अपने बचपने में
किया था यह सवाल
मैंने तुमसे.
सोचा भी नहीं था
कि तुम पीले पन्नों वाली किताब के
वह लाल आँखों वाले जादूगर हो
जो कभी सच नहीं बोलता
और रेगिस्तान में बने
जादू के महल में
कैद करके रखता है
ढेर सारी शहजादियों को .
इसीलिए मैंने नादानी में पूछा था तुमसे -
''मैं कौन हूँ?''
तुमने
हीरे, पन्ने, माणिक, पुखराज और नीलम
जडी अंगूठियों वाली अपनी अंगुलियाँ
तांत्रिक अंदाज़ में
मेरी आँखों के सामने घुमाई थीं
और मेरी नीली आँखों में अपनी लाल आँखें डाल कर
कहा था -
''धरती.
तुम धरती हो.''
और मैं तुम्हारी बात सच मान बैठी,
धरती बन गई.
और तुम कभी किसान बने,
कभी धरणीधर ज़मींदार हुए,
कभी भूमिपति भूपाल हो गए
और कभी धराधिप...
जगदीश्वर....
परमात्मा....!
जब तुम्हारा मन हुआ
तुमने मेरी छाती पर हल चलाया,
आखिर मैं धरती थी!
जब तुम्हारा मन हुआ
तुमने मेरे गर्भ से फसलें खींचीं,
आखिर मैं धरती थी!
जब तुम्हारा मन हुआ
तुमने मुझे काटा,
छाँटा,
बाँटा,
आखिर मैं धरती थी!
जब तुम्हारा मन हुआ
तुमने मेरे अस्तित्व को रौंद डाला,
नाखूनों से नोंचा,
खुरों से चींथा,
आखिर मैं धरती थी!
तुमने मेरे एक-एक रोम पर
लगा दीं अपने नाम की तख्तियाँ,
चक्रवर्ती सम्राट बन गए तुम ,
अश्वमेध यज्ञ किए तुमने.
जब तुम्हारा मन हुआ
तुमने मुझे पूजा.
जब तुम्हारा मन हुआ
तुमने मुझ पर थूका.
मैं क्या करती?
तुम्हारा पूजना भी मुझे स्वीकार था,
तुम्हारा थूकना भी मुझे स्वीकार था.
दूसरा विकल्प ही नहीं था;
आखिर मैं धरती जो थी!!!
सब सहती रही;
धरती जो ठहरी.
युगों से तुम्हारे आधिपत्य की
आदी हो चुकी थी मैं.
इच्छाएं मर चुकी थीं सारी,
सपने सो चुके थे सारे.
तभी एक रात
मेरे कानों का सीसा पिघलने लगा.
तुम्हारी जादुई आवाज़ के अलावा
एक और आवाज़ पड़ी कानों में.
हिलने लगे कान के परदे.
आसमान गरज रहा था!
आसमान.
मेरा चिर काल का प्रेमी!
आसमान गरजता रहा, गरजता रहा;
खींचने लगा आवाज़ की डोर से बाँध कर
मुझे अपनी ओर.
कसमसाने लगीं कल्पनाएँ मेरे हृदय में.
जागने लगे सपने मेरी आँखों में.
और खुल गईं पलकें
जिन्हें मूँद दिया था तुमने
अपनी हीरे, पन्ने, माणिक, पुखराज और नीलम जड़ी
अंगूठियों वाली जादुई अँगुलियों से.
तो --- खुल गईं पलकें मेरी,
जाग गए सपने,
जी उठीं कल्पनाएँ,
कुलांचें भरने लगीं उमंगें,
आकाश उतर आया पूरा का पूरा मेरे भीतर,
मैं एक बोध से भर उठी.
मैंने खुद से पूछा -
''मैं कौन हूँ?''
मैंने खुद को उत्तर दिया -
''मैं सृष्टि हूँ.''
हाँ, मैं सृष्टि हूँ!
मैं सृजन की शक्ति हूँ.
तुम्हारी गुलाम धरती नहीं हूँ मैं.
मैं स्त्री हूँ!
स्त्री हूँ मैं!
स्त्री हूँ! स्त्री हूँ मैं!!
-पूर्णिमा शर्मा