रेडियो वार्ता : डॉ. पूर्णिमा शर्मा
मनुष्य का मन संवेगों का तंत्र है. संवेग अनंत हैं परंतु उनकी श्रेणियाँ दो हैं. पहली श्रेणी है – राग; और दूसरी श्रेणी है – द्वेष. जो हमें सुखकर है – वह राग का आधार है और जो दुःखकर है - वह द्वेष का आधार है.
जब हमारा लगाव किसी से या कहीं होने लगता है, तो उसे राग या आसक्ति कहते हैं. यह लगाव यों ही नहीं होता. इसके पीछे वहाँ से मिल रहे सुख होते हैं या सुख मिलने की उम्मीद होती है, चाहे वह घर हो, घरवाले हों, रिश्तेदार हों या फिर सुख-सुविधा के साधन. इसका पता तब लगता है, जब सुख मिलना बंद हो जाए या अहम् को ठेस पहुंचे. ऐसे में व्यक्ति दुखी हो जाता है और फिर यहीं से द्वेष जन्म लेता है. जहां राग था, अब द्वेष हो गया. बिना राग के द्वेष नहीं होता.
ये राग-द्वेष जिंदगी भर चलते रहते हैं. इनकी जड़ें मन में इतनी मजबूत हो जाती हैं कि इनके संस्कार जन्म-मरण की वजह बनने लगते हैं और आने वाला जन्म इन्हीं पर निर्भर करने लगता है. कहा जाता है कि भरत जैसे ज्ञानी का हिरन के प्रति राग उनके मृग रूप में पुनर्जन्म का कारण बना. अर्थात अगला जन्म वहीं होता है, जहाँ पहले राग या द्वेष था.
कभी कभी हम समझते हैं कि द्वेष ही कर्मों के बंधन का कारण है और केवल द्वेष दूर करने में लग जाते हैं. जिनसे द्वेष होता है, उन्हें मनाने लगते हैं, लेकिन यह भूल जाते हैं कि जहाँ से राग था, वहीं से द्वेष आता है और जहाँ से द्वेष है, द्वेष के दूर होने पर वहीं से राग भी पैदा होने लगता है. इसलिए हमें द्वेष के साथ-साथ राग को भी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए. जब राग ही नहीं रहेगा, तो द्वेष कैसे पैदा होगा? राग दूर करने के लिए अपने सीमित प्रेम को बढ़ाते जाओ, इतना बढ़ाओ कि संसार में सबके लिए एक जैसी प्रेम भावना आ जाए. न किसी के लिए कम, न किसी के लिए ज्यादा. मानव मात्र के प्रति, या फिर संपूर्ण सृष्टि के प्रति आत्म भाव के उत्पन्न होने से राग की भावना उदात्त होकर विश्वव्यापी बन जाती है और द्वेष जैसी नकारात्मक भावना स्वतः समाप्त हो जाती है. कहा भी गया है कि समस्त जगत को आत्मवत समझने वाला ही सच्चा प्रेमी, भक्त, ज्ञानी और मुक्त होता है. वस्तुतः राग-द्वेष ही हमारी सारी मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक परेशानियों की जड़ है.
कहना न होगा कि यह सृष्टि राग-द्वेष का ही ताना-बाना है. इस दृष्टि से हर जीव स्वयं अपने द्वारा निर्मित सृष्टि में रहता है. जहाँ ममत्व है वहाँ संयोग से हर्ष, वियोग से विषाद और भोग से दु:खवर्धक सुख का अनुभव होता है. कर्मानुसार सृष्टियाँ हैं और जीवों की अपनी-अपनी अनुभूतियाँ हैं. जहाँ ममता नहीं है वहाँ सृष्टि भी नहीं. ममतासहित सृष्टि कुछ और है; और ममतारहित सृष्टि कुछ और. दरअसल राग-द्वेष जीव के गुण हैं, जिनसे सृष्टि में विषमता आती है. इस विषमता का उत्तरदायी जीव है.
स्मरणीय है कि राग और द्वेष चित्त को पक्षपाती बना देते हैं. राग-द्वेष से प्रेरित होने के कारण ही धृतराष्ट्र दुर्योधन में कोई दोष नहीं देखता. राग-द्वेष वश पक्षपाती होने से जीवन का सत्य हाथ से फिसल जाता है. राम का वनवास कैकेयी के मन के पक्षपात का ही परिणाम था.
आनंद की अनुभूति के लिए मनुष्य का राग-द्वेष से मुक्त होकर विश्वात्मा के साथ जुड़ना ही एकमात्र मार्ग है. यही कारण है कि साहित्य, संगीत और अन्य सभी ललित कलाएं हमारे चित्त को राग-द्वेष से मुक्त करके जो विशदता प्रदान करती हैं, वह अमूल्य है. आप सबको भी चित्त की इस विशदता की अनुभूति प्राप्त हो, हम ऐसी कामना करते हैं. नमस्कार !!!!
[प्रसार भारती : हैदराबाद : 16/12/2014]