रविवार, 10 अगस्त 2014

हमारे धार्मिक पर्व : एक सामाजिक दृष्टिकोण (जन्माष्टमी और गणेश उत्सव का विशेष संदर्भ)

रेडियो वार्ता: डॉ. पूर्णिमा शर्मा

हमारा देश भारतवर्ष धर्मप्राण देश है। इसकी संस्कृति दुनिया की सबसे प्राचीन और निरंतर विकसित होने वाली संस्कृति है. भारतीय संस्कृति में जहां धर्म और अध्यात्म बृहद रूप में विद्यमान है वहीं बिना पर्वों के इसके रूपरेखा भी पूर्ण नहीं हो सकती। हम भारतीय स्वभाव से ही आनंदजीवी और उत्सवप्रेमी होते हैं. इस तथ्य से आप इनकार नहीं कर सकते कि भारतीय संस्कृति को विराट एवं विशेष रूप देने में और इसे जीवंत रखने में पर्वों की बहुत बड़ी भूमिका है। भारत के पर्व न केवल धर्म बल्कि हमारे सामाजिक जीवन का भी विशिष्ट अंग हैं. . भारत के पर्वों की सूची इतनी विराट है कि उनका एक साथ वर्णन नहीं किया जा सकता। वर्ष भर में शायद ही कोई ऐसा दिन हो जब यहां पर्व न हो। यहां तो प्रतिदिन पर्व हैं। इन पर्वों से हमारे आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा आदि का तो पता चलता ही है, साथ ही इतने विशाल राष्ट्र में एक साथ मिलजुल कर पर्वों को मनाना भारत की एकता और अखंडता का भी अकाट्य सबूत है। 

यदि भारतीय पर्वों के उद्भव या विकास को यदि देखें तो पता चलता है कि प्रत्येक पर्व के पीछे एक पौराणिक आख्यान अवश्य होता है अर्थात यहां कोई भी पर्व मनगढंत या किसी के मन की उत्पत्ति नहीं है। सतयुग से लेकर वर्तमान तक जो भी दैविक, धार्मिक या आध्यात्मिक घटनाएं व्यापक समाज के अनुभव में आईं, उन्हीं से हमारे पर्वों का जन्म हुआ है जिससे प्रत्येक पर्व में एक विशिष्ट सामाजिक सन्दर्भ छिपा रहता है. है जैसे यदि जन्माष्टमी पर्व श्रीकृष्ण के जन्म से जुड़ा है तो गणेशोत्सव का संबंध गणेश के जन्म से है. आप जानते ही हैं कि कृष्ण और गणेश दोनों का जन्म लोकरक्षण और समाजकल्याण के लिए हुआ था. इन दोनों पर्वों के माध्यम से आज भी हम भारतीय जन सामाजिक, पारिवारिक, राष्ट्रीय और व्यक्तिगत जीवन को मूल्यवान बनाने वाले कर्म की प्रेरणा प्राप्त करते हैं.

जैसा कि आप जानते हैं कि भारतीय समाज में प्रचलित कुछ पर्व सार्वदेशिक हैं जो पूरे राष्ट्र में एक साथ मनाये जाते हैं और कुछ प्रादेशिक हैं. जन्माष्टमी और गणेशोत्सव इनमें से पहले वर्ग में आते हैं क्योंकि ये किसी न किसी रूप में देश भर में मनाए जाते है. यहाँ तक कि विदेशों में भी जहाँ जहाँ भारतवंशी हैं, वहाँ वहाँ ये दोनों पर्व भी हैं.

