मंगलवार, 1 मार्च 2016

नई सदी का हिंदी आत्मकथा साहित्य

नई सदी के हिंदी आत्मकथा साहित्य पर चर्चा करते समय सबसे पहले तो यह तथ्य विचारणीय है कि नई सदी या उसके आरंभ से ठीक पूर्व के दशक में प्रायः सभी भारतीय भाषाओं में आत्मकथा साहित्य ने नई करवट ली. इससे पहले यह समझा जाता था कि आत्मकथा का चरितनायक कोई ‘महापुरुष’ होना चाहिए. शायद यही कारण है कि आत्मकथाएँ अपेक्षया कम लिखी जाती थीं. लेकिन 1990 के दशक के आसपास महान नायकत्व का यह महा-आख्यान टूटा और कल तक जिन्हें लघु, तुच्छ, हीन कहकर हाशिए पर रखा गया था उन अति साधारण मनुष्यों ने अपनी अस्मिता की खोज करते हुए अभिव्यक्ति के जो मार्ग तलाशे उनमें उनकी पीड़ा, कड़वाहट, खिन्नता, संघर्ष और गुस्से को व्यक्त करने के लिए आत्मकथा सबसे उपयुक्त विधा सिद्ध हुई. स्त्री, दलित, आदिवासी आदि समुदायों से आने वाले इन लेखकों के भीतर सदियों का जो हाहाकार समाया हुआ था उसे व्यक्त होने के लिए किसी काल्पनिक वृत्त की आवश्यकता नहीं थी, उसकी सीधी, सच्ची, बेबाक अभिव्यक्ति ने आत्मकथा का जो रास्ता चुना वह उसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता की स्वयं गारंटी है.

यहाँ मैं केवल दो साहित्यकारों की आत्मकथा का उल्लेख करना चाहूँगी. एक हैं मैत्रेयी पुष्पा जिनकी आत्मकथा दो खंडों में आ चुकी है – ‘कस्तूरी कुंडल बसै’(2003) और ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ (2008). दूसरे रचनाकार हैं डॉ. तुलसीराम. इनकी आत्मकथा भी दो खंडों में है – ‘मुर्दहिया’ (2010) और ‘मणिकर्णिका’ (2014). ये दोनों ही रचनाकार स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के अग्रणी हस्ताक्षर हैं और इनकी आत्मकथाएँ केवल इसलिए महत्वपूर्ण नहीं हैं कि वे किसी एक स्त्री या किसी एक दलित के जीवन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं, बल्कि इसलिए अधिक महत्वपूर्ण हैं कि विशिष्ट होते हुए भी अपने संघर्ष के धरातल पर ये दोनों ही लेखक क्रमशः ‘सामान्य स्त्री’ और ‘सामान्य दलित’ हैं. साधारणीकरण की पहली शर्त ही यह है कि आलंबन अपने वैशिष्ट्य को छोड़कर इस तरह सर्वसाधारण बन जाए कि आलंबन-धर्म का संप्रेषण सहज संभव हो. इस कसौटी पर मैत्रेयी पुष्पा और डॉ. तुलसीराम की ये आत्मकथाएँ एकदम खरी हैं क्योंकि मैत्रेयी पुष्पा यहाँ ‘व्यक्ति मैत्रेयी पुष्पा’ नहीं हैं बल्कि उनका ‘स्त्री होना’ पूरी गाथा के केंद्र में है. इसी प्रकार डॉ. तुलसीराम यहाँ ‘व्यक्ति तुलसीराम’ के रूप में केंद्र में नहीं हैं बल्कि अपने पूरे समुदाय के ‘दालित्य-भाव’ को अग्रप्रस्तुत करते हैं. अर्थात पहले की, महापुरुषों की, आत्मकथाओं की तुलना में 21वीं सदी के इन रचनाकारों की आत्मकथाएँ साधारण स्त्री और साधारण दलित की ऐसी आत्मकथाएँ हैं जिनमें निहित स्त्री-पीड़ा और दालित्य-भाव आलंबन-धर्म के रूप में साधारणीकृत होकर पाठक को विचलित करते हैं. ये आत्मकथाएँ प्रेरणा का आदर्श स्थापित करने के लिए नहीं हैं बल्कि परिवर्तन की बेचैनी पैदा करने के लिए हैं. ऐसे अनेक उदाहरण दोनों आत्मकथाओं से दिए जा सकते हैं जहाँ ये रचनाकार अपने आत्म को अनावृत करने के बहाने समाज के घिनौने चेहरे का पर्दाफाश करते हैं. इसलिए, मैत्रेयी पुष्पा और तुलसीराम का आत्मकथा-लेखन केवल रचनाकार का आत्मालोचन नहीं है बल्कि अपने आपको खतरे में डालकर की गई निर्मम समाज-समीक्षा है.

