बुधवार, 29 जून 2016

‘शार्प रिपोर्टर’ का पत्रकारिता विशेषांक

शार्प रिपोर्टर, (सं) अरविन्द कुमार सिंह,
वर्ष 9, अंक 2, अप्रैल 2016,
पत्रकारिता विशेषांक,
संपादकीय कार्यालय : नीलकंठ होटल, जिला कलेक्ट्रेट, आजमगढ़ 
प्रायः यह कहा जाता है कि मीडिया को आत्मालोचन और आत्ममंथन करना चाहिए. लेकिन मीडिया को दूसरों की आलोचना और डंकबाजी से ही फुर्सत नहीं मिलती. इसके अलावा खुद अपनी पड़ताल करने के खतरे भी बहुत हैं. इसलिए पत्रकारिता/ मीडिया सर्वज्ञ बनकर अपनी भीतरी सच्चाइयों से आँख मींचने के लिए स्वतंत्र है. सरकारी, राजनैतिक पक्षधर और प्रतिष्ठानी मीडिया इन्हीं कारणों से प्रायः संदेह के घेरे में रहता है. इसके विपरीत छोटी और जनपदीय पत्रकारिता आज भी निष्पक्ष और निर्भीक रहकर दंड भुगतने को अभिशप्त है. उसमें आज भी इतना दमखम और शर्म बाकी है कि मठों और गढ़ों को चुनौती दे सके. आजमगढ़ से अरविंद कुमार सिंह के संपादकत्व में प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘शार्प रिपोर्टर’ ऐसी ही जागरूक और जुझारू पत्रकारिता का उदाहरण है. 

‘शार्प रिपोर्टर’ ने अपने अप्रैल 2016 के अंक को समग्र मीडिया मंथन पर एकाग्र करके यह प्रमाणित किया है कि हाशिए पर होते हुए भी जनपदीय अथवा आंचलिक पत्रकारिता संपूर्ण वर्तमान परिदृश्य में सुनिश्चित और सार्थक हस्तक्षेप की क्षमता रखती है. इस अंक की परिकल्पना तलवार की धार पर मीडिया को परखने की है. बड़े आकार के 180 पृष्ठ के इस विशेषांक की सामग्री 5 खंडों में संजोयी गई है. पहले तीन खंड हिंदी पत्रकारिता के कल और आज का ब्यौरा देते हुए आने वाले कल की पत्रकारिता की दिशा को पकड़ने की कोशिश करते हैं.

‘क्रांतिकाल’ में आजादी की लड़ाई से आजादी मिलने तक का लेखा-जोखा है. ‘उदंत मार्तंड’, ‘स्वराज’, ‘भारत मित्र’, ‘देवनागर’, ‘कवि वचन सुधा’, ‘सरस्वती’, ‘चाँद’ आदि पर दस्तावेजी सामग्री इस खंड को बार-बार पढ़ने की वस्तु बनाती है. यह खंड भारतीय पत्रकारिता के उस गौरवपूर्ण और बलिदानी इतिहास को रेखांकित करता है जिससे प्रेरणा प्राप्त करके आज भी नई दिशा का संधान किया जा सकता है. 

