शनिवार, 17 मार्च 2018

"सुनो तो सही" की कविताओं पर डॉ. चंदन कुमारी की समीक्षा

ज्ञानतत्व और स्नेहभरित मन की संयुक्त अभिव्यक्ति डॉ. पूर्णिमा शर्मा (1965) प्रतिष्ठित समीक्षक, लेखिका और कवयित्री होने के साथ-साथ हैदराबाद स्थित “हिंदी हैं हम विश्व मैत्री मंच” नामक साहित्यिक संस्था की माननीय उपाध्यक्ष हैं | इन्होने मासिक स्तंभ ‘प्रसंगवश’ का कई वर्ष तक प्रकाशन किया है | समीक्ष्य काव्य संग्रह “सुनो तो सही (2017)” इनकी सद्यःप्रकाशित रचना है जिसका किंडल संस्करण अमेजन पर पठन-पाठन एवं प्राप्ति हेतु उपलब्ध है | इनकी विद्वता का उल्लेख वरिष्ठ साहित्यकार एवं शिक्षाविद् प्रो.सियाराम तिवारी ने अपने आलेख “हैदराबाद जैसा मैंने देखा” में किया है | ‘परम पुनीता, गुरुमाता डॉ. पूर्णिमा शर्मा को सादर समर्पित’ यह समर्पण वाक्य डॉ. अनुपमा तिवारी ने अपने सद्यः प्रकाशित पीएचडी शोध ग्रन्थ ‘मेहरुन्निसा परवेज की कहानियाँ : सामाजिक यथार्थ और कथाभाषा’ में लिखा है | मन को अभिभूत कर देने वाला यह संबोधन गुरुकुल परंपरा की याद दिलाता है और शीश स्वतः श्रद्धा और आदर के वशीभूत होकर नत हो जाता है | 

समीक्ष्य काव्य संग्रह “सुनो तो सही” में कुल 22 कविताएँ हैं जो जन और जीवन के नब्ज को टटोलने के क्रम में सहसा ही यथार्थ को उघाड़ने का उद्यम कर जाती हैं | अपने इस स्वाभाविक प्रयास में कवयित्री के शब्द युगहित में आवश्यक परिवर्तन की ओर इशारा करते हुए हृदय की भीतरी तह को छूकर, आँखों में सफलता के बाद का थिरता जल और बृहत्तर परिवर्तन की चाह से जुड़ी आस की मीठी मुस्कान लाने वाले बन गए हैं | द्रष्टव्य है परिवर्तन-कामी स्त्रियों की दृढ़ इच्छा शक्ति द्वारा निर्णीत एक परिवर्तन, कवयित्री के शब्दों में –

 “और तय कर लिया है –
लेकर रहेंगी अपने हिस्से का आकाश ;
भरेंगी ऊँची उड़ान ,
नापेंगी सातों समंदर
और साबित करेंगी –
हम सिर्फ आँगन लीपने
और
झोलों में बंद करने की चीज नहीं हैं
हम बेटियाँ हैं ! हम स्त्रियाँ हैं !!” (बेटियाँ हैं हम, पृ.30) 

सशक्त और मुस्कुराती स्त्री की अंतरात्मा की न दिखाई देनेवाली कलप को भी कवयित्री ने पूरे मनोयोग से न सिर्फ उकेरा है वरन जमीनी विकल्प भी दिया है | आधुनिक समाज में विचारों और भावनाओं का यह उत्तर पक्ष ही है कि अपने वजूद को भूलकर और अपने जड़ों से कटकर जीने की नसीहत देने की पूर्ववर्ती परंपरा से अलग हटकर माँ के रूप में स्त्री अपनी सशक्तता जताते हुए कहती है –

 “मैं खड़ी हूँ – अपनी बेटी के साथ;
मैं उसका कल हूँ;
और मैं खुद को जलाने की इजाजत नहीं दूँगी !!” (बेटी की विदाई, पृ. 28) 

यह सशक्तता हर जगह या तो सधती नहीं या फिर वातावरण पर हावी हो जाती है दूषित मानसिकता, तभी भ्रूणहत्या-सा जघन्य अपराध समाज में निरंतर आश्रय पाए हुए है | अपनी मृत्यु की प्रक्रिया के हर चरण को देखती अवाक् अजन्मी बच्चियों का अपनी माँ से किया जाने वाला यह प्रश्न यहाँ द्रष्टव्य है – 

“जन्म से पहले क्यों पढ़े जा रहे हैं मृत्यु के मंत्र ?
क्यों मिलाया जा रहा है तुम्हारे गर्भजल में जानलेवा जहर ?” (गर्भ प्रश्न, पृ.22) 