यह तो आम तौर पर सभी को मालूम है कि जन्माष्टमी भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि और रोहिणी नक्षत्र अर्धरात्रि के समय मथुरा में कंस के कारागार में श्री कृष्ण का जन्म हुआ. जिन्होनें उस समय के समाज को तानाशाही शक्तियों से मुक्त किया और न्याय के शासन की स्थापना के लिए महाभारत जैसे महा युद्ध के भी सूत्रधार बने. जन्माष्टमी के माध्यम से हम अपने आपको लोकतंत्र तथा न्यायपूर्ण सामजिक, राजनैतिक व्यवस्था के प्रति समर्पित करते हैं. यदि हम ऐसा नहीं करते हैं, तो इस तिथि पर व्रत-उपवास रखना, मेले और उत्सव बनाना सब बेकार होगा. भारत के सभी प्रांतों में जिस श्रद्धा और उत्साह से लोग श्रीकृष्ण का जयंती उत्सव मनाते हैं वह सचमुच दर्शनीय है। श्रीकृष्ण ने संपूर्ण जीवन धर्म और सत्य की रक्षा की। दुष्टों का नाश किया। अतः यह विराट पर्व श्री कृष्ण के प्रेम और आनंद स्वरूप के साथ उनके आदर्शों को भी सदैव संचालित रखता है। 

इसी प्रकार गणेशोत्सव का भी सामजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय महत्त्व है. गणपति भारतीय देवमंडल में प्रथम पूजनीय हैं। महाकवि तुलसीदास ने गणपति को विद्या वारिधि, बुद्धिविधाता, विघ्नहर्ता और मंगलकर्ता कहा है। किसी भी विशेष कार्य की सिद्धि के लिए गणपति के विशेष रूप का ध्यान, जप ओर पूजन किया जाता है। देश भर में भाद्रपद की शुक्ला चतुर्थी से चतुर्दशी तक गणेश-उत्सव धूमधाम से मनाया जाता हैं। पारंपरिक रिवाज़ के अनुसार इस अवसर पर गणपति की मूर्ति मिट्टी से बनायी जाती है और घर लाते समय उन्हें एक थाली में रूमाल से ढक कर इस तरह लाया जाता है कि उनका मुँह हमारी तरफ रहे। मोदक का भोग गणेश पूजा का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी बड़ी रोचक कहानी है। एक बार माता पार्वती के पास स्कंद और गणेश, दोनो भाइयों ने मोदक के लिये जिद की। पार्वती ने कहा, "यह महाबुद्धि मोदक है, लेकिन है तो एक ही, जो भी इसे खायेगा वह सारे जगत में बुद्धिमान कहलायेगा। जो पहले पृथ्वी प्रदक्षिणा कर के आयेगा उसे ही यह मिलेगा।" मोदक की चाहत में स्कंद तो पृथ्वी प्रदक्षिणा करने के लिये निकले लेकिन गणेश वहीं रूका रहे। उन्होंने अपने माता पिता की ही पूजा कर उन्हीं की प्रदक्षिणा की और मोदक के लिये हाथ आगे बढ़ाया। "माता-पिता की प्रदक्षिणा अर्थात पृथ्वी और अकाश की प्रदक्षिणा। सर्व तीर्थों में स्नान, सब भगवानों को नमन, सब यज्ञ, व्रत, कुछ भी कर लें लेकिन माता-पिता की पूजा से मिले हुए पूण्य की तुलना किसी से भी नहीं हो सकती।" गणेश का यह स्पष्टीकरण सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लिया गया और उन्हें महाबुद्धि मोदक प्राप्त हुआ। यह आख्यान यह सन्देश देता है कि माता पिता अर्थात पूर्वज पीढ़ी का सम्मान करके ही समाज में प्रतिष्ठा अर्जित की जा सकती है. इससे भारत की कुटुंब संस्कृति की भी पुष्टि होती है. 