आजादी से आपातकाल के पूर्व तक की पड़ताल ‘शांतिकाल’ शीर्षक दूसरे खंड में की गई. यहाँ 1947 के बाद तेजी से मीडिया के फैलाव और उसके सापेक्ष मूल्यवादी पत्रकारिता के सिकुड़ते जाने की युत्क्रम समानुपाती परिघटनाओं पर प्रकाश डाला गया. अखिलेश अखिल को लगता है कि आज संपादक की सबसे बड़ी कमजोरी अज्ञानता है और बाजार ने उन्हें खोखला कर रखा है. डॉ. मधुर नज्मी ने सवाल उठाया है कि क्या आज भी ‘स्वराज’ जैसा क्रांतिकारी पत्र निकाला जा सकता है और क्या उस जमाने के शहीद किस्म के संपादक इस जमाने में भी मिल सकते हैं? वेदप्रकाश अमिताब लघुपत्रिकाओं में उपलब्ध प्रतिरोध की ऊर्जा से आशवस्त दिखाई देते हैं तो अनिल चमडिया मीडिया में शब्दों के प्रति संवेदनहीनता के बढ़ते जाने के प्रति चिंतित है. इन सबके बीच अमन कुमार त्यागी ने पत्रकारिता के मंदिर सप्रे संग्रहालय का परिचय कराया है तो डॉ. ऋषभदेव शर्मा और गुर्रमकोंडा नीरजा ने आंध्र प्रदेश तथा तेलंगाना की पत्रकारिता के इतिहास का प्रामाणिक विवेचन किया है. यह पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि जब शोयब उल्लाह खान ने अपने पत्र ‘इमरोज’ के माध्यम से हैदराबाद के सांप्रदायिक तांडव के खिलाफ आवाज उठाई और रजाकारों का विरोध किया तो रजाकारों ने उन्हें जान से मार डालने की धमकी दी और एक दिन जब वह साईकिल से काम कर वापस लौट रहे थे उन पर आक्रमण किया गया. उनका सीधा हाथ काट दिया गया और उन्होंने वहीं सड़क पर अपने प्राण छोड़ दिए. (पृ. 66). यह खंड बड़ी शिद्दत के साथ यह सवाल उठाता है कि आखिर क्यों मीडिया का चरित्र मिशन के स्थान पर कमीशनखोरी के गर्त में गिर गया है! 

विशेषांक का चौथा खंड ‘अविस्मरणीय’ वास्तव में अविस्मरणीय है. इसमें तीन महत्वपूर्ण आलेख सम्मिलित हैं. डॉ. विवेकी राय से अरविंद कुमार सिंह और अमन कुमार त्यागी की बातचीत – मैं ऐसी सवारी नहीं करता जिसकी लगाम मेरे हाथ में न हो. भोपाल से प्रकाशित ‘विचार मीमांसा’ के संपादक विजय शंकर वाजपेयी पर अरविंद कुमार सिंह का संस्मरण – पत्रिका नहीं क्रांति की किताब थी ‘विचार मीमांसा’. और राजेश त्रिपाठी का स्मृति लेख – सचमुच ही मीडिया के महानायक थे एस.पी.सिंह. 

पाँचवे खंड में 9 साक्षात्कार हैं जिनमें तलवार की धार पर चलते मीडिया की चुनौतियों, चालाकियों और चेतना की खरी-खरी परख निहित है. शेख मंजूर अहमद, हिमांशु शेखर, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, उदयन शर्मा, बालशौरि रेड्डी, रत्न शंकर व्यास, हर्षवर्धन शाही और गुंजेश्वरी प्रसाद के ये साक्षात्कार देर तक पाठक के दिमाग में बजते रहते हैं. 

कुल मिलाकर समकालीन मीडिया परिदृश्य से जुड़े तमाम अहम मुद्दों को इतिहास की धारा के साथ जोड़कर परखने में यह विशेषांक बहुत सहल रहा है. पत्रकारिता के अतीत और वर्तमान ही नहीं, उसकी भावी रीति, नीति और संभावानाओं के समझने के लिए यह अंक बहुत काम का और संग्रहणीय है. 
- पूर्णिमा शर्मा 

मंगलवार, 21 जून 2016

रमजान

रमजान महीने को नेकियों का महीना कहा गया है। जो आम दिनों में अल्लाह की इबादत नहीं कर पाता है वह भी रमजान का पूरा महीना इबादत में गुजार देता है। इस महीने को सब्र का महीना भी कहा जाता है। माना जाता है कि सब्र के बदले जन्नत मिलती है। यह महीना समाज के गरीब और जरूरतमंद लोगों के साथ हमदर्दी करना सिखाता है। यह भी माना जाता है कि इस महीने में रोजा रखने वाले को इफ्तार कराने वाले के भी सभी गुनाह माफ हो जाते हैं। 