‘कस्तूरी कुंडल बसै’ में लेखिका का मुख्य उद्देश्य अपने पारिवारिक और दांपत्य जीवन की सच्चाई का बयान करना भर नहीं है. बल्कि जैसा की अमरीक सिंह दीप कहते हैं, ‘मुख्य मुद्दा तो पुरुषवादी व्यवस्था द्वारा स्त्री पर लादी गई गुलामी से मुक्ति और स्त्री सशक्तीकरण का ही है. बेशक इस आत्मकथा में स्त्री के अंतर्जगत के कई ऐसे अछूते स्थलों, कई ऐसे गुप्त गृहों और उनमें रखे बक्से, पिटारियों और पोटलियों से पाठक का साक्षात्कार होता है जहाँ अभी तक कोई कोलंबस नहीं पहुंचा. इसके लिए लेखिका ने अपनी कमजोरियों से भी जमकर मुठभेड़ की है.’ दूसरे भाग ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ में मैत्रेयी पुष्पा ने पत्नी-भाव और स्त्री-भाव के जिस द्वंद्व को उभारा है वह भारतीय समाज के मूलभूत द्वंद्व का प्रतिबिंब है. एक स्त्री के रूप में इस आत्मकथा की नायिका को बंधन रास नहीं आते, बंधनों में वह छटपटाने लगती है. लेकिन पुरुष मानसिकता इस स्त्री मानस को समझने के लिए तैयार नहीं है और यहीं नैतिकता की पारंपरिक धारणा और उसके औचित्य पर स्त्री-कोण से विमर्श उभरकर सामने आता है. अस्मिता और नैतिकता के द्वंद्व में लेखिका किसी आदर्श को नहीं ओढ़तीं और उनकी गतिविधियाँ पारंपरिक स्त्री संहिता के प्रतिवाद की तरह उभरती हैं. मानना होगा कि मैत्रेयी पुष्पा ने डॉ. सिद्धार्थ के साथ अपने संबंधों को लगभग आत्महंता बेबाकी के साथ स्वीकार किया है. यहाँ सबसे दिलचस्प और नाटकीय संबंध है पति और मैत्रेयी के बीच, जो पत्नी की सफलताओं पर गर्व और यश को लेकर उल्लसित हैं मगर सम्पर्कों को लेकर‘मालिक’ की तरह सशंकित. एक उदाहरण देकर मैं दूसरे रचनाकार की ओर बढूंगी. उद्धरण इस प्रकार है –

‘’डॉक्टर सिद्धार्थ!
मेरा हाथ पकड़कर उठाते हुए. पता नहीं कितना अपनत्व था, कितनी चुनौती थी?
या परीक्षाकाल दोनों का?
हाथ पकड़कर खींचने वाला मीत ... मैंने अनुमति के लिए पति की ओर देखा नहीं. अपना निर्णय अपने हाथ में ले लिया, खतरों के बारे में सोचा नहीं.
मैं नाच रही थी किसी के साथ-साथ, अनगढ़ और आदिम सा नाच ... जैसे मेरे जीवन-मूल्यों का हिस्सा यह भी हो. जब-जब मेरा पाँव डॉ. सिद्धार्थ के पाँव पर पड़ जाता, वे मुस्कुराकर मुझे संभाल लेते. यह परिचय का अगला चरण, उस जानकारी का मुझे कोई इल्म न था.’’ 

