकी पुनः खोज करना आवश्यक है. 

छठा निष्कर्ष है कि युद्धों और विज्ञान के नए अविष्कारों के प्रदूषण  से  मानवता को बचाने के लिए प्रकृति और उसके तत्वों को काव्यवस्तु के रूप में ग्रहण करना आवश्यक है.

इन्ही कुछ निष्कर्षों के आधार पर समकालीन प्रश्नों  के समाधान ढूँढने तथा आवश्यक जागरूकता उत्पन्न करने की दिशा में बीसवी सदी के पिछले तीन दशकों के कवियों ने कविताएं लिखी हैं. नई सदी के कवि भी इन्हीं प्रश्नों से और व्यापक स्तर पर जूझने कों अभिशप्त हैं. उनकी इस समकालीनता के औचित्य पर उंगली नहीं उठाई जा सकती. रघुवीर सहायकेदारनाथ सिंहगगन गिलअनामिकाज्ञानेंद्रपतिराजेश जोशी, उदय प्रकाशविवेक शुक्लमंगलेश डबरालअरुण कमलकात्यायनीराजीव सबरवाल आदि समकालीन कवियों में इन मुद्दों के समाधान ढूँढने की बड़ी छटपटाहट देखी जा सकती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि ये कवि केवल समकालीन कविता के प्रतिनिधि कवि ही नहीं बल्कि समकालीन कविता के प्रति पूर्णतया प्रतिबद्ध कवि भी हैं. 

यहाँ हम आपका परिचय कुछ महत्वपूर्ण समकालीन कवियों और कवयित्रियों से कराना ज़रूरी समझते हैं. 

सबसे पहले रघुवीर सहाय को लें. यों तो ये पहली बार १९५१ में अज्ञेय द्वारा संपादित 'दूसरा सप्तकके माध्यम से सामने आये. परन्तु इनकी पहचान सीढ़ियों पर धूप मेंआत्महत्या  के विरुद्धहँसो हँसो जल्दी हंसोंलोग भूल गए हैं  तथा कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ जैसे संग्रहों द्वारा पत्रकारिता को कविता में संभव करने वाले कवि के रूप में स्थापित हुई. इनकी कविता आधुनिक मनुष्य और उसके परिवेश के बीच अलगाव को व्यक्त करती है. इसके अलावा इन्होंने नई कविता के लघु मानव को आम आदमी का स्वरूप प्रदान किया. यह आम आदमी पीड़ा सहता हैपिटता हैऔर मर जाता हैलेकिन विरोध नहीं कर पाता. इस संदर्भ में उनकी ‘रामदास’ शीर्षक  कविता का रामदास आम आदमी की करुणापूर्ण विवशता का प्रतीक माना जाता है. रघुवीर सहाय ने  ‘दुनिया’  शीर्षक कविता में लिखा है- 

न कोई हँसता है न कोई रोता है
न कोई प्यार करता है न कोई नफरत 
लोग या तो दया करते हैं या घमंड
दुनिया एक फफंदियाई हुई से चीज़ हो गयी है. 

इसी प्रकार ‘बाप का बेटे से बोलना’ शीर्षक कविता में रघुवीर सहाय कहते हैं - 

अब बड़े होने पर जानता हूँ
बच्चे बड़े होते जाते हैं
लेकिन सुरक्षित नहीं होते.
अपने बच्चों की पीड़ा ही अनुभूति है पीड़ा की
अपनी खुद की पीड़ा में बहुत बनावट है
और दूसरे की पीडाएं सच्ची नहीं. 

दूसरे समकालीन कवि के रूप में हम आपको केदारनाथ सिंह के बारे में बताएँगे. ये तीसरा सप्तक के माध्यम से सामने आये और अभी बिलकुल अभीज़मीन पक रही हैयहाँ से देखो, अकाल में सारस  तथा उत्त्तर कबीर जैसी काव्य कृतियों के लिए जाने जाते हैं. केदारनाथ सिंह की कविताएं आम आदमी के विभिन्न पहलुओं के अलावा रोज़मर्रा की जिंदगी की मामूली चीज़ोंमानवीय संबंधोंप्रेमप्रकृतिसंघर्षसंकल्प और संभावना की कविताएं हैं. उनका कहना है कि "मैं भाषा को लोगों कि जुबान पर से लाने की कोशिश करता हूँ." इसीलिए उनके यहाँ आलूनमकरोटीबैलथानागडरिया और टमाटर बेचने वाली बुढिया तक का प्रवेश है. अपनी एक प्रसिद्ध कविता 'रोटीमें केदारनाथ सिंह भूख कों मनुष्य की पहली ज़रूरत बताते हुए कहते हैं -  

उसके बारे में कविता करना 
हिमाकत की बात होगी
और वह मैं नहीं करूँगा

मैं सिर्फ आपको आमंत्रित करूँगा 
कि आप आयें और मेरे साथ सीधे 
उस आग तक चलें
उस चूल्हे तक - जहाँ पक रही है
एक अद्भुत ताप और गरिमा के साथ 
समूची आग को गंध में बदलती हुई 
दुनिया की सबसे आश्चर्यजनक चीज़
वह पक रही है.

