रेडियो वार्ता : डॉ. पूर्णिमा शर्मा
हमारी भाषा में ‘स्नेह’ एक बहु-अर्थीय शब्द है. स्नेह वस्तु के रूप में तेल या तैलीय पदार्थ का वाचक है तो भाव के रूप में वह प्रेम के एक विशेष प्रकार का अर्थ देता है. सामान्यतः स्नेह का अर्थ है - लगाव. भारतीय संस्कृति सारे जगत को कुटुंब मानते हुए यह संदेश देती है कि द्वेष भाव भूल कर सभी से स्नेह रखना चाहिए. इसमें भी संदेह नहीं कि स्नेह और प्रोत्साहन में बड़ी ऊर्जा निहित होती है जो किसी भी व्यक्ति को निरंतर रचनात्मक संघर्ष के पथ पर बढ़ने की प्रेरणा देती है.
शाब्दिक दृष्टिकोण से, 'चिकनापन' नामक जो गुण है, वह स्नेह कहलाता है.सृष्टि में जहाँ कहीं जलतत्व का संस्पर्श है, वहाँ स्नेह विद्यमान है जो द्रवणशीलता के रूप में दिखाई देता है. स्नेह ऐसा गुण है, जिसके कारण पृथक्-पृथक् रूप से विद्यमान कण या अंश पिण्ड रूप में परिणत हो जाते हैं. वास्तव में हमारे चित्त की चिकनाई के कारण ही संबंधों में आत्मीयता दिखाई देती है. अगर रजोगुण, धन अथवा अहंकार रूपी रजकण स्नेह से चिकने चित्त को छू जाते हैं तो वह मलिन हो जाता है तथा संबंध पहले जैसे आत्मीय नहीं रह जाते. स्नेह का एक अर्थ तेल है. जब तक दीपक में तेल है वह जलता है और तेल चुक जाने पर दीपक बुझ जाता है. इसी प्रकार जब तक स्नेह भाव रहता है तो संबंधों में आत्मीयता का प्रकाश रहता है. स्नेह भाव के चुक जाने पर दीपक की तरह संबंध भी बुझ जाते हैं, समाप्त हो जाते हैं. यहाँ महाकवि बिहारी की उक्ति उल्लेखनीय है कि ”जो चाहो चटक ना घटे, मैलो होय न मित्त,
रज राजस न छुवाइए, नेह चीकने चित्त’’.
याद रहे कि स्नेह न बचने पर जीवन सूखे बालू के समान नीरस बन कर रह जाता है. जैसा कि ‘निराला’ जी कहते हैं –
‘स्नेह निर्झर बह गया है/
रेत ज्यों तन रह गया है.’
वस्तुतः स्नेह उस भावना का नाम है जिसे वत्सलता कहा जाता है. यह वात्सल्य रस का स्थायी भाव है. माता-पिता का अपनी संतान पर जो नैसर्गिक स्नेह होता है, उसे ‘वात्सल्य’ कहते हैं. मैकडुगल आदि मनोवैज्ञानिकों ने तो इसे प्रधान अथवा मौलिक मनोभावों में शामिल किया है. व्यावहारिक अनुभव भी यही बताता है कि स्नेह प्रेम का वह उज्ज्वल रूप है जिसमें आत्मदान का आनंद निहित है. संतान के प्रति माँ का प्यार इसका आदर्श है.
वात्सल्य रस के स्थायी भाव के रूप में स्नेह भाव का आलंबन संतान या उसके समान प्रेम के अधिकारी को माना जा सकता है. इसका विस्तार शिष्य स्नेह, प्रजा स्नेह और मानव मात्र के प्रति स्नेह के रूप में होता है. हर्ष, गर्व, आवेग, अनिष्ट की आशंका इसके संचारी भाव हैं. स्नेह-पात्र की चेष्टाएँ और योग्यताएँ उद्दीपन हैं. आलिंगन, अंग-संस्पर्श, सिर को चूमना, देखना, रोमांच, आनन्दाश्रु आदि अनुभाव हैं. इसका वर्ण पद्म-गर्भ की छवि जैसा और देवता लोकमाता या जगदंबा को माना गया है जो निःस्वार्थ ममता का प्रतीक है.
स्नेह भाव को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि यदि कभी स्नेह-पात्र में कुछ दोष भी दिखे तो उसका सार्वजनिक प्रकाशन न करके आत्मीयतापूर्वक समाधान किया जाए. यहाँ भवानी प्रसाद मिश्र की एक कविता का अंश प्रस्तुत करना उचित होगा. भवानी दादा कहते हैं –
‘यदि कभी किसी कारण से/
उसके यश पर उड़ती दिखे धूल,/
तो सख्त बात कह उठने की/
रे, तेरे हाथों हो न भूल./
मत कहो कि वह ऐसा ही था,/
मत कहो कि इसके सौ गवाह;/
यदि सचमुच ही वह फिसल गया/
या पकड़ी उसने गलत राह -/
तो सख्त बात से नहीं, स्नेह से/
काम जरा लेकर देखो;/
अपने अंतर का नेह अरे,/
देकर देखो./
कितने भी गहरे रहें गर्त,/
हर जगह प्यार जा सकता है;/
कितना भी भ्रष्ट जमाना हो,/
हर समय प्यार भा सकता है;/
जो गिरे हुए को उठा सके/
इससे प्यारा कुछ जतन नहीं,/
दे प्यार उठा पाए न जिसे/
इतना गहरा कुछ पतन नहीं./
देखे से प्यार भरी आँखें/
दुस्साहस पीले होते हैं/
हर एक धृष्टता के कपोल/
आँसू से गीले होते हैं./
तो सख्त बात से नहीं/
स्नेह से काम जरा लेकर देखो,/
अपने अंतर का नेह/
अरे, देकर देखो.’
[प्रसार भारती : हैदराबाद : 16/12/2014]