शनिवार, 31 जनवरी 2015

बेटियाँ हैं हम


बेटियाँ हैं हम.
पिता ! हम सिर्फ चिड़ियाँ नहीं हैं,
बेटियाँ हैं हम.
तुम्हारा आँगन लीपती हैं,
रंगोली सजाती हैं,
गीत गुनगुनाती हैं
और सोचती हैं –
तुम हमारे हो,
तुम्हारा यह चौड़ा सीना हमारा है,
तुम्हारा यह आँगन हमारा है.

पर निर्दयी पिता,
तुम हमें रोज याद दिलाते हो –
‘बेटियाँ तो पराया धन होती हैं’
‘बेटियों को तो परदेस जाना है’
और सौंप देते हो
किसी एक शुभ मुहूर्त में
अपनी लक्ष्मी-स्वरूपा बेटी को
किसी विष्णु-स्वरूप वर के हाथों.

पुण्य लूटते हो कन्यादान का;
और चलती बेर, निर्मोही पिता!
कैसे कह देते हो तुम –
‘बेटियो,
डोली निकलते ही हम पराए हुए’,
‘पीहर बेगाना हुआ’,
‘अब तुम्हारे ही हाथ हमारी लाज है’,
‘बेटियो,
उस घर से अब तुम्हारी अर्थी ही निकले’.
फेर लेते हो मुँह,
मुड़कर नहीं देखते –
तुम्हारे आँगन की चिड़ियों पर
क्या बीत रही है
तथाकथित विष्णु-स्वरूप बहेलिए के झोले में!

बहेलिए के झोले में बंद पडीं हम
चीखती हैं,
चिल्लाती हैं,
कलपती हैं.
लेकिन आवाजें झोले से बाहर नहीं जातीं,
झोले का मुँह बंद जो कर दिया है कसके –
तुमने और तुम्हारे चुने हुए भगवान बहेलिए ने.

हम चिड़ियाएँ,
हम बिटियाएँ,
हम लक्ष्मियाँ
युगों से इसी तरह क़ैद हैं
बंद मुँह वाले झोले में.
पर..... अब हम और क़ैद नहीं रहेंगी.
पिता! तुमने बड़ी उपेक्षा की.
बहेलिए! तुमने बड़ी यातना दी.
पर अब हम सब मिल कर
फाड़ देंगी इन थैलों को.
हमने पैना लिए हैं अपने नाखून
और तय कर लिया है -
लेकर रहेंगी अपने हिस्से का आकाश;
भरेंगी ऊँची उड़ान,
नापेंगी सातों समंदर.
और साबित करेंगी –
हम सिर्फ आँगन लीपने और
झोलों में बंद करने की चीज नहीं हैं.....
हम बेटियाँ हैं! हम स्त्रियाँ हैं!!  

                                - पूर्णिमा शर्मा