रमजान महीने के पहले दिन को बड़ा महत्व दिया जाता है। पहला रोजा सभी मुसलमानों को रखना चाहिए। माना जाता है कि इस दिन अल्लाह दोजख के रास्ते बन्द कर जन्नत के रास्ते खोलता है। सभी मुसलमानों को रमजान के महीने का इन्तजार रहता है। चांद देखकर रोजा रखा जाता है। पहले रोजे के लिए तैयारी अधिक की जाती है। महीने का पहला रोजा इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दिन से ही हमें बेशुमार हदीसें मिलती हैं जिन्हें हम पढ़ते और सुनते रहते हैं और जिन पर अमल करना हमारा फर्ज है। मोहताज और गरीब लोगों की हमें मदद करनी चाहिए। नेकियों का यह महीना नेकियों के लिए ही होता है। दूसरों की मदद करने, अच्छा सोचने और अच्छा करने वाले से अल्लाह न सिर्फ खुश ही होता है बल्कि नेकी करने वाले शख्स को बरकत और कामयाबी जैसे तमाम तोहफे भी बख्शता है।

न्तु सोचने और समझने वाली बात यह है कि क्या हम वाकई नेकी वाले काम करते हैं. यदि हाँ तो, हमें अल्लाह की भरपूर नेमतें मिलती हैं और यदि नहीं तो हमें यह भी सोच लेना चाहिए कि हमारे साथ क्या होना चाहिए. हम किसी को भी धोखा दे सकते हैं मगर अल्लाह को नहीं. वह हमारी एक एक हरकत पर नजर रखता है और हर हरकत का हिसाब भी रखता है। रमजान के पहले ही दिन से शैतान भी हमें तंग करना छोड़ देता है। यह इसलिए होता है कि अल्लाह शैतान को बांध देता है, ताकि नेक बन्दे नेकी करने में कामयाब हो सकें और शैतान उन्हें उनकी सही राह से भटका न सके। 

कहा जाता है कि अगर इस महीने में हम अपनी जरूरतों और ख्वाहिशों को कुछ कम कर लें और यही रकम जरूरतमंदों को दें तो यह हमारे लिए मिलने वाले बेहतर फल का कारण होगा। क्योंकि इस महीने में की गई एक नेकी का फल कई गुना बढ़ाकर अल्लाह की तरफ से अता होता है। 

मोहम्मद साहब तो हमेशा ही दूसरे लोगों की मदद करते रहे। उन्होंने अपने जानने में किसी को भूखा नहीं सोने दिया और अल्लाह से यही दुआ की कि कोई दुखी न रहे। लेकिन उन्होंने भी रमजान के महीने में अपनी नेकियों को बढाया। इस महीने को बेहद पवित्र और उपकारी मानते हुए ही हजरत मोहम्मद साहब भी पूरे महीने रोजे रखते थे और घूम घूमकर देखते थे कि उनके आसपास कोई परेशान तो नहीं है। हजरत साहब के द्वारा किए गए कार्यों को हदीस के रूप में जाना जाता है और रमजान के महीने में हदीसों की संख्या अधिक है। इसलिए आम मुसलमान को भी हदीसों को ध्यान में रखते हुए रमजान के पवित्र महीने में जितनी भी हो सके उतनी नेकी करनी चाहिए। 

इसलिए रमजान के पहले रोजे से ही नेकियों की फेहरिश्त बना कर कार्य करना चाहिए और पहले दिन की तरह हर एक रोजा रखना चाहिए। यही बात उस शख्स पर भी लागू होती है जो अपने जीवन का पहला रोजा रखता है। हर आदमी को अपना पूरा जीवन ही रमजान मानकर जीना चाहिए। फिर देखिए, अल्लाह उस शख्स को कितने तोहफे अता करता है। 