सार्वजनिक गणेश उत्सव में दस दिन दोनों समय सामूहिक आरती के साथ मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित किये जाते हैं। यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है कि लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इस उत्सव को लड़ाई झगड़े छोड़, मनमुटाव को दूर कर एकता की भावना के लिये विस्तृत और सार्वजनिक रूप दिया था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एकता और स्वतंत्रता की भावना को जगाने में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। वैसे तो भारत वर्ष में यह पर्व प्राचीन काल से ही मनाया जाता है लेकिन सम्मिलित रूप से इसकी विराटता को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने अंग्रेजों की हुकूमत से मुक्ति के लिए जनमानस को जागृत करते हुए राष्ट्रचेतना का पर्व बना दिया था। इसी कारण आज गणेशोत्सव देश-विदेश में भारतीय गौरव का प्रतीक बन चुका है। गणेशोत्सव में प्रतिष्ठा से विसर्जन तक विधि-विधान से की जाने वाली पूजा एक विशेष अनुष्ठान की तरह होती है जिसमें वैदिक एवं पौराणिक मंत्रों से की जाने वाली पूजा दर्शनीय होती है। महा आरती और पुष्पांजलि का नजारा देखने योग्य होता है। साथ-साथ अनेक लोक सांस्कृतिक रंगारंग कार्यक्रम भी होते हैं जिनमें नृत्यनाटिका, रंगोली, चित्रकला प्रतियोगिता, हल्दी उत्सव आदि प्रमुख होते हैं। 

इस नए रूप में गणेशोत्सव की शुरुआत 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र से की। इससे पहले यह उत्सव केवल घरों तक ही सीमित था। उस समय आज की तरह पंडाल नहीं बनाए जाते थे और न ही सामूहिक गणपति विराजते थे। तिलक उस समय एक युवा क्रांतिकारी और गर्म दल के नेता के रूप में जाने जाते थे। वे बहुत ही स्पष्ट वक्ता और प्रभावी ढंग से भाषण देने में माहिर थे। यह बात ब्रिटिश अफसर भी अच्छी तरह जानते थे कि अगर किसी मंच से तिलक भाषण देंगे तो वहां आग बरसना तय है। तिलक 'स्वराज' के लिए संघर्ष कर रहे थे और वे अपनी बात को ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें ऐसा सार्वजानिक मंच चाहिए था, जहां से उनके विचार अधिकांश लोगों तक पहुंच सकें। इसके लिए उन्होंने गणपति उत्सव को चुना और इसे सुंदर भव्य रूप दिया जिसे आज हम देखते हैं। तिलक के इस कार्य से दो फायदे हुए, एक तो वह अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचा पाए और दूसरा यह कि इस उत्सव ने आम जनता को भी स्वराज के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा दी और उन्हें जोश से भर दिया। इस तरह से गणपति उत्सव ने भी आजादी की लड़ाई में एक अहम् भूमिका निभाई। तिलक जी द्वारा शुरू किए गए इस उत्सव को आज भी हम भारतीय पूरी धूमधाम से मना रहे हैं और आगे भी मनाते रहेंगे। 

गणेशोत्सव के अवसर पर हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि गणेश का तात्पर्य है गणों के ईश. देवाधिदेव महादेव ने समस्त देवगणों के अध्यक्ष के रूप में जिसे मान्यता दी है वही गणेश है, उनका एक नाम गणाध्यक्ष भी है। गणेश जी की आकृति का इस अध्यक्ष पद के साथ एक निराला ही अर्थ प्रकट होता है। किसी राष्ट्र या समूह के अध्यक्ष के पास कुछ ऐसी योग्यताएँ होनी चाहिए ताकि वह समाज को सुरक्षित रख सकें। गणेश जी को गजानन कहते हैं इसका संकेत है हाथी की तरह धैर्यवान और बुद्धिमान होना। गणेश जी को विघ्नहर्ता भी कहते हैं। अतः इसके प्रतीक के रूप में उनके हाथ में परशुदंड भी है। अतः राष्ट्र पर आने वाले विघ्नों को दूर करने के लिए राजदंड और सैन्य शक्ति बहुत प्रबल होनी चाहिए। गणेश जी ऋद्धि-सिद्धि के स्वामी हैं। अतः राष्ट्र में सुख-संपदा धन-धान्य की कमी न होने पाए। इस प्रकार गणेश का स्वरूप किसी गण अर्थात राष्ट्र के सच्चे और समर्थ नायक के गुणों का प्रतीक है.