बकौल जगदीश्वर चतुर्वेदी, “मैत्रेयी पुष्पा अपनी आत्मकथा में दोहरा जीवन, दोहरी अस्मिता, दुरंगे मूल्य, दुरंगे विचार, दोहरा सामाजिक जीवन आदि को बेपर्दा करती हैं. इस तरह वे दो मैं, दो अस्मिता, दो तरह का जीवन, दोहरी जिम्मेदारियाँ, दो तरह की चेतना, दो तरह के सामंजस्यहीन विचार और भावबोध को व्यक्त करने में सफल रही हैं. वे अपने जीवन में व्याप्त इस ‘दो’ को व्याख्या के जरिए बताती जाती हैं और उसके अनुभवों को ऐतिहासिक-सामाजिक संदर्भ में पेश करती हैं.’’ 

अब कुछ बात डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा पर. ‘मुर्दहिया’ और ‘मणिकर्णिका’ दोनों ही श्मशान घाट हैं. ‘मुर्दहिया’ इस अर्थ में अन्य दलित आत्मकथाओं से अलग है कि इसमें कथानायक ने स्वयं ही अपने स्थान पर अपने परिवेश और लोकजीवन को नायकत्व प्रदान किया है. वे मानते हैं कि उस दलित बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुःख-दर्द अपने अंदर लिए ‘मुर्दहिया’ में दफ़न हैं. यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक मुर्दहिया ही होगा. मुर्दहिया के नारकीय जीवन का अनुमान इसी से किया जा सकता है कि वहाँ के दलितों को भुखमरी की स्थिति में चूहे मारकर खाने पड़ते हैं और चूहों के बिलों को खोदकर प्राप्त किए गए अनाज पर भी गुजारा करना पड़ता है. बिना टिप्पणी के एक उद्धरण प्रस्तुत है –

“शुरू-शुरू में जब तेज बारिश से कट चुकी फसलों वाले खेतों में पानी भर जाता, तो उनके अंदर बिल बनाकर रहने वाले हजारों चूहे डूबते हुए पानी की सतह पर ऊपर आ जाते थे. गाँव के बच्चे तरकुल या खजूर के पत्तों से बनी झाड़ू लेकर उन चूहों पर टूट पड़ते थे तथा उन्हें मार-मारकर ढेर सारा घर लाते. मैं भी अन्य बच्चों के साथ टिन की बाल्टी तथा झाडू लेकर जाता और झाडू से चूहों को मार-मारकर बाल्टी भर जाने पर उन्हें घर लाता. इन चूहों को पहले घर के लोग रहट्ठा यानी अरहर का डंठल जलाकर उस पर खूब सेंकते थे. इस तरह चूहों के बाल बिल्कुल जल जाते थे. इसके बाद उन्हें साफ़ करके बोटी-बोटी काट दिया जाता. फिर मसाला डालकर उसका मांस पकाकर खाया जाता था. इस तरह के मैदानी चूहों का मांस बहुत स्वादिष्ट होता था. उन बरसाती कड़की के दिनों में इस प्रकार के चूहे जब तक उपलब्ध रहते सभी दलित दाल-सब्जी के बदले उन्हीं से गुजारा करते थे. बरसाती मछलियाँ भी उस गरीबी में बड़ी राहत पहुँचाती थीं, किंतु वे कुछ देर से नदी-नालों में उपलब्ध होती थीं. जहाँ तक चूहों का सवाल है, वे जौ और गेहूं की बालियाँ अकसर काटकर खेतों में ही अपनी गहरी-गहरी बिलों में ढेर सारा जमाकर लेते. गाँव के मेरे जैसे बच्चे उन बिलों को खोदकर उससे बालियाँ निकाल लेते थे. एक-एक बिल से एक से लेकर दो किलो तक अनाज निकल जाते थे.”

