शुक्रवार, 11 सितंबर 2015

आसन

स्थिर होकर बैठना आसन कहलाता है. इसके लिए जिस किसी शारिरिक मुद्रा का उपयोग किया जाता है वह भी आसन कहलाती है और जिस आधार पर बैठा जाता है उसे भी आसन कहते हैं. हमारे देवतागण अलग-अलग प्रकार के आसनों पर विराजते हैं. उदाहरण के लिए लक्ष्मी जी हों या प्रजापति ब्रह्मा, दोनों को कमल का आसन पसंद है. शिव जी का आसन बाघम्बर का है तो विष्णु जी ने शेषनाग को ही अपना आसन बना रखा है. राजा लोग सिंहासन पर आरूढ़ हुआ करते हैं. मुग़ल काल में तो एक प्रतापी और कलाप्रिय सम्राट ने मयूरासन बनवाया था. गरीब किसान-मजदूर जब थक कर आराम करता है तो धरती ही उसका आसन बन जाती है. कहने का आशय यह है कि जिस स्थान और मुद्रा में आपको स्थिर रहने में सुविधा प्रतीत हो, वही आसन है. 

चित्त को एकाग्र और शांत करने के लिए आसन बड़े काम की चीज़ है. आसन सुखकर हो तो वही सुखासन बन जाता है और आप लंबे समय तक उस में स्थिर रहकर आध्यात्मिक से लेकर भातिक जगत तक के सारे कर्म आनंदपूर्वक संपन्न कर सकते हैं. परंतु यदि आसन कठिन या कठोर हो तो कुछ पल भी स्थिर रहना असंभव प्रतीत होता है. इसीलिए हठयोगी लोग ऐसे आसनों का अभ्यास करते रहते हैं जो आसान नहीं होते. राजकाज में लगे हुए लोग भी एक तरह के हठी ही होते हैं और हठपूर्वक ऐसे आसनों को खोज-खोज कर उनकी हठ-साधना करते रहते हैं जो सुख-सुविधा तो बहुत देते हैं लेकिन मन की शांति को हर लेते हैं. इसीलिए कहा जाता है कि उच्च राजनैतिक पदों के आसन सही अर्थों में काँटों के आसन होते हैं और इन पर बैठने वाले स्थिर नहीं रह पाते. 

स्थिर रहने के लिए आसन अर्थात एक स्थान पर एक ही मुद्रा में लंबे समय तक बैठने का अभ्यास ज़रूरी है. आसन के अभ्यास से शारिरिक-मानसिक संतुलन प्राप्त होता है और आध्यात्मिक शांति की उपलब्धि की संभावना बढ़ जाती है. चंचलता या अस्थिर-चित्तता से मुक्त होने के लिए किसी भी सुविधाजनक आसन अर्थात सुखासन में बैठकर अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए चिंतन, मनन, कर्म और साधना करने से कठिन से कठिन कार्य भी सिद्ध हो सकते हैं. ध्रुव से लेकर वाल्मीकि तक की गाथाएं इस सत्य को प्रमाणित करती हैं कि आसन-सिद्धि ही लक्ष्य-सिद्धि का आधार है.

अतः आइए, सुखपूर्वक यथारुचि आसन में बैठकर अपने कर्त्तव्य कर्म में जुट जाइए. हाँ, जब थकान लगे तो शवासन करना न भूलिए – इससे आपको पुनः कर्मरत होने की ऊर्जा मिलेगी,

- पूर्णिमा शर्मा