भ्रूणहत्या सहित कई ऐसे मुद्दों को कवयित्री ने उठाया है जो ज्वलंत होने के साथ-साथ मर्मस्पर्शी भी हैं और हृदयविदारक भी | इसी क्रम में प्रस्तुत है भारत से निर्यात की जानेवाली मूंगफली को छीलती भारतीय मजदूर औरतों का एक शब्दचित्र द्रष्टव्य है –

 “और छिल जाते हैं उनके होंठ
इस तरह कि –
जुड़ नहीं पाते
एक प्याली चाय पीने की खातिर भी कभी !” (मूंगफली के दाने, पृ.6) 
सियासती विद्वेष से उत्पन्न रूह कंपा देने वाली परिस्थिति (प्रजा का हालचाल, पृ.7), सहनशील धरती को रुलाते आदमी की विकास यात्रा के उल्टे कदम (धरती रोती है पृ.13-14), दंगे और दहशत के माहौल में परिवारजनों का सशंकित - भयभीत मन और सारी भयावहता के बीच बचते-बचाते घर लौटी महिला की मनःस्थितियों के चित्रण के साथ ही इस संग्रह की कविताएँ कहीं पीढ़ी अंतराल के जरिए गणतंत्र दिवस के बदलते मायनों से जूझती नजर आती हैं तो कहीं आत्मीयता के खोल में छिपी दरिंदगी की लगातार जीत से झेंपे हुए मुँह बाए इंसानों से सामना करा जाती हैं | इस प्रक्रम में सामने आता है न्याय व्यवस्था के नैयायिक निर्णय का सच | समीक्ष्य काव्य संग्रह की ‘स्त्री हूँ’, ‘वक्त की बिल्ली’, ‘छाया सीता’, ‘जय हिंद’, ‘मन’ और ‘प्रार्थना’ शीर्षक कविताएँ भी अपने आप में विशिष्ट हैं | साहित्य और समाज के सामयिक यथार्थ को परिलक्षित करती ‘यह समय’ शीर्षक एक त्रिपदी भी इस संग्रह में शामिल है | 

‘वसंत आ गया’ शीर्षक कविता में जहाँ महानगरीय जीवन में प्राकृतिक सामीप्य के घोर अभाव की अरुचिपूर्ण स्थिति में कवयित्री द्वारा मुट्ठी भर वसंत को अपने गाँवों की अमराई से भर लाने की चाहत अभिव्यक्त हो रही है वहीँ एक अन्य कविता में वे वर्तमान प्रगतिशीलता की दिशाहीन आपाधापी के बीच ‘प्यार का पथ’ खोजने को उद्दत हैं, द्रष्टव्य है - 

‘किसी को परवाह नहीं –
न धर्म की, न शर्म की .
बस दौड़े जा रहे हैं सब –’
पुनः देखें -
‘हर रास्ता
ले जाता है बाजार तक
वह रास्ता कहाँ है
जो ले जाए प्यार तक ?’ (रास्ते, पृ.8) 

काव्य संग्रह ‘सुनो तो सही’ की कविताओं में मानवीय संवेदनाएँ अपने अंधतामुक्त स्वरूप में उपस्थित हैं | अपनी कविताओं में कवयित्री ने मानवीय संवेदनाओं की प्रभावपूर्ण अभिव्यंजना हेतु साहित्यिक प्रतीकों के साथ- साथ इतिहास, दर्शन, लोक और मिथक के संदर्भों का भी यथायोग्य प्रयोग किया है | सामयिकता से लबरेज इन कविताओं को कल्पनाओं से कोई परहेज नहीं है | संग्रह की अधिकांश कविताओं में स्त्री की गरिमा के पक्ष में स्त्री-स्वर प्रबल है | स्त्री पक्ष की प्रबलता से अन्य पक्षों का अस्तित्व कहीं भी बाधित नहीं हो रहा है | हिंदी साहित्य-संसार में कवयित्री डॉ. पूर्णिमा शर्मा का यह सराहनीय अवदान साहित्यिकों की बौद्धिक भूख की शांति एवं सामाजिकों की बौद्धिक जागृति का निमित्त होने के साथ ही सामान्य पाठकों और सामान्य वर्ग के लिए उनके अपने जिए जाने वाले और बहुधा नकार दिए जाने वाले सत्यों से साक्षात्कार है |

समीक्षित कृति : सुनो तो सही / कवयित्री : डॉ. पूर्णिमा शर्मा / संस्करण : प्रथम (2017) / प्रकाशन : किंडल (अमेजन) / मूल्य : 100 रुपए / पृष्ठ : 33 


(यह समीक्षा "साहित्य सुधा - मार्च 2018 - प्रथम" में प्रकाशित हुई है। लिंक - http://bit.ly/2pmPxkP )