भारतीय परंपरा में माँ को इतना अधिक महत्त्व और सम्मान दिया गया है कि यदि यह कहा जाए कि भारतीय संस्कृति माँ पर केन्द्रित संस्कृति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी. माँ जननी और पालन करने वाली तो है ही, ममता और वात्सल्य के रूप में ईश्वर की तरह सर्व-व्यापक भी है. सबसे बड़ी बात यह है कि माँ वह प्यार भरा आश्रय है जो दैहिक, दैविक और भौतिक सब प्रकार के संतापों से अपनी संतान की रक्षा करता है. संतान की समस्त बाधाओं और दुविधाओं को नष्ट करने में सदा समर्थ होने के कारण ही माँ को मातृ-शक्ति के रूप में प्रत्येक स्त्री के हृदय में विराजमान माना गया है. मातृ-शक्ति रूपी दुर्लभ वरदान के कारण ही स्त्री-जाति को पूजनीय माना गया है और यह घोषणा की गई है कि माँ के चरणों में समस्त तीर्थ ही नहीं वरन स्वर्ग का निवास है. इसलिए माँ की सेवा सर्वोपरि पुण्य और माँ की उपेक्षा सबसे निकृष्ट पाप है.
माँ संतान का प्रथम गुरु होती है. माँ ही बच्चे के संस्कार और स्वभाव का निर्माण करती है. यदि कोई बच्चा राम या लक्ष्मण बनता है तो इसका श्रेय कौशल्या और सुमित्रा जैसी माँ को दिया जाना चाहिए. इसी प्रकार जब कोई बच्चा रावण या दुर्योधन बनता तो उसके लिए भी कहीं न कहीं कैकसी और गांधारी जैसी माँ ही जिम्मेदार होती है. यही कारण है कि माँ का अपना कर्त्तव्य अत्यंत दुष्कर है. उसे ममता की छाया भी बनना होता है और अपने मन-वचन-कर्म से जीवन-मूल्यों का आदर्श भी अपनी संतान के समक्ष प्रस्तुत करना होता है. आप सबने वह लोक कथा सुनी होगी कि एक भयानक डाकू ने फांसी पर चढ़ने से पहले अपनी माँ की नाक काट ली थी क्योंकि वह मानता था कि यदि पहले अपराध पर ही माँ ने कठोर रुख अपनाया होता तो वह व्यक्ति डाकू न बन पाता. यद्यपि यह एक अपराधी का अपने अपराधों की जिम्मेदारी दूसरे पर डालने जैसा है, लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि माँ हमारे चरित्र-निर्माण की बुनियाद है.
मैं प्रायः यह महसूस करती हूँ कि आज की दौड़-धूप और गलाकाट आपाधापी के युग में इस बात का पूरा खतरा है कि हमारे बच्चे मशीनों और रोबोट की तरह हृदयहीन हो जाएं. यदि ऐसा हुआ तो मानना होगा कि मनुष्यता पाशविक वृत्तियों के हाथों पराजित हो गई. यह ठीक है कि मनुष्य के भीतर सारे पाशविक विकार विद्यमान होते हैं. लेकिन यह भी उतना ही ठीक है कि मनुष्य के भीतर देवत्व की सारी संभावनाएं होती हैं. मनोविकारों का उन्नयन करके ही मनुष्य देवत्व की ऊंचाई प्राप्त करता है; और मनोविकारों के उन्नयन की पाठशाला माँ की गोद है. अतः हम माताओं को चाहिए कि अपने बच्चों को उदार ह्रदय वाले मनुष्य बनाएं , हृदयहीन रोबोट नहीं.
- डॉ. पूर्णिमा शर्मा , 208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल – 08297498775.