एक पेड़
हुआ करता था यहाँ
बरगद
का
छतनार.
सरदी,
गरमी, बारिश, आंधी, तूफ़ान
और
बर्फबारी
झेलता
रहा बरसों-बरस;
बचाता
रहा हमें
प्रकृति
के प्रकोप से.
हम बड़े
सुरक्षित थे
बरगद
की गोद में.
एक दिन
एक
गिद्ध आया,
बैठ
गया
बरगद
के शिखर पर,
फैलाने
लगा अपने पंख.
दैत्याकार
पंख
और-और फैलते
गए,
ढक
लिया
पूरे
का पूरा छतनार महावृक्ष.
टूट
गया
हवाओं
से
पत्तियों
का रिश्ता.
एक-एक
कर सूख गई
हरी
डालियाँ.
और एक
रात
महाविस्फोट
के साथ
अरराकर
ढह गया
हमारा आशियाना.
तबसे
आसमान
में गिद्ध नाच रहे हैं
और
धरती पर हम
तरस
रहे हैं प्राणवायु को.
- पूर्णिमा शर्मा
- पूर्णिमा शर्मा