इसी प्रकार 'टमाटर बेचने वाली बुढिया' शीर्षक कविता में केदारनाथ सिंह ने टमाटरबुढ़िया  और माँ को संवेदना के धरातल पर जोड़ने का प्रयास किया है.-

एक ग्राहक आता है 
और टोकरी हिलने लगती है 

मुझे लगता है बुढिया टोकरी से
अपनी जगह बदल रही है 
मैं कांपने लगता हूँ यह देखकर
कि टमाटर इस काम में 
बुढ़िया की मदद कर रहे हैं 

अब बुढ़िया के हाथ 
टमाटरों से खेल रहे हैं 
वह एक भूरे टमाटर को धीरे से उठाती है 
और हरी पत्तियों के नीचे 
छिपा देती है माँ की तरह 

मुझे बुढ़िया की यह हरकत 
बेहद दिलचस्प लगती है 
यह माँ का एक बिलकुल नया चेहरा है
जो हरी पत्तियों के नीचे से 
झाँक रहा है. 

तीसरे समकालीन कवि के रूप में हम आपको अरुण कमल से परिचित कराना चाहेंगे जिन्हें खासतौर पर अपनी केवल धार, सबूत तथा नए इलाके में जैसे काव्य संग्रहों के लिए जाना जाता है. इनकी कविताओं में जीवन के प्रति गहरा लगाव और जन के प्रति प्रतिबद्धता दिखाई देती है. इन्होंने अपने आसपास की दुनिया को बहुत प्रेम और विश्वास से कविता में उतारा है और यह घोषित किया है कि - सारा लोहा उन लोगों काअपनी केवल धार. 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' शीर्षक कविता में अरुण कमल ने बिजली के बिना घोर अंधकार में जीवन यापन करने वाले उत्तर प्रदेश के गाँवों की व्यथा को इस प्रकार प्रकट किया है -

एक अँधेरा जो सब अँधेरे से 
बड़ा और घना है
जहाँ रात ही रात है हजारों सालों से 
बीहड़ जंगलों 
और गहरे कुओं के अँधेरे से भी 
बड़ा और घना है
छोटे दिमाग का अँधेरा .
आओ
पहले उस अँधेरे को दूर करो
आओ चलो अंधकार से बाहर 
प्रकाश की ओर 
सूर्य से भी तेज
ज्ञान का प्रकाश,
चलो प्रकाश की ओर
ज्ञान की ओर 
चलो. 
  
यहाँ चौथे समकालीन कवि के रूप में मंगलेश डबराल का उल्लेख किया जा सकता है. 'पहाड़ पर लालटेन', 'घर का रास्ताऔर 'हम जो देखते हैंमंगलेश के चर्चित काव्य संग्रह रहे हैं. उनकी कविताओं का मुख्य सरोकार लोकतंत्र से सम्बंधित है. इसीलिए वे नेता को ऐसे अत्याचारी के रूप में देखते हैं जो इन दिनों खूब लोकप्रिय है. मंगलेश मध्य वर्ग को दया की दृष्टि से देखते हैं. क्योंकि उसके कंधे पर उन्हें दुःख और आत्मा पर फफूंद के अलावा कुछ और दिखाई नहीं देता. इसके अलावा उन्होंने पहाड़ी जीवन और आत्मीय संबंधों पर प्रभावी कविताएं  रची हैं. उदाहरण के लिए 'माँ की तस्वीरशीर्षक कविता में मंगलेश ने तस्वीर और नक्काशीदार कुर्सी के माध्यम से स्त्री जीवन के यथार्थ को इस प्रकार व्यक्त किया है - 

मैं अक्सर एक ज़माने से चली आ रही
पुरानी नक्काशीदार कुर्सी पर बैठा रहा 
जिस पर बैठ कर तस्वीरें खिंचवाई जाती हैं .
माँ के चेहरे पर मुझे दिखाई देती है 
एक जंगल की तस्वीर
लकड़ीघास और  पानी की तस्वीर,
खोई हुई एक चीज़ की तस्वीर.

मंगलेश ने अपनी कविता 'चुपचाप में समकालीन मनुष्य के अकेलेपन को व्यक्त करते हुए कहा है - 


फटे हुए दिन को ख़बरों से ढककर 
मैं एक भीड़ की ओर फेंकता हूँ 
और अपने अकेले घर 
और अकेले शब्दों के बीच 
आदत की तरह लौट आता हूँ
चुपचाप और भी चुपचाप.
आज के समय की विद्रूपता को व्यंग्य के माध्यम से भी मंगलेश ने ज़ोरदार अभिव्यक्ति प्रदान की है. 'अत्याचारी के प्रमाणमें वे कहते हैं 

अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं
उसके नाखून या दाँत लंबे नहीं हैं 
आँखें लाल नहीं रहती 
बल्कि वह मुस्कुराता  रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है 
और हमारी ओर अपना कोमल हाथ बढाता है.. .....

अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है 
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते जाते हैं. 


समकालीन कविता की यह चर्चा तब तक अधूरी मानी जायेगी जब तक आधी दुनिया अर्थात नारी लेखन का उल्लेख न किया जाय. खास तौर से १९८० के बाद समकालीन  हिंदी कविता में नारी कलम का हस्तक्षेप अत्यंत मुखर रूप में सामने आया. इस प्रकार के लेखन ने समकालीन कविता में नारी-विमर्श कों स्थापित किया. उदाहरण के लिए  गगन गिल की कविता 'आधे रास्ते तुम चलते हो को देखा जा सकता है –

आधे रास्ते तुम चलते हो
उसके संग
फिर लौटा ले जाता है
ईश्वर बेचैनी
आधे सिर में फिरते हैं
इच्छा संताप
आधी में करती है फिर
निद्रा आघात 
आधी काया रहती है 
चिमटी संग तुम्हारे
लौट आता है आधा शव
घर अपने. 

इसी क्रम में अनामिका की कविता 'भरोसा' भी द्रष्टव्य है जिसमें उन्होंने परस्पर विश्वास के टूटने और जुड़ने की बात एकदम अलग अंदाज़ में कही है - 

टुइयाँ सी चीज़ है भरोसा
हमने उसे कहाँ कहाँ नहीं ढूँढा 
दोस्तों की आँखोंभाई की पाकेट 
दादी के बटुएबच्चो के गुल्लक से भी
वह जाने कब और कैसे
झड गया था.

प्रेमियों ने उसका करा रखा था 
फिक्स्ड डिपोजिट सा 
सुबह सुबह रोज़ फोन करते थे 
एक दूसरे को
कि कैसे क्या करेंकहाँ कहाँ कतरें ज़रूरतें 
जो वह अक्षुण्ण रहे

पर टूटना ही था उसे - 
सो वह टूटा -
सपनों के अबरक की तरह
अचानक खच से 

और फिर चमका 
तो कई बरस बाद एक दिन
अनजान आँखों में चमका 
जैसा कि घास में चमकता है कोई 
अग्निगर्भ कीड़ा. 

दूसरी ओर  कात्यायनी की कविता 'हॉकी खेलती लडकियां के केंद्र में औरत के सपने हैं - 

सो जायेंगी लडकियां 
और 
सपने में 
दौड़ती हुई 
बाल के पीछे 
स्टिक को साधे हुए हाथों में 
पृथ्वी के 
छोर तक पहुँच जायेंगी 
और
'गोल-गोलचिल्लाती हुई  
एक दूसरे को चूमती हुई 
लिपटकर 
धरती पर 
गिर जायेंगी 

इन तीन कवयित्रियों की रचनाओं को देखने से आपको पता चलेगा कि समकालीन स्त्री  कविता में जहाँ एक ओर औरत के देह केंद्रित अनुभवों को प्रकट किया गया हैंवहीँ उसकी मुक्ति चेतना को घरेलू वातावरण के सहारे शब्द प्रदान किये गए हैं. यह भी विचारणीय है कि हिंदी की स्त्री कविता को ‘घर’ बहुत प्रिय है – ‘बाहर’ के आकाश के साथ-साथ. 

इस प्रकार आपने देखा कि समकालीन हिंदी कविता पिछले लगभग चालीस साल से निरंतर बदलते हुए समकालीन परिवेश के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही है और अपनी समकालीनता को प्रमाणित कर रही हैं. 
-पूर्णिमा शर्मा