ऐसे जीवित श्मसान से भागकर तुलसीराम बनारस पहुँचते हैं. जहाँ वे क्रमशः अंधविश्वासी मान्यताओं से लेकर ईश्वर तक से मुक्त होते हैं. इस मुक्तियात्रा में बुद्ध और मार्क्स उन्हें रास्ता दिखाते हैं और वे ऐसी विश्व-दृष्टि से अपने आपको जोड़ते हैं जिसके चलते उनका व्यक्तिगत दुःख दुनिया के दुःख में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठता है. ‘मुर्दहिया’ में जो विचार सुप्त अवस्था में थे, वे ‘मणिकर्णिका’ में विकसित हुए. चाहे क्रांति का सपना हो या एक तरफ़ा प्यार. दोनों का लेखक ने खूब मजा लिया और उसके बाद वे दिल्ली चले गए. यदि जीवित रहते तो शायद दिल्ली के अनुभवों को भी तीसरे खंड में लिखते. फिलहाल इतना ही कि ‘मणिकर्णिका’ बनारस के दोहरे बौद्धिक चरित्र का तो खुलासा करती ही है जिसमें छुआछूत और सर्वसमावेशी औघड़पना एक साथ विद्यमान हैं, साथ ही समसामयिक चुनावी राजनीति से लेकर नक्सलवाद तक की भी पड़ताल करती है. 

अभिप्राय यह है कि मैत्रेयी पुष्पा और डॉ. तुलसीराम दोनों ही की आत्मकथाएँ ‘आत्म’ के बहाने समाज को आईना दिखाने वाली उत्कृष्ट साहित्यिक कृतियाँ हैं और नई सदी के तमाम मुख्य रुझानों का प्रतिनिधित्व करती हैं.
-    डॉ. पूर्णिमा शर्मा
                             

सच और कड़वाहट

सत्य या सच के साथ मुहावरे की तरह दो विशेषणों का प्रयोग होता है. एक है नग्न और दूसरा है कटु. आपने भी बहुत बार यह कहा-सुना होगा कि सच नंगा होता है और सच कड़वा होता है. मुझे लगता है कि सच के नग्न होने का अर्थ है कि जहाँ कोई पर्दा हो, आवरण हो, दुराव-छिपाव हो वहां झूठ और पाखंड निवास करता है, सत्य नहीं. जब किसी तथ्य पर से सारे परदे हट जाएं तब जो बचता है वह ही सत्य है और अपनी इस बेपर्दगी या नग्नता के कारण ही वह विश्वसनीय होता है.

लेकिन सत्य का केवल विश्वसनीय होना काफी नहीं. उसे हितकर भी होना चाहिए. ऐसा सत्य मनुष्यता के किसी काम का नहीं जो हितकर न हो – भले ही वह हद दर्जे का नंगा सच हो. सत्य के साथ शिवत्व का गठबंधन उसके ऊपर लोक-हित की जिम्मेदारी भी डालता है. लोक-हित के लिए यह आवश्यक है कि यदि कहीं कुछ ऐसा है जो अशिव है या अहितकर है या समाज के सात्विक सौन्दर्य को हानि पहुँचाने वाला है तो उसकी चिकित्सा मधुर वचन रूपी मीठी गोलियों से नहीं की जा सकती. ऐसे में सामाजिक स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कटु सत्य अथवा कड़वे सच की ज़रुरत होती ही है.

कड़वे सच या सच में मिली कड़वाहट के उदाहरण के रूप में हमें उन संतों और भक्तों की बानियों को याद करना चाहिए जिन्होंने प्राणों की परवाह किए बिना इस कड़वे सच की घोषणा की थी कि राज-दरबार में जाने से बुद्धिजीवी व्यक्ति का सम्मान बढ़ता नहीं, बल्कि घट जाता है क्योंकि उसे ऐसे अयोग्य व्यक्तियों के सामने झुक कर सलाम करना पड़ता है जिनको देखने मात्र से दुःख उत्पन्न होता है. भक्त कवि कुम्भन दास के शब्दों में – ‘’ संतन को कहा सीकरी सो काम/ आवत जात पनहिया टूटी, बिसरि गयो हरिनाम / जिनकौ मुख देखै दुःख उपजत, तिनको करन परी परनाम / कुम्भनदास लाल गिरिधर बिनु, और सबे बेकाम.” 

