तीस साल पहले
मेरी माँ ने
कहा था मेरे कान में-
बेटी, आज तक तुम पराया धन थी
आज हम पराये हुए,
और समझाया था पिता ने
लड़कियों का कोई अतीत नहीं होता
पीहर की दहलीज लांघते ही
जला दिया था मैंने
अपने कल को,
आज भी
जल रही है उन सपनों की चिता
पिता के आँगन में
तीस बरस से
मैं सींचती रही हूँ
पीपल का एक पेड़,
हर शनिवार को कच्चे धागे लपेटकर
करती रही हूँ परिक्रमा
और उगाती रही हूँ
रिश्तों की लहलहाती लताएं
मेरे भीतर
एक माँ रहती है
और एक बेटी भी.
बेटी को जाना है दहलीज के पार;
और माँ कहना नहीं चाहती -
आज तक तुम पराया धन थी
आज हम पराये हुए
लड़कियों का कोई अतीत नहीं होता
जलाना होगा तुम्हे अपना कल
नहीं!
मैं खड़ी हूँ
अपनी बेटी के साथ;
मैं उसका कल हूँ;
और मैं खुद को जलाने की इजाज़त नहीं दूँगी !!
- पूर्णिमा शर्मा