-पूर्णिमा शर्मा 


चक्रवर्ती विजयराघवाचारीअर


चक्रवर्ती विजयराघवाचारीअर का जन्म  18 जून 1852 को एक वैष्णव ब्राह्मण परिवार में हुआ. उनके पिता सद्गोपारचारीअर एक पुजारी थे और विजय को  प्रारंभिक शिक्षा के अंतर्गत संस्कृत भाषा और वेदों का अध्ययन कराया गया. उनका अंग्रेजी शिक्षण 12  वर्ष की आयु में प्रारंभ हुआ, और 1870 में मद्रास प्रेसीडेंसी में दूसरे रैंक के साथ हाई स्कूल की परीक्षा पास की.  1875 में प्रेसीडेंसी कॉलेज, मद्रास से स्नातक उपाधि अर्जित कर  वे वहीं लेक्चरर की पोस्ट पर नियुक्त हुए. 1881 में बिना कोई क्लास अटेंड किए उन्होंने लॉ परीक्षा पास की और प्लीडर बन गए.
1882 के सेलम दंगों के बाद से चक्रवर्ती विजयराघवाचारीअर दक्षिण भारत के शेर कहलाने लगे. वे न केवल झूठे इल्जामों से बरी हुए, बल्कि सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट फॉर इंडिया से 100 रुपए का खामियाजा भी हासिल किया और म्युनिसिपल काउंसिल में नियुक्ति भी. दंगों के सिलसिले में काला पानी की सज़ा काटते भारतीयों को भी निर्दोष साबित किया.
1885 में जब कांग्रेस की स्थापना हुई तो अपने मित्र ए ओ ह्यूम के साथ विजयराघवाचारीअर भी पहले अधिवेशन में पहुंचे. कांग्रेस की विचारधारा तय करने में इनका बड़ा योगदान था, और 1887 में कांग्रेस संविधान बनाने वाली कमेटी के मुख्य सदस्यों में वे भी थे. 1899 से कांग्रेस प्रोपेगंडा कमेटी के सदस्य बन इन्होंने कांग्रेस को जन से जोड़ने का सफल काम किया.
1920 में कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में विजयराघवाचारीअर को प्रेसिडेंट चुना गया. इस अधिवेशन में कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज की मांग रखी, और महात्मा गांधी के सुझाए असहयोग आंदोलन  के माध्यम से इसे पाने का फैसला किया. तभी से समाज सुधार की ओर उनका झुकाव कांग्रेस में भी दिखने लगा. 1931 में वे हिंदू महासभा के प्रेसिडेंट चुने गए और स्वामी शारदानंद के साथ  एंटी-अनटचएबिलिटी लीग का काम आगे बढाया. संपत्ति में बेटियों को हिस्सा देने की मांग भी विजयराघवाचारीअर ने उठाई. साइमन कमीशन के बाद विजयराघवाचारीअर की अंतिम उम्मीद लीग ऑफ़ नेशंस से थी. उनसे हस्तक्षेप की अपील उनका आखिरी राजनैतिक कदम था.
विजयराघवाचारीअर के मित्र केवल कांग्रेस में ही नहीं, बल्कि अंग्रेजों में भी थे – वाइसराय और गवर्नर्स, जैसे लार्ड रिपन लार्ड कर्जनलार्ड पेंटलैंड, लार्ड और लेडी हार्डिंग उनके अच्छे मित्र थे.  एर्द्ली नॉर्टन ने सेलम दंगों के बाद उनकी पैरवी कर उन्हें कालापानी से बचाया था.


11 अप्रैल, 1944 में अपनी मृत्यु तक भी विजयराघवाचारीअर कांग्रेस का मार्गदर्शन कर रहे थे – मद्रास जर्नल्स में लेखों के ज़रिये. कांग्रेस से अलग होने के बाद भी वे गांधी के विचार जन-जन तक पहुंचाने में लगे रहे. आज भी भारत इस शेर को याद करता है, और भारतीय पार्लियामेंट की दीवार पर उनकी तस्वीर सजी है.  
- पूर्णिमा शर्मा