कड़वे सच के प्रबल प्रयोक्ता और समर्थक के रूप में हम संत कबीर को भला कैसे भूल सकते हैं. स्वर्ग और जन्नत के ठेकेदार बन कर बैठे हुए तथाकथित मार्गदर्शकों को चाहे जितना बुरा लगे, व्यापक लोक-हित में कड़वा सच बोलने से कबीर पीछे नहीं हटते. कहा जाता है कि अनेक बार उन्हें समाप्त करने या मारने के प्रयास किए गए पर उन्होंने सच की कड़वाहट को बरकरार रखा और बीच बाज़ार खड़े होकर पाखंडियों को ललकारते रहे. जो लोग खुद देह-व्यापार करने वाली स्त्रियों के तलवे चाटते हैं वे भला सच्चरित्रता के उपदेश कैसे दे सकते हैं?- यह पूछते हुए कबीर ने एक-एक को फटकार लगाई और पाखंड का खंडन करने के लिए कड़वे सच के प्रयोग का आदर्श स्थापित किया. आधुनिक युग में महर्षि दयानंद ने भी पाखंड का खंडन करने के लिए यही मार्ग अपनाया. अतः कहा जा सकता है कि कड़वा सच ही सामाजिक रोगों की दवा है. 

- डॉ. पूर्णिमा शर्मा , 208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल – 08297498775. 







वन्य प्राणियों से प्रेमपूर्ण व्यवहार


हम मनुष्य हैं. हमने लम्बी साधना करके मनुष्यता का विकास किया है. यह मनुष्यता ही हमें जगत के अन्य समस्त प्राणियों से श्रेष्ठ बनाती है. इसका आधार वे सुनहरे सिद्धांत हैं जिन्हें हम मानव-मूल्य और जीवन-मूल्य कहते हैं. इन उत्तम मूल्यों में जीवन को सुंदर और धरती को सुरक्षित रखने के सिद्धांत तो निहित हैं ही, मानवेतर सृष्टि के साथ हमारे व्यवहार के सूत्र भी छिपे हैं. जब कोई भारतीय कवि यह कहता है कि यह मेरा है और वह पराया है, ऐसा भेदभाव करने वाले लोग ओछे मन के लोग होते हैं क्योंकि खुले दिल वाले लोगों के लिए तो यह सारी धरती अपना ही कुटुंब है; तो वह यह संदेश दे रहा होता है कि संपूर्ण जगत के मानवों ही नहीं, समस्त प्राणियों और प्राकृतिक संपदा के प्रति भी वैसा ही प्रेमपूर्ण व्यवहार करो जैसा अपने रक्त-सम्बन्धियों से करते हो.

यहीं से शुरूआत होती है उस व्यापक करुणा भाव की जिसकी जड़ में समस्त सृष्टि के प्रति अहिंसक व्यवहार का उच्च विचार निहित है. वन्य प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा का भाव इस जगत को तपोवन जैसा शांत बना सकता है. आपने बुद्ध और महावीर की वे कथाएँ अवश्य सुनी होंगी जिनमें बताया जाता है कि उनके तप के प्रभाव से भीषण नाग और भयानक शेर भी पालतू पशुओं की तरह विनम्र हो गए थे. ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं कि किसी गुरुकुल में स्वाभाविक वैर भुलाकर तमाम वन्य प्राणी एक साथ निवास करते थे. मेरे मतानुसार तो ये केवल कथाएँ नहीं हैं बल्कि इस सत्य के प्रमाण हैं कि प्रेम और करुना से भरे व्यवहार द्वारा वन्य प्राणी आश्वस्त होकर अपने हिंसक स्वभाव को भी बदल सकते हैं. प्रेम की इस शक्ति को आप उस कहानी में भी पहचान सकते हैं ण एक व्यक्ति शेर के पंजे से काँटा निकाल कर उसे पीड़ामुक्त करता है और शेर आजीवन उसका अहसानमंद रहते हुए उसकी रक्षा करता है – भूख से बिलबिलाने पर भी उसके ऊपर नहीं झपटता. 

इन सब बातों से यह पता चलता है कि मानवों और वन्य प्राणियों में कोई नैसर्गिक वैर-भाव नहीं है. परंतु एक दूसरे के स्वभाव और मनोभाव से परिचित न होने के कारण दोनों एक दूसरे के बारे में आशंकित रहते हैं. आशंका भय को जन्म देती है और भय शत्रुता का जनक है. शत्रुता हिंसा की माँ है अतः मनुष्य और पशु दोनों ही एक दूसरे के प्रति घातक बन जाते हैं. भारतीय ऋषियों ने इस स्वाभाविक दुर्बलता को पहचाना था. इसीलिए उन्होंने यह कामना की थी कि समस्त पृथ्वी, पर्यावरण, प्रकृति और प्राणी शांति का अनुभव करें. यह शांति ही आज भी हमारी बड़ी ज़रुरत है. हमें इस पृथ्वी की वैविध्यपूर्ण जीव-संपदा को बचाए रखना है तो वन्य प्राणियों के साथ भी मैत्री और प्रेम का व्यवहार सीखना होगा! 

