बुधवार, 29 जून 2016

‘शार्प रिपोर्टर’ का पत्रकारिता विशेषांक

शार्प रिपोर्टर, (सं) अरविन्द कुमार सिंह,
वर्ष 9, अंक 2, अप्रैल 2016,
पत्रकारिता विशेषांक,
संपादकीय कार्यालय : नीलकंठ होटल, जिला कलेक्ट्रेट, आजमगढ़ 
प्रायः यह कहा जाता है कि मीडिया को आत्मालोचन और आत्ममंथन करना चाहिए. लेकिन मीडिया को दूसरों की आलोचना और डंकबाजी से ही फुर्सत नहीं मिलती. इसके अलावा खुद अपनी पड़ताल करने के खतरे भी बहुत हैं. इसलिए पत्रकारिता/ मीडिया सर्वज्ञ बनकर अपनी भीतरी सच्चाइयों से आँख मींचने के लिए स्वतंत्र है. सरकारी, राजनैतिक पक्षधर और प्रतिष्ठानी मीडिया इन्हीं कारणों से प्रायः संदेह के घेरे में रहता है. इसके विपरीत छोटी और जनपदीय पत्रकारिता आज भी निष्पक्ष और निर्भीक रहकर दंड भुगतने को अभिशप्त है. उसमें आज भी इतना दमखम और शर्म बाकी है कि मठों और गढ़ों को चुनौती दे सके. आजमगढ़ से अरविंद कुमार सिंह के संपादकत्व में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘शार्प रिपोर्टर’ ऐसी ही जागरूक और जुझारू पत्रकारिता का उदाहरण है. 

‘शार्प रिपोर्टर’ ने अपने अप्रैल 2016 के अंक को समग्र मीडिया मंथन पर एकाग्र करके यह प्रमाणित किया है कि हाशिए पर होते हुए भी जनपदीय अथवा आंचलिक पत्रकारिता संपूर्ण वर्तमान परिदृश्य में सुनिश्चित और सार्थक हस्तक्षेप की क्षमता रखती है. इस अंक की परिकल्पना तलवार की धार पर मीडिया को परखने की है. बड़े आकार के 180 पृष्ठ के इस विशेषांक की सामग्री 5 खंडों में संजोयी गई है. पहले तीन खंड हिंदी पत्रकारिता के कल और आज का ब्यौरा देते हुए आने वाले कल की पत्रकारिता की दिशा को पकड़ने की कोशिश करते हैं.

‘क्रांतिकाल’ में आजादी की लड़ाई से आजादी मिलने तक का लेखा-जोखा है. ‘उदंत मार्तंड’, ‘स्वराज’, ‘भारत मित्र’, ‘देवनागर’, ‘कवि वचन सुधा’, ‘सरस्वती’, ‘चाँद’ आदि पर दस्तावेजी सामग्री इस खंड को बार-बार पढ़ने की वस्तु बनाती है. यह खंड भारतीय पत्रकारिता के उस गौरवपूर्ण और बलिदानी इतिहास को रेखांकित करता है जिससे प्रेरणा प्राप्त करके आज भी नई दिशा का संधान किया जा सकता है. 

आजादी से आपातकाल के पूर्व तक की पड़ताल ‘शांतिकाल’ शीर्षक दूसरे खंड में की गई. यहाँ 1947 के बाद तेजी से मीडिया के फैलाव और उसके सापेक्ष मूल्यवादी पत्रकारिता के सिकुड़ते जाने की युत्क्रम समानुपाती परिघटनाओं पर प्रकाश डाला गया. अखिलेश अखिल को लगता है कि आज संपादक की सबसे बड़ी कमजोरी अज्ञानता है और बाजार ने उन्हें खोखला कर रखा है. डॉ. मधुर नज्मी ने सवाल उठाया है कि क्या आज भी ‘स्वराज’ जैसा क्रांतिकारी पत्र निकाला जा सकता है और क्या उस जमाने के शहीद किस्म के संपादक इस जमाने में भी मिल सकते हैं? वेदप्रकाश अमिताब लघुपत्रिकाओं में उपलब्ध प्रतिरोध की ऊर्जा से आशवस्त दिखाई देते हैं तो अनिल चमडिया मीडिया में शब्दों के प्रति संवेदनहीनता के बढ़ते जाने के प्रति चिंतित है. इन सबके बीच अमन कुमार त्यागी ने पत्रकारिता के मंदिर सप्रे संग्रहालय का परिचय कराया है तो डॉ. ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा ने आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना की पत्रकारिता के इतिहास का प्रामाणिक विवेचन किया है. यह पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि जब शोयब उल्लाह खान ने अपने पत्र ‘इमरोज’ के माध्यम से हैदराबाद के सांप्रदायिक तांडव के खिलाफ आवाज उठाई और रजाकारों का विरोध किया तो रजाकारों ने उन्हें जान से मार डालने की धमकी दी और एक दिन जब वह साईकिल से काम कर वापस लौट रहे थे उन पर आक्रमण किया गया. उनका सीधा हाथ काट दिया गया और उन्होंने वहीं सड़क पर अपने प्राण छोड़ दिए. (पृ. 66). यह खंड बड़ी शिद्दत के साथ यह सवाल उठाता है कि आखिर क्यों मीडिया का चरित्र मिशन के स्थान पर कमीशनखोरी के गर्त में गिर गया है! 

विशेषांक का चौथा खंड ‘अविस्मरणीय’ वास्तव में अविस्मरणीय है. इसमें तीन महत्वपूर्ण आलेख सम्मिलित हैं. डॉ. विवेकी राय से अरविंद कुमार सिंह और अमन कुमार त्यागी की बातचीत – मैं ऐसी सवारी नहीं करता जिसकी लगाम मेरे हाथ में न हो. भोपाल से प्रकाशित ‘विचार मीमांसा’ के संपादक विजय शंकर वाजपेयी पर अरविंद कुमार सिंह का संस्मरण – पत्रिका नहीं क्रांति की किताब थी ‘विचार मीमांसा’. और राजेश त्रिपाठी का स्मृति लेख – सचमुच ही मीडिया के महानायक थे एस.पी.सिंह. 

पाँचवे खंड में 9 साक्षात्कार हैं जिनमें तलवार की धार पर चलते मीडिया की चुनौतियों, चालाकियों और चेतना की खरी-खरी परख निहित है. शेख मंजूर अहमद, हिमांशु शेखर, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, बालशौरि रेड्डी, रत्न शंकर व्यास, हर्षवर्धन शाही और गुंजेश्वरी प्रसाद के ये साक्षात्कार देर तक पाठक के दिमाग में बजते रहते हैं. 

कुल मिलाकर समकालीन मीडिया परिदृश्य से जुड़े तमाम अहम मुद्दों को इतिहास की धारा के साथ जोड़कर परखने में यह विशेषांक बहुत सहल रहा है. पत्रकारिता के अतीत और वर्तमान ही नहीं, उसकी भावी रीति, नीति और संभावानाओं के समझने के लिए यह अंक बहुत काम का और संग्रहणीय है. 
- पूर्णिमा शर्मा