राम प्रसाद बिस्मिल


11 जून 1897 को जन्मे राम प्रसाद बिस्मिल भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के प्रमुख सेनानी थे। सन् 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में स्वागताध्यक्ष पं॰ जगत नारायण ‘मुल्ला’ के आदेश की धज्जियाँ बिखेरते हुए रामप्रसाद ने जब लोकमान्य बालगंगाधर तिलक की पूरे लखनऊ शहर में शोभायात्रा निकाली तो सभी नवयुवकों का ध्यान उनकी दृढता की ओर गया। इसके पूर्व सन 1915 में भाई परमानन्द की फाँसी का समाचार सुनकर रामप्रसाद ब्रिटिश साम्राज्य को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा कर चुके थे। 

मैनपुरी षड्यंत्र में शाहजहाँपुर से 6 युवक शामिल हुए थे जिनके लीडर रामप्रसाद बिस्मिल थे किन्तु वे पुलिस के हाथ नहीं आये, तत्काल फरार हो गये। जनवरी 1923 में मोतीलाल नेहरू व देशबन्धु चितरंजन दास सरीखे धनाढ्य लोगों ने मिलकर स्वराज पार्टी बना ली। नवयुवकों ने तदर्थ पार्टी के रूप में रिवोल्यूशनरी पार्टी का ऐलान कर दिया। सुप्रसिद्ध क्रान्तिकारी लाला हरदयाल जी की सलाह मानकर राम प्रसाद इलाहाबाद गये और शचींद्रनाथ सान्याल के घर पर पार्टी का संविधान तैयार किया। ‘दि रिवोल्यूशनरी’ के नाम से अँग्रेजी में प्रकाशित इस क्रान्तिकारी (घोषणा पत्र) में क्रान्तिकारियों के वैचारिक चिन्तन को भली भाँति समझा जा सकता है।

पार्टी के कार्य हेतु धन की आवश्यकता थी किन्तु कहीं से भी धन प्राप्त होता न देख उन्होंने राजनीतिक डकैतियाँ डालीं। 6 अप्रैल 1927 को विशेष सेशन जज ए० हैमिल्टन ने 115 पृष्ठ के निर्णय में प्रत्येक क्रान्तिकारी पर लगाये गये आरोपों पर विचार करते हुए लिखा कि यह कोई साधारण ट्रेन डकैती नहीं, अपितु ब्रिटिश साम्राज्य को उखाड़ फेंकने की एक सोची समझी साजिश है। हालाँकि इनमें से कोई भी अभियुक्त अपने व्यक्तिगत लाभ के लिये इस योजना में शामिल नहीं हुआ परन्तु चूँकि किसी ने भी न तो अपने किये पर कोई पश्चात्ताप किया है और न ही भविष्य में इस प्रकार की गतिविधियों से स्वयं को अलग रखने का वचन दिया है अतः जो भी सजा दी गयी है सोच समझ कर दी गयी है और इस हालत में उसमें किसी भी प्रकार की कोई छूट नहीं दी जा सकती। फिर भी, इनमें से कोई भी अभियुक्त यदि लिखित में पश्चात्ताप प्रकट करता है और भविष्य में ऐसा न करने का वचन देता है तो उनकी अपील पर अपर कोर्ट विचार कर सकता है।

22 अगस्त 1927 को जो फैसला सुनाया गया उसके अनुसार राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र नाथ लाहिड़ी व अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुर रोशन सिंह को फाँसी का हुक्म हुआ।  चीफ कोर्ट का फैसला आते ही समूचे देश में सनसनी फैल गयी। 16 दिसम्बर 1927 को बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा का आखिरी अध्याय पूर्ण करके जेल से बाहर भिजवा दिया। 18 दिसम्बर 1927 को माता-पिता से अन्तिम मुलाकात की और सोमवार 19 दिसम्बर 1927 को प्रातःकाल 6 बजकर 30 मिनट पर गोरखपुर की जिला जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी।


बिस्मिल के बलिदान का समाचार सुनकर बहुत बड़ी संख्या में जनता जेल के फाटक पर एकत्र हो गयी। जेल का मुख्य द्वार बन्द ही रक्खा गया और फाँसीघर के सामने वाली दीवार को तोड़कर बिस्मिल का शव उनके परिजनों को सौंप दिया गया। शव को डेढ़ लाख लोगों ने जुलूस निकाल कर पूरे शहर में घुमाते हुए राप्ती नदी के किनारे राजघाट पर उसका अन्तिम संस्कार किया।
- पूर्णिमा शर्मा