- डॉ. पूर्णिमा शर्मा , 208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल – 08297498775. 



माँ

भारतीय परंपरा में माँ को इतना अधिक महत्त्व और सम्मान दिया गया है कि यदि यह कहा जाए कि भारतीय संस्कृति माँ पर केन्द्रित संस्कृति है तो इसमें कोई अतिशयोक्ति न होगी. माँ जननी और पालन करने वाली तो है ही, ममता और वात्सल्य के रूप में ईश्वर की तरह सर्व-व्यापक भी है. सबसे बड़ी बात यह है कि माँ वह प्यार भरा आश्रय है जो दैहिक, दैविक और भौतिक सब प्रकार के संतापों से अपनी संतान की रक्षा करता है. संतान की समस्त बाधाओं और दुविधाओं को नष्ट करने में सदा समर्थ होने के कारण ही माँ को मातृ-शक्ति के रूप में प्रत्येक स्त्री के हृदय में विराजमान माना गया है. मातृ-शक्ति रूपी दुर्लभ वरदान के कारण ही स्त्री-जाति को पूजनीय माना गया है और यह घोषणा की गई है कि माँ के चरणों में समस्त तीर्थ ही नहीं वरन स्वर्ग का निवास है. इसलिए माँ की सेवा सर्वोपरि पुण्य और माँ की उपेक्षा सबसे निकृष्ट पाप है. 

माँ संतान का प्रथम गुरु होती है. माँ ही बच्चे के संस्कार और स्वभाव का निर्माण करती है. यदि कोई बच्चा राम या लक्ष्मण बनता है तो इसका श्रेय कौशल्या और सुमित्रा जैसी माँ को दिया जाना चाहिए. इसी प्रकार जब कोई बच्चा रावण या दुर्योधन बनता तो उसके लिए भी कहीं न कहीं कैकसी और गांधारी जैसी माँ ही जिम्मेदार होती है. यही कारण है कि माँ का अपना कर्त्तव्य अत्यंत दुष्कर है. उसे ममता की छाया भी बनना होता है और अपने मन-वचन-कर्म से जीवन-मूल्यों का आदर्श भी अपनी संतान के समक्ष प्रस्तुत करना होता है. आप सबने वह लोक कथा सुनी होगी कि एक भयानक डाकू ने फांसी पर चढ़ने से पहले अपनी माँ की नाक काट ली थी क्योंकि वह मानता था कि यदि पहले अपराध पर ही माँ ने कठोर रुख अपनाया होता तो वह व्यक्ति डाकू न बन पाता. यद्यपि यह एक अपराधी का अपने अपराधों की जिम्मेदारी दूसरे पर डालने जैसा है, लेकिन इससे यह तो पता चलता ही है कि माँ हमारे चरित्र-निर्माण की बुनियाद है. 

मैं प्रायः यह महसूस करती हूँ कि आज की दौड़-धूप और गलाकाट आपाधापी के युग में इस बात का पूरा खतरा है कि हमारे बच्चे मशीनों और रोबोट की तरह हृदयहीन हो जाएं. यदि ऐसा हुआ तो मानना होगा कि मनुष्यता पाशविक वृत्तियों के हाथों पराजित हो गई. यह ठीक है कि मनुष्य के भीतर सारे पाशविक विकार विद्यमान होते हैं. लेकिन यह भी उतना ही ठीक है कि मनुष्य के भीतर देवत्व की सारी संभावनाएं होती हैं. मनोविकारों का उन्नयन करके ही मनुष्य देवत्व की ऊंचाई प्राप्त करता है; और मनोविकारों के उन्नयन की पाठशाला माँ की गोद है. अतः हम माताओं को चाहिए कि अपने बच्चों को उदार ह्रदय वाले मनुष्य बनाएं , हृदयहीन रोबोट नहीं.



