और हर रात की तरह
उस रात भी
बादशाह की रूह सफ़ेद चादर
ओढकर निकली
अपनी प्रजा का हालचाल जानने
को.
तीसरे पहर तक
सब ठीक ठाक था
पर चौथा पहर शुरू होते – न होते
घुप्प अन्धेरे को चीरती
किसी के रोने की आवाज़
बेचैन करने लगी बादशाह की
रूह को.
उड़ने लगी रूह सिसकियों के
तार से बँधी सी.
पहचानते देर न लगी
ये सिसकियाँ थीं भागमती की
और निकल रही थीं चारमीनार
के दिल से.
बादशाह की रूह काँप उठी
सौभाग्य का जो नगर बसाया था
घर की लक्ष्मी को भाग्य की
लक्ष्मी बनाया था,
उसकी दहलीज सियासत का अखाडा
बन गई
और छत विद्वेष से तन गई
जानकार लोग कहते हैं
उस रात से
मीनार और मंदिर हर रात
सिसकियाँ भरते हैं
और बादशाह की रूह
काँप काँप जाती है
काँप काँप जाती है.
-
पूर्णिमा शर्मा