पंडित ओंकारनाथ ठाकुर


ओंकारनाथ ठाकुर (1897-1967) भारत के शिक्षाशास्त्री, संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार थे। उनका सम्बन्ध ग्वालियर घराने से था। उन्होंने वाराणसी में महामना पं॰ मदनमोहन मालवीय के आग्रह पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संगीत के आचार्य पद को सुशोभित किया। वे तत्कालीन संगीत परिदृश्य के सबसे आकर्षक व्यक्तित्व थे। पचास और साठ के दशक में पण्डितजी की महफिलों का जलवा पूरे देश के मंचों पर छाया रहा। पं॰ ओंकारनाथ ठाकुर की गायकी में रंजकता का समावेश तो था ही, वे शास्त्र के अलावा भी अपनी गायकी में ऐसे रंग उड़ेलते थे कि एक सामान्य श्रोता भी उनकी कलाकारी का मुरीद हो जाता। उनका गाया ‘वंदेमातरम’ या ‘मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो’ सुनने पर एक रूहानी अनुभूति होती है।

श्री ओंकारनाथ ठाकुर का जन्म गुजरात के बड़ोदा राज्य में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके दादा महाशंकर जी और पिता गौरीशंकर जी नाना साहब पेशवा की सेना के वीर योद्धा थे। 24 जून 1897 को उनकी चौथी सन्तान ने जन्म लिया। ओंकार-भक्त पिता ने पुत्र का नाम ओंकारनाथ रखा। जन्म के कुछ ही समय बाद यह परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया। ओंकारनाथ जी का लालन-पालन और प्राथमिक शिक्षा यहीं सम्पन्न हुई। इनका बचपन अभावों में बीता। यहाँ तक कि किशोरावस्था में ओंकारनाथ जी को अपने पिता और परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए एक मिल में नौकरी करनी पड़ी। ओंकारनाथ की आयु जब 14 वर्ष थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भड़ौच के एक संगीत-प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकार की प्रतिभा को पहचाना और उनके बड़े भाई को बुला कर संगीत-शिक्षा के लिए बम्बई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने को कहा। पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उनकी संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई।
विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय, मुम्बई में प्रवेश लेने के बाद ओंकारनाथ जी ने वहाँ के पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम को तीन वर्ष में ही पूरा कर लिया और इसके बाद गुरु जी के चरणों में बैठ कर गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत की गहन शिक्षा अर्जित की। 20 वर्ष की आयु में ही वे इतने पारंगत हो गए कि उन्हें लाहौर के गन्धर्व संगीत विद्यालय का प्रधानाचार्य नियुक्त कर दिया गया। 1934 में उन्होंने मुम्बई में ‘संगीत निकेतन’ की स्थापना की। 1950 में उन्होंने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के गन्धर्व महाविद्यालय के प्रधानाचार्य का पदभार ग्रहण किया और 1957 में सेवानिवृत्त होने तक वहीं रहे।


पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर का व्यक्तित्व जितना प्रभावशाली था, उतना ही असरदार उनका संगीत भी था। एक बार महात्मा गाँधी ने उनका गायन सुन कर प्रशंसा की थी कि पण्डित जी अपनी मात्र एक रचना से जनसमूह को इतना प्रभावित कर सकते हैं, जितना मैं अपने अनेक भाषणों से भी नहीं कर सकता। उन्होंने एक बार सर जगदीशचन्द्र बसु की प्रयोगशाला में ‘पेड़-पौधों पर संगीत के स्वरों का प्रभाव’  विषय पर अभिनव और सफल प्रयोग किया था। उनके संगीत में ऐसा जादू था कि आम से लेकर खास तक कोई  भी व्यक्ति सम्मोहित हुए बिना नहीं रह सकता था।

- पूर्णिमा शर्मा