- डॉ. पूर्णिमा शर्मा , 208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल – 08297498775. 



महँगाई


रोटी-रोजी की व्यवस्था के लिए जीवन की आपाधापी में लगे साधारण नागरिक के जीवन को जो चिंताएं कै जाती हैं, उनमें ‘महँगाई’ का स्थान संभवतः सबसे ऊपर है. आम नागरिक रूपी हनुमान की विकास-यात्रा के मार्ग में मुँह फाड़े बैठी सुरसा है – महँगाई. अर्थशास्त्र की शब्दावली में, वस्तुओं और सेवाओं के दामों में स्थिर वृद्धि को महँगाई कहते हैं. इससे मुद्रा की खरीद-शक्ति कम होती है. अर्थ-व्यवस्था में विकास बनाए रखने के लिए सकारात्मक महँगाई का बने रहना आवश्यक माना जाता है. भारत जैसे विकासशील देश में महँगाई कम रखने पर विकास की दर भी कम हो जाती है. उदहारण के लिए अगर मकानों के दाम गिरने लगते हैं, या अगर दाम गिरने का अंदेशा भी होता है – तो लोग मकान खरीदना बंद कर देते हैं. इससे दाम और भी गिर जाते हैं और जिन बैंकों ने इन घरों के लिए लोन दिए थे उन्हें बहुत घाटा होता है क्योंके पहले दी गई गारंटी अब लोन की राशि को कवर नहीं करती. लेकिन दूसरी ओर, महंगाई की दर ज्यादा बढ़ने पर समाज के एक बड़े हिस्से के लिए अनिवार्य वस्तुएं और सेवाएं तक खरीद पाना मुश्किल हो जाता है. 

कीमतों का स्तर केवल वस्तुओं और सेवाओं की सप्लाई और डिमांड पर निर्भर करता है, पर साथ ही यह धन की आपूर्ति पर भी निर्भर है. इसीलिए तेज़ी से बढती महंगाई पर लगाम कसने के लिए सरकार ब्याज-दरें बढ़ा देती है, जिससे अर्थ-व्यवस्था में उपलब्ध पैसे ‘सूख’ जाते हैं और चीज़ों के दाम कम हो जाते हैं. मगर इसका एक परिणाम यह भी होता है कि लंबी अवधि में उत्पादन-क्षमता भी कम हो जाती है.

अगर अर्थ-व्यवस्था में अतिरिक्त क्षमता हो, या क्षमता बढाई जा सकती हो – तो धन की आपूर्ति बढाने से कीमतों का स्तर नहीं बढ़ता, बल्कि क्षमता का उपभोग बढ़ जाता है. भारत में अतिरिक्त क्षमता तो नहीं है, पर हम अपनी क्षमता बढ़ाना चाहते है. ऐसा करने के लिए यह आवश्यक है कि सतत माँगऔर बढ़ते मूल्य-स्तर दिखाई दें. ऐसा करने का एक अच्छा तरीका है “मेक इन इंडिया”. इस पहल से भारत में विदेशों से सतत माँग बनाई जा रही है, और इसके लिए भारत में क्षमता का विस्तार किया जाएगा. साथ ही, इससे भारत में धन की आपूर्ति भी बढ़ेगी. अगर आर्थिक विकास की दर इस धन-आपूर्ति की दर से कम होगी तो भारत में महंगाई भी बढ़ेगी. यही चीन में भी देखा गया हैं, जहाँ सरकार कृत्रिम ढंग से महँगाई को बांधे रखने में कामयाब नहीं रह पाई है. परन्तु भारत में अभी क्षमता-निर्माण की बड़ी संभावनाएँ हैं – इस कारण यह आशा की जा सकती है कि आर्थिक-विकास की डर बढ़ेगी और महँगाई पर वस्तुतः नियंत्रण लग सकेगा. 

- डॉ. पूर्णिमा शर्मा , 208-ए, सिद्धार्थ अपार्टमेंट्स, गणेश नगर, रामंतापुर, हैदराबाद – 500013. मोबाइल – 08297498775.