एक शाम पहुँची वह
अपने घर
कई घंटे देर से
रस्ते में फँस गई थी .
घर पहुंची
तो दौड़ कर बेटा और बेटी
डरे हुए कबूतर की तरह
चिपक गए उसकी गोद में,
पति बौखलाया हुआ सा
आया झपटता हुआ –
भौंहे तनी हुई थीं
माथे पर बल थे
चेहरा पीला पड़ गया था
लगता था
खून नसों में जम गया है .
“तुम आ गईं?
इतनी देर कैसे हो गई?
कहाँ रह गई थीं?
सब ठीक तो है ना?
तुम्हें कुछ हुआ तो नहीं?”
- दाग
दिए प्रश्न पर प्रश्न .
“सांस तो लेने दो”
- कहा
उसने .
“सॉरी,” पति बोला था –
“पर क्या करूं?
हम सबकी सांस
अटकी हुई थी.
लो पानी पीओ.
अब बोलो, कहाँ अटक गयीं थीं तुम?”
“मैं कहाँ अटकी?
बस अटक गयी थी
पुराने शहर में
दंगाई पथराव कर रहे थे,
पता नहीं किस-किस रस्ते से
आना पड़ा छिपते-छिपाते, बचते-बचाते!”
तभी सबका ध्यान गया टीवी की तरफ
रंग-बिरंगे खुशनुमा
लिबास में लिपटी
मैचिंग लिपस्टिक की
मुस्कान बिखेरती हुई
न्यूज़ रीडर बता रही थी –
“मंदिर के समर्थकों और
मस्जिद के मतवालों ने
आज शहर भर में
पथराव किया, लूटपाट की.
रेल के डिब्बे में आग लगाकर
जान ले ली चालीस मासूमों की.
जवाबी कार्यवाही में मौत के घाट उतार दिए
एक सौ आठ बूढ़े, बच्चे और जवान.
दंगाई उठा ले गए
स्कूल से लौटती बच्चियों को,
खरीददारी करने गई औरतों को .”
टीवी पर दिखाए गए सारे दृश्य
एक के बाद एक
- आग ही आग
- धूंआँ ही
धूंआँ
- रुदन ही
रुदन
- हाहाकार चीत्कार;
और कहा गया अंत में -
“अब हालात नियंत्रण में हैं;
शहर में तनावपूर्ण शान्ति है .”
बच्चे के बार फिर चिपक गए माँ से,
पति की आँखों में भर आई फिर से दहशत,
और वह पूछती रह गई अपने आप से –
“मैं घर आ गई हूँ न?”
-पूर्णिमा शर्मा