पैंसठ
साल पहले
कैद से
छूटकर
बाहर
निकला था वह,
शिशिर
ऋतु में.
सब तरफ
पतझड़
था;
पेड़
पीले पत्ते झाड़ रहे थे.
उसने
सोचा –
वसंत
आएगा,
पेड़
हरे होंगे,
नीले,
पीले, गुलाबी, लाल
फूल
मुस्कुराएंगें
झूमती
डालियों पर.
पैसठ
साल से वह खड़ा है
वसंत
की प्रतीक्षा में
और
आसमान हर साल
उगल
रहा है शोले ,
धरती
धधक रही है,
दिशाएं
दहक उठी हैं.
लोकतंत्र
कब आएगा,
कब
आएगा वह रामराज्य
जब मिट
जाएंगें
सारे
दैहिक, दैविक, भौतिक ताप?
अभी तो
हर तरफ
फुफकार
रहे हैं
जहरीले सांप!- पूर्